Sunday 27 November 2022

शोणदेव नर्मता शक्तिपीठ

 शोणदेश शक्ति पीठ मध्य प्रदेश के अमरकंटक में स्थित है। यह मां सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां मां सती की मूर्ति को ‘नर्मदा’ और भगवान शिव को ‘भद्रसेन’ के रूप में पूजा जाता है। यह नर्मदा नदी का उद्गम स्थल भी है और मंदिर परिसर में नर्मदा उदगाम मंदिर भी शामिल है।


  • नर्मदा देवी शोणदेश शक्ति पीठ को एक प्राचीन मंदिर माना जाता है, और यह 6000 वर्ष पुराना माना जाता है।
  • यहां, देवी को नर्मदा देवी या सोनाक्षी (शोनाक्षी) के रूप में सम्मान मिलता है, और भगवान शिव को भैरव भद्रसेन के रूप में पूजा जाता है।
  • यह व्यापक रूप से माना जाता है कि यहां जो कोई भी गुजरता है वह स्वर्ग में जाता है।
  • संस्कृत शब्द अमरकंटक 2 शब्दों का योग है, अर्थात् अमर + कंटक, जहाँ अमर ने कभी न रुकने का प्रतिनिधित्व किया, और कंटक बाधा है। अमरकंटक शब्द उस स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जहां भगवान रुद्रगणों के अवरोध से व्यथित रहते थे।

शोना शक्ति पीठ मंदिर की भीतरी वेदी अद्भुत है। केंद्र में देवी नर्मदा की एक मूर्ति है और इसके चारों ओर सुनहरे ‘मुकुट’ से ढका हुआ है। दोनों ओर से मात्र दो मीटर की दूरी पर विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों को सजाया जाता है। जिस चबूतरे पर मां नर्मदा की मूर्ति है, वह चांदी से बनी है। कला और स्थापत्य कला की बात करें तो शोन्देश शक्ति पीठ का निर्माण और तराशा शानदार ढंग से किया गया है। सफेद चट्टानों वाले मंदिर के चारों ओर तालाब हैं जो इसे एक आदर्श दृश्य बनाते हैं। सोन नदी और पास के कुंड के अद्भुत दृश्य के साथ जगह की सुंदरता कई गुना है। इन क्षेत्रों को पर्यटकों द्वारा उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। सबसे आश्चर्यजनक दृश्य राज्य के इस हिस्से में विंध्य और सतपुड़ा जैसी 2 पहाड़ी श्रृंखलाओं का संयोजन है।

मंदिर इतने आकर्षक स्थान पर स्थापित है कि पास के कुंड से आने वाली सोन नदी के अद्भुत दृश्य का आनंद लगातार लिया जा सकता है। सतपुड़ा पर्वतमाला और लहराती घाटियों के सचित्र दृश्य देखने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है। इस खूबसूरत जगह से उगते सूरज को भी देखा जा सकता है। और मंदिर तक पहुंचने के लिए चढ़ाई करने के लिए लगभग 100 सीढिया हैं। एक और चीज जो इस जगह को और अधिक मनमोहक बनाती है वह है नर्मदा नदी का प्रवाह।


देवी नर्मदा की मूर्ति मंदिर के केंद्र में स्थित है और स्वर्ण “मुकुट” से ढकी हुई है। देवी नर्मदा का मंच चांदी से बनाया गया है। देवी नर्मदा के दोनों किनारों पर अन्य देवी-देवताओं के प्रतीक भी स्थित हैं।

देवी पाटन मन्दिर

 देवी पाटन मन्दिर तुलसीपुर में स्थित एक बहुत प्रसिद्ध मंदिर है, जो बलरामपुर के जिला मुख्यालय से करीब 25 किमी दूर है । यह मा पाटेश्वरी का मंदिर है और नाम देवी पाटन से जाता है । यह मंदिर मा दुर्गा के प्रसिद्ध ५१ शक्ति पीठों में से एक है कहा जाता है कि दाहिने कंधे (पैट के रूप में हिंदी में कहा जाता है), माता सती के यहां गिर गया था और इसलिए यह भी शक्ति पीठ् में से एक है और देवी पाटने के रूप में कहा जाता है । यह महान धार्मिक महत्व का एक स्थान है और तेरै क्षेत्र के प्रमुख मंदिर में से एक है । मंदिर महान धार्मिक महत्व का है और नवरात्रि काल के दौरान बहुत रश है । लोग अपने बच्चों के मुंडण समारोह के लिए यहां आते है । इसके लिए यहां बाल दान पवित्र माना जाता है । यह मंदिर तुलसीपुर शहर के पश्चिम में स्थित है । तुलसीपुर बस के जरिए बलरामपुर के जिला मुख्यालय से जुड़ा है और बलरामपुर से 25 किमी. की दूरी पर है| भारत के सभी प्रमुख शहरों से बहुत अच्छी तरह जुड़ा है । यदि आप हवाई यात्रा कर रहे हैं, तो राज्य की राजधानी लखनऊ निकटतम हवाई अड्डा है ।

52 वीर नाम

 52 विरो के नाम

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स्थान एवं जाती भेद के अनुसार इनके नामो में भेद हो सकता है।
01. क्षेत्रपाल वीर
02. कपिल वीर
03. बटुक वीर
04. नृसिंह वीर
05. गोपाल वीर
06. भैरव वीर
07. गरूढ़ वीर
08. महाकाल वीर
09. काल वीर
10. स्वर्ण वीर
11. रक्तस्वर्ण वीर
12. देवसेन वीर
13. घंटापथ वीर
14....रुद्रवीर
15. तेरासंघ वीर
16. वरुण वीर
17. कंधर्व वीर
18. हंस वीर
19. लौन्कडिया वीर
20. वहि वीर
21. प्रियमित्र वीर
22. कारु वीर
23. अदृश्य वीर
24. वल्लभ वीर
25. वज्र वीर
26. महाकाली वीर
27. महालाभ वीर
28. तुंगभद्र वीर
29. विद्याधर वीर
30. घंटाकर्ण वीर
31. बैद्यनाथ वीर
32. विभीषण वीर
33. फाहेतक वीर
34. पितृ वीर
35. खड्ग वीर
36. नाघस्ट वीर
37. प्रदुम्न वीर
38. श्मशान वीर
39...भरुदग वीर
40. काकेलेकर वीर
41. कंफिलाभ वीर
42. अस्थिमुख वीर
43. रेतोवेद्य वीर
44. नकुल वीर
45. शौनक वीर
46. कालमुख
47. भूतबैरव वीर
48. पैशाच वीर
49. त्रिमुख वीर
50. डचक वीर
51. अट्टलाद वीर
52. वासमित्र वीर

Saturday 9 July 2022

मंगल ग्रह

🌹 मंगल ग्रह 🌹                               
मंगल जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से चौथे,सातवें और आठवें भाव को देखता है
मंगल मकर राशि में उच्च का होता है तथा कर्क राशि में नीच का होता है। किसी के जन्म-कुंडली में यदि मंगल उच्च का होता है यानि मकर राशि में होता है तो वह व्यक्ति बलवान,परिश्रमी,धैर्यवान, सरकार द्वारा सम्मान प्राप्त करने वाला,पुलिस या सेना में कार्य करने वाला,विजेता,लड़ाई में विजय पाने वाला, साहसी और क्रोधी होता है। ऐसे व्यक्ति को अपने सगे भाई,मित्र,साला,बहनोई,रिश्तेदार और गुरु के साथ विश्वासघात या अपमान नहीं करना चाहिए,नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ प्रभाव देना छोड़ देते हैं। यदि मंगल अपनी नीच राशि यानि कर्क राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं

🌹हर हर महादेव 🌹- मनोज कुमार गुप्ता

Friday 1 July 2022

शनि ग्रह

🌹🌹शनि ग्रह 🌹🌹
शनि जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से तीसरे,सातवें और दशवें भाव को देखता हे
शनि तुला राशि में उच्च का होता है तथा मेष राशि में नीच का होता है किसी की जन्म-कुंडली में यदि शनि उच्च का होता है यानि तुला राशि में होता है तो वह अधिपति,जमींदार,राजा तुल्य बलवान,यशस्वी,परम-शक्तिशाली,भाग्यशाली,चिंतन करनेवाला, पूर्ण प्रगति करने वाला,जादूगर,इंजिनियर,रसायन-शास्त्री, साहित्यकार, वैज्ञानिक, पूर्ण रहस्यवादी आदि होता है ऐसे व्यक्ति को चाचा और निम्न वर्ग के लोगों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहिये साथ हीं उसे मांस-मदिरा तथा पर-स्त्री गमन से बचना चाहिए, नहीं तो उसका शनि अपना शुभ फल देना छोड़ देता है। यदि शनि अपनी नीच राशि यानि मेष राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं.
🌹🌹हर हर महादेव 🌹🌹

- - मनोज कुमार गुप्ता 

Wednesday 29 June 2022

बुध ग्रह

🌹🌹बुध ग्रह🌹🌹
बुध जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से सिर्फ सातवें भाव को देखता है बुध कन्या में 15 डिग्री तक राशि में उच्च का होता है तथा मीन राशि में नीच का होता है किसी के जन्म कुंडली में यदि बुध उच्च का होता है यानि कन्या राशि में होता है तो वह 
बुद्धिमान,लेखक,प्रकाशन संबंधी कार्य करने वाला, राजा तुल्य सुख भोगने वाला,वंश वृद्धि करने वाला,प्रसन्न रहने वाला,गणित संबंधी कार्य करने वाला,व्यापार करने वाला,धन एवं जमीन बढ़ाने वाला,शत्रुनाशक और भौतिक 
सुख भोगने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति को अपनी पुत्री, बहन,साली,बुआ या किसी भी कन्या को कष्ट नहीं देना चाहिये,नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ फल देना छोड़ देते हैं। यदि बुध अपनी नीच राशि यानि मीन राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं.
   🌹🌹हर हर महादेव 🌹🌹


- मनोज कुमार गुप्ता 

शाबर मंत्र

श्री गणेशाय नमः🙏
 | शाबर मंत्र

ग्रामीण शाबर मंत्र | शाबर मंत्र सिद्धी कैसे करे | रक्षा शाबर मंत्र | हनुमान जी का शाबर मंत्र | माँ काली शाबर मंत्र | डाकिनी साधना मंत्र | जगदंबा शाबर साधना मंत्र | हर तरह के रोग को ठीक करने का शाबर मंत्र
शाबर मंत्रों के बारे में आप सभी ने सुना तो होगा, परंतु इसके उपयोग का कभी मौका और विधि नहीं मिली होगी | शाबर मंत्रों के बारे में यह कहा जाता है की ये मंत्र स्वयं में सिद्ध होते हैं और तुरन्त फलदायी | शाबर मंत्रो को पढ़ना बहुत ही आसान होता है क्योंकि ये बहुत ही सरल भाषा में होते हैं। ये मंत्र अनेक भाषाओं में पाए जाते हैं इस नाते अब तक लोग इन्हें मुस्लिम सूफियों द्वारा तैयार किया मानते थे | शाबर मंत्र दो तरह के होते हैं- पहला वह जिनका अर्थ ही समझ में न आए। दूसरा वह जो अपना अर्थ स्वयं पढ़