Sunday, 27 May 2018

Kuber Puja VIdhi (कुबेर पूजा विधि)

कुबेर पूजा विधि


हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार धन प्राप्ति के लिए कुबेर पूजन करना चाहिए। कुबेर पूजा विधि पूर्वक और पूरी कुबेर पूजन सामग्री के साथ करने से कुबेर भगवान् आपको मालामाल करते है।


कुबेर पूजन सामग्री

१-कुबेर जी को बिठाने के लिए चौकी
२-चौकी पर बिछाने के लिए लाल कपडा
३-जल कलश
४-पंचामृत
६-रोली , मोली , लाल चन्दन
हल्दी, धनिया, कमलगट्टा, दूर्वा
७-गंगाजल
८-सिन्दूर
९-लाल फूल और माला
१०-इत्र
११-मिठाई
१२-धनिया
१३-सुपारी
१४-लौंग ,इलायची
१५-नारियल फल
१६-पंचमेवा
१७-घी का दीपक
१८-धूप ,अगरबत्ती कपूर आदि

कुबेर पूजन सामग्री  किसी भी किराने की दुकान या पूजन सामग्री की दुकान पर आसानी से मिल जाती हैं।

कुबेर पूजा का सकंल्प

कुबेर पूजन शुरू करने से पहले सकंल्प लें। संकल्प करने से पहले हाथों में जल, फूल व चावल लें। सकंल्प में जिस दिन पूजन कर रहे हैं उस वर्ष, उस वार, तिथि उस जगह और अपने नाम को लेकर अपनी इच्छा बोलें। अब हाथों में लिए गए जल को जमीन पर छोड़ दें।

श्रीकुबेर पूजन विधि

अपने बाएँ हाथ की हथेली में जल लें एवं दाहिने हाथ की अनामिका उँगली व आसपास की उँगलियों से निम्न मंत्र बोलते हुए स्वयं के ऊपर एवं पूजन सामग्रियों पर जल छिड़कें-

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्था गतोsपि वा l या स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्रामायंतर: शुचि: ll

सर्वप्रथम चौकी पर लाल कपडा बिछा कर कुबेर जी की मूर्ति स्थापित करे (मूर्ति ना हो तो कुबेर यन्त्र या फिर तिजोरी की पूजा करे)
कुंकुम से स्वस्तिक का चिन्न बनाये।

श्रद्धा भक्ति के साथ घी का दीपक लगाएं। दीपक रोली/कुंकु, अक्षत, पुष्प , से पूजन करें।

अगरबत्ती/धूपबत्ती जलाये
जल भरा हुआ कलश स्थापित करे और कलश का धूप ,दीप, रोली/कुंकु, अक्षत, पुष्प , से पूजन करें।

अब कुबेर का ध्यान और हाथ मैं अक्षत पुष्प लेकर निम्लिखित मंत्र बोलते हुए कुबेर का आवाहन करे

आवाहयामि देव त्वामिहायाहि कृपां कुरु।
कोशं वद्र्धय नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर।।

अक्षत और पुष्प कुबेर जी की मूर्ति को समर्पित कर दे
अब कुबेर जी की मूर्ति को जल, कच्चे दूध और पंचामृत से स्नान कराये (मिटटी की मूर्ति हो तो सुपारी को स्नान कराये )
कुबेर जी की मूर्ति को नवीन वस्त्र और आभूषण अर्पित करे
रोली/कुंकु, अक्षत, सिंदूर, इत्र ,दूर्वां , पुष्प और माला अर्पित करे
हल्दी, धनिया, कमलगट्टा, दूर्वा अर्पित करे
धुप और दीप दिखाए
मिठाइयाँ, पंचमेवा , धानी , गुड़ एवं ऋतुफल जैसे- केलाचीकू आदि का नैवेद्य अर्पित करे
निम्नलिखित कुबेर मंत्र का १ माला जाप करे

ऊं श्रीं ऊं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नमः।

ऊँ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं में देहि दापय स्वाहा।
मंत्र जाप ४५ मिनट – ३.३० घंटे
ऊँ कुबेराय नमः।

अंत मैं कुबेर जी की आरती करे
आरती के बाद पुष्पांजलि दे
धन प्राप्ति की प्रार्थना करते हुए पूजा में प्रयोग की गई हल्दी, धनिया, कमलगट्टा, दूर्वा आदि को एक कपड़े में बांधकर तिजोरी में रखना चाहिए।

कुबेर पूजा के बाद अज्ञानतावश पूजा में कुछ कमी रह जाने या गलतियों के लिए भगवान् कुबेर के सामने हाथ जोड़कर निम्नलिखित मंत्र का जप करते हुए क्षमा याचना करे

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरं l
यत पूजितं मया देव, परिपूर्ण तदस्त्वैमेव l
आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनं l

पूजा चैव न जानामि, क्षमस्व परमेश्वरं l



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Thursday, 24 May 2018

Mahishasurmardhini Stotra (श्री महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम)

         श्री महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम   




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हर रोज एक ही समय पर एक बार पढ़े और अनुभव देखे 

नि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्य शिरो
sधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते । 
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्य कपर्दिनि शैलसुते ।।
1।। 

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते ।
 
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्य कपर्दिनि शैलसुते ।।
2।। 

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते ।
शिखरि शिरोमणि तुंगहिमालय श्रृंगनिजालय मध्यगते ।
 
मधुमधुरे मधुकैटभगण्जिनि कैटभभण्जिनि हासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
3।। 

अयि निजहुंगकृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
 
शिवशिवशम्भु निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
4।। 

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्ड गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते
 
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
5।। 

धनुरनुषंग रणक्षणसंग परिस्फुरदंग नटत्कटके
कनकपिशंग पृषत्कनिषंग ग्सद्भटश्रृंग हताबटुके ।
 
कृतचतुरंग बलक्षितिरंग घटब्दहुरंग रटब्दटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
6।। 

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्रिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
 
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदूत कृतान्तगते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
7।। 

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शूलविरोधि शिरो
sधिकृतामल शूलकरे । 
दुमिदुमितामर दुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिंगमकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
8।। 

सुरललना ततथेयित थेयित थाभिनयोत्तर नृत्यरते
कृतकुकुथा कुकुथोदि डडादिक तालकुतूह गानरते ।
 
धुधुकुट धूधुटधिन्धिमितध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
9।। 

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झण
-झण-झिण्झिमि झिंगकृत नूपुरशिण्चितमोहित भूतपते । 
नटित नटार्थ नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
10।। 

अयि सुमन: सुमन: सुमन: सुमन:सुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
 
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
11।। 

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
 
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्ल्व सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
12।। 

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमत्तंगजरापते ।
त्रिभुवनभूषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
 
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
13।। 

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलय क्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
 
अलिकुलसंगकुल कुवलयमण्डल मौलिमिलब्दकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
14।। 

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मंजुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुंजित रंजितशैल निकुंजगते ।
 
निजगणभूत महाशबरीगण सदगुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
15।। 

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयूखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचये
 
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुंजर कुंभकुचे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
16।। 

विजितसहस्त्रकरैक सहस्त्रकरैक सहस्त्रकरैकनुते
कृतसुरतारक संगतारक संगतारक सूनुसुते ।
 
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
17।। 

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योsनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलय
: स कथं न भवेत । 
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
18।। 

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिंचति तेगुणरंगभुवम
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भ सुखानुभवम ।
 
तवचरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
19।। 

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभ्रसौ विमुखीक्रियते ।
 
मम तु मतं शिवमानधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
20।। 

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
 
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
21।। 

स्तुतिमिमां स्तिमित: सुसमाधिनां नियमतो यमतोsनुदिनं पठेत ।
परमया रमया स निषेव्यते पिरजनो
sरिजनोsपि तं भजेत ।।22।। 

शब्द त्रुटि के लिए क्षमा


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Tuesday, 22 May 2018

Shri Datta Vajra Panjar Kavach (श्रीदत्तात्रेय वज्र पन्जर कवचं)

श्रीदत्तात्रेय वज्र पन्जर कवचं



इस कवच का वर्णन श्रीरुद्रयामल तन्त्र के हिमवत्खंड में उमामहेश्वर संवाद के रूप में आया है। इस वज्र पन्जर कवच की उपासना सर्वप्रथम स्वयम भगवान शिव ने अपने किरातरूपी महारुद्र अवतार रूप में सम्पन्न की है। इस कवच के माध्यम से ही महर्षि दधीचि ने अपने शरीर को वज्रवत बना लिया था एवं जिनके अस्थियों के द्वारा देवराज इन्द्र को वज्रास्त्र प्राप्त हुआ था। ब्रह्माण्ड के समस्त गुरु मण्डल भगवान महाअवधूत श्री दत्तत्रेय के अधीन हैं व उनके द्वारा ही सन्चालित और संरक्षित हैं। अतः इस स्त्रोत के बारे में कुछ भी कहना साक्षात सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है। परन्तु फिर भी इसके फलश्रुति खण्ड का, जो स्वयम भगवान शिव माता भवानी से कहते हैं; मैं सरलार्थ कर दे रहा हूं –
खालील कवचाचे वर्णन श्रीरुद्रयामल तंत्र मधील हिमवत्खंड मध्ये उमामहेश्वर संवादाचे रूप आहे . भगवान शिव यांनी सर्व प्रथम या वज्र पन्जर कवचाची उपासना आपल्या महारुद्र अवतारा मध्ये केली होती.ह्या कवचा मुळेच महर्षी दधीचि यांनी आपल्या शरीराला वज्रप्रमाणे केले होते. आणि यांच्याच अस्थी मुळे देवराज इंद्र यांना वज्रास्त्र प्राप्त झाले.
इस कवच का जो भी पाठ या श्रवण करते हैं वे वज्रदेही और दीर्घायु होते हैं। समस्त सुख-दुःखों से परे हो जीवन्मुक्त हो जाते हैं, सर्वत्र सभी संकल्प सिद्ध होते हैं। धर्मार्थकाममोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रेष्ठ वाहनादि व सर्वैश्वर्य प्राप्त होता है। वेदादि शास्त्रों का मर्मज्ञ होता है। यह कवच बुद्धि, विद्या, प्रज्ञादि व सर्वसंतोषों का कारक है। सर्वदुःखों का निवारक, शत्रुनिवारक और शीघ्र यशकीर्ति की वृद्धि करनेवाला है। मंत्रतंत्रादि कुयोगों से उतपन्न, ब्रह्मराक्षसादि ग्रहोद्भव, देशकालस्थान से उत्पन्न तापतत्रय और नवग्रह से होने वाले महापातकों एवम सर्वप्रकार के रोगों का नाश इस कवच के १००० पाठ से हो जाता है।
श्री दत्त वज्र पन्जर कवचम्
विनियोगः ॐ अस्य श्रीदत्तात्रेय वज्रपन्जर कवच स्तोत्र कवच मंत्रस्य श्री किरातरूपी महारुद्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, श्री दत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजं, आं शक्तिः, क्रौं कीलकं, ॐ आत्मने नमः। ॐ द्रीं मनसे नमः। ॐ आं द्रीं श्रीं सौः ॐ क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं क्लः। श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः
श्री किरातरूपी महारुद्र ऋषये नमः शिरसि।
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे।
श्री दत्तत्रेयो देवतायै नमः ह्रदि।
द्रां बीजाय नमः गुह्ये।
आं शक्तये नमः नाभौ।
क्रौं कीलकाय नमः पादयोः।
श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।

करन्यासः                             ह्र्दयादिन्यासः
ॐ द्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।                ॐ द्रां ह्रदयाय नमः।
ॐ द्रीं तर्जनीभ्यां नमः।                 ॐ द्रीं शिरसे स्वाहा।
ॐ द्रूं मध्यमाभ्यां नमः।                ॐ द्रूं शिखायै वषट्।
ॐ द्रैं अनामिकाभ्यां नमः।               ॐ द्रैं कवचाय हुं।
ॐ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।             ॐ द्रौं नेत्रत्रयाय वौषट।
ॐ द्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।          ॐ द्रः अस्त्राय फट्।
ॐ भूर्भुवः स्वरोम इति दिग्बन्धः।

ध्यानम्ः
जगदंकुरकन्दाय सच्चिदानन्द मूर्तये। दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने॥
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्नः पिशाचवत्। दत्तात्रेयो हरिः साक्षाद् भुक्तिमुक्ति प्रदायकः॥
वाराणसीपुर स्नायी कोल्हापुर जपादरः। माहुरीपुर भिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बरः॥
इन्द्रनील समाकारः चन्द्रकान्तसम द्युतिः। वैडूर्यसदृश स्फूर्तिः चलत्किंचित जटाधरः॥
स्निग्धधावल्य युक्ताक्षो अत्यन्त नीलकनीनिकः। भ्रूवक्षः श्मश्रु नीलांकः शशांक  सदृशाननः॥
हासनिर्जित नीहारः कण्ठनिर्जित कम्बुकः। मांसलांसो दीर्घबाहुः पाणिनिर्जित पल्लवः॥
विशाल पीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दलोदरः। पृथुल श्रोणि ललितो विशाल जघनस्थलः॥
रम्भास्तम्भोपमानः ऊरूर्जानु पूर्वैकजंघकः। गूढ़गुल्फः कूर्मपृष्ठो लसत् पादोपरिस्थलः॥
रक्तारविन्द सदृश रमणीय पदाधरः। चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे॥
ज्ञानोपदेश निरतो विपद हरणदीक्षितः। सिद्धासन समासीन ऋजुकायो हसन्मुखः॥
वामहस्तेन वरदो दक्षिणेन् अभयं करः। बालोन्मत्त पिशाचीभिः क्वचिद् युक्तः परीक्षितः॥
त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरंजनः। सर्वरूपी सर्वदाता सर्वगः सर्वकामदः॥
भस्मोद्धूलित सर्वांगो महापातकनाशनः। भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशयः॥
एवं ध्यात्वा अनन्यचित्तो मद् वज्रकवचं पठेत्। मामेव पश्यन् सर्वत्र स मया सह संचरेत्॥
दिगम्बरं भस्म सुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदायुधम्।
पद्मासनं योगिमुनीन्द्र वन्दितं दत्तेति नाम स्मरणेन् नित्यम्॥
मूल कवचम्ः
ॐ दत्तात्रेयः शिरः पातु सहस्राब्जेषु संस्थितः । भालं पातु अनसूयेयः चन्द्रमण्डल मध्यगः ॥१॥
कूर्चं मनोमयः पातु हं क्षं व्दिदल पद्मभूः। ज्योतिरूपो अक्षिणी पातु पातु शब्दात्मकः श्रुतिः ॥२॥
नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मकः। जिह्वां वेदात्मकः पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिकः ॥३॥
कपोलावत्रिभूः पातु पातु अशेषं ममात्मवित्। स्वरात्मा षोडशाराब्ज स्थितः स्वात्मा अवताद् गलम् ॥४॥
स्कन्धौ चन्द्रानुजः पातु भुजौ पातु कृतादिभूः। जत्रुणी शत्रुजित पातु पातु वक्षः स्थलं हरिः ॥५॥
कादिठान्त व्दादशार पद्मगो मरुदात्मकः। योगीश्वरेश्वरः पातु ह्रदयं ह्रदय स्थितः ॥६॥
पार्श्वे हरिः पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थितः समृतः। हठयोगादि योगज्ञः कुक्षी पातु कृपानिधिः ॥७॥
डकारादि फकारान्त दशार सरसीरुहे। नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्न्यात्मकोऽवतु ॥८॥
वह्नि तत्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम्। कटिं कटिस्थ ब्रह्माण्ड वासुदेवात्मकोऽवतु ॥९॥
बकारादि लकारान्त षट्पत्राम्बुज बोधकः। जल तत्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ॥१०॥
सिद्धासन समासीन ऊरू सिद्धेश्वरोऽवतु। वादिसान्त चतुष्पत्र सरोरुह निबोधकः ॥११॥
मूलाधारं महीरूपो रक्षताद् वीर्यनिग्रही। पृष्ठं च सर्वतः पातु जानुन्यस्तकराम्बुजः ॥१२॥
जंघे पातु अवधूतेन्द्रः पात्वंघ्री तीर्थपावनः। सर्वांगं पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशवः ॥१३॥
चर्म चर्माम्बरः पातु रक्तं भक्तिप्रियोऽवतु। मांसं मांसकरः पातु मज्जां मज्जात्मकोऽवतु ॥१४॥
अस्थीनि स्थिरधीः पायान्मेधां वेधाः प्रपालयेत्। शुक्रं सुखकरः पातु चित्तं पातु दृढ़ाकृतिः ॥१५॥
मनोबुद्धिं अहंकारं ह्रषीकेशात्मकोऽवतु। कर्मेन्द्रियाणि पात्वीशः पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यजः ॥१६॥
बन्धून् बन्धूत्तमः पायात् शत्रुभ्यः पातु शत्रुजित्। गृहाराम धनक्षेत्र पुत्रादीन् शंकरोऽवतु ॥१७॥
भार्यां प्रकृतिवित् पातु पश्वादीन् पातु शांर्गभृत्। प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन् पातु भास्करः ॥१८॥
सुखं चन्द्रात्मकः पातु दुःखात् पातु पुरान्तकः। पशून् पशुपतिः पातु भूतिं भूतेश्वरो मम् ॥१९॥
प्राच्यां विषहरः पातु पातु आग्नेयां मखात्मकः। याम्यां धर्मात्मकः पातु नैर्ऋत्यां सर्ववैरिह्रत् ॥२०॥
वराहः पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु। कौबेर्यां धनदः पातु पातु ऐशान्यां महागुरुः ॥२१॥
ऊर्ध्वं पातु महासिद्धः पातु अधस्ताद् जटाधरः। रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षतु आदिमुनीश्वरः ॥२२॥
फलश्रुतिः
एतन्मे वज्रकवचं यः पठेच्छृणुयादपि । वज्रकायः चिरंजीवी दत्तात्रेयो अहमब्रुवम् ॥२३॥
त्यागी भोगी महायोगी सुखदुःख विवर्जितः । सर्वत्र सिद्धिसंकल्पो जीवन्मुक्तोऽथ वर्तते ॥२४॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बरः । दलादनोऽपि तज्जपत्वा जीवन्मुक्तः स वर्तते ॥२५॥
भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवानिदम् । सकृच्छ्र्वणमात्रेण वज्रांगो अभवदप्यसौ ॥२६॥
इत्येतद वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिनः । श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनरप्याह पार्वती ॥२७॥
एतत् कवचं माहात्म्यं वद विस्तरतो मम् । कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम् ॥२८॥
उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम् । श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनाविलम् ॥२९॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां इदमेव परायणम् । हस्त्यश्वरथपादाति सर्वैश्वर्य प्रदायकम् ॥३०॥
पुत्रमित्रकलत्रादि सर्वसन्तोष साधनम् । वेदशास्त्रादि विद्यानां निधानं परमं हि तत् ॥३१॥
संगीतशास्त्रसाहित्य सत्कवित्व विधायकम् । बुद्धि विद्या स्मृतिप्रज्ञां अतिप्रौढिप्रदायकम् ॥३२॥
सर्वसन्तोष करणं सर्व दुःख निवारणम् । शत्रु संहारकं शीघ्रं यशः कीर्तिविवर्धनम् ॥३३॥
अष्टसंख्या महारोगाः सन्निपातः त्रयोदशः । षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगकाः ॥३४॥
अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मानि अष्टविधान्यपि । अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंश्त्तु पैत्तिकाः ॥३५॥
विंशति श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादयः । मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्याः कल्पतन्त्रादि निर्मिताः ॥३६॥
ब्रह्मराक्षस वेतालकूष्माण्डादि ग्रहोद्भवाः । संगजा देशकालस्थान तापत्रयसमुत्थिताः ॥३७॥
नवग्रह समुद्भूता महापातक सम्भवाः । सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति सहस्रावर्तनाद् ध्रुवम् ॥३८॥
अयुतावृत्ति मात्रेण वन्ध्या पुत्रवति भवेत् । अयुत व्दितयावृत्या हि अपमृत्युर्जयो भवेत् ॥३९॥
अयुत त्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते । सहस्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत् ॥४०॥
लक्षावृत्त्या कार्यसिद्धिः भवत्येव न संशयः । विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुखः ॥४१॥
कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम् । औदुम्बर तरोर्मूले वृद्धिकामेन् जाप्यते ॥४२॥
श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिंतिणी शांतिकर्मणि । ओजस्कामो अश्वत्थमूले स्त्रीकामैः सहकारके ॥४३॥
ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभिः । धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके ॥४४॥
देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम । नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुम् आलोक्य यो जपेत् ॥४५॥
युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेण जयो भवेत् । कंठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत् ॥४६॥
ज्वरापस्मार कुष्ठादि तापज्वर निवारणम् । यत्र यत्स्यात्स्थिरं यद्यत्प्रसन्नं तन्निवर्तते॥४७॥
तेन् तत्र हि जप्तव्यं ततः सिद्धिर्भवेद्‍ ध्रुवं । इत्युक्त्वान् च शिवो गौर्ये रहस्यं परमं शुभम् ॥४८॥
यः पठेत् वज्रकवचं दत्तात्रेयो समो भवेत् । एवं शिवेन् कथितं हिमवत्सुतायै प्रोक्तम् ॥४९॥
दलादमुनये अत्रिसुतेन पूर्वम् यः कोअपि वज्रकवचं। पठतीह लोके दत्तोपमश्चरति योगिवरश्चिरायुः॥५०॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् श्री सदगुरुः महावधूत दत्त ब्रह्मार्पणमस्तु ॥
पाठ विधिः
१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे। प्रत्येक १००० पाठ की समाप्ति पर दशांश हवन करें और एक कुंवारी कन्या को भोजन वस्त्रादि प्रदान करें।
प्रयोग विधिः
नित्य किसी भी पूजन या साधना को करने से पूर्व और अन्त में आप कवच का ५ बार पाठ करें। रोगयुक्त अवस्था में या यात्राकाल में स्तोत्र को मानसिक रूप से भावना पूर्वक स्मरण कर लें।
इसी तरह यदि आप श्मशान में किसी साधना को कर रहें हों तो एक लोहे की छ्ड़ को कवच से २१ बार अभिमंत्रित कर अपने चारों ओर घेरा बना लें। और साधना से पूर्व व अन्त में कवच का ५-५ बार पाठ कर लें। जब कवच सिद्धि की साधना कर रहे हो उस समय एक लोहे की छ्ड़ को भी गुरु चित्र या यंत्र के सामने रख सकते हैं। और बाद में उपरोक्त विधि से प्रयोग कर सकते हैं।
विशेषः यदि आप पाठ में आये शरीर के अंगों में न्यास की भावना करें तो प्रभाव कई गुणित हो जायेगा।
सदगुरुदेव भगवान श्री निखिलेश्वरानंद आपके समस्त अभीष्टों को पूर्ण करें ऐसी ही उनके श्री चरणों में प्रार्थना करता हूं।

॥ श्री गुरुचरणार्पणमस्तु ॥


॥ क्षमस्व परमेश्वरः ॥

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Saturday, 19 May 2018

Saraswati Kavach (सरस्वती कवच)


सरस्वती कवच




।।ब्रह्मोवाच।। 

श्रृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम्। श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम्।। 
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वमे। रासेश्वरेण विभुना वै रासमण्डले।। 
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम्। अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम्।। 
यद् धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः। यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मन् बुद्धिमांश्च बृहस्पति।। 
पठणाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः। स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद् धृत्वा सर्वपूजितः।। 
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनीः शाकटायनः। ग्रन्थं चकार यद् धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम्।। 
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च। चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम्।। 
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः। यद् धृत्वा पठनाद् ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः।। 
ऋष्यश्रृंगो भरद्वाजश्चास्तीको देवलस्तथा। जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यद् धृत्वा सर्वपूजिताः।। 
कचवस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः। स्वयं च बृहतीच्छन्दो देवता शारदाम्बिका।।१ 
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च। कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः।।२ 
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः। श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।।३ 
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम्। ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु।।४ 
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु। ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु।।५ 
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदावतु। ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु।।६ 
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु। ॐ श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु।।७ 
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्। ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु।।८ 

ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु। ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै सर्व सदावतु।।९ 
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु। ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु।।१० 
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा। सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु।।११ 
ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु। कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु।।१२ 
ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु। ॐ ऐं श्रीं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु।।१३ 
ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु। ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु।।१४ 
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु। ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु।।१५ 

इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम्। इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरुपकम्।। 
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात् पर्वते गन्धमादने। तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्।। 
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः। प्रणम्य दण्डवद् भूमौ कवचं धारयेत् सुधीः।। 
पञ्चलक्षजपैनैव सिद्धं तु कवचं भवेत्। यदि स्यात् सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत्।। 
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत्। शक्नोति सर्वे जेतुं स कवचस्य प्रसादतः।। 
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने। स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा।। 
।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते  विश्वविजय-सरस्वतीकवचं सम्पूर्णम्।। 


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श्राद्ध न करनेसे हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः आद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठा...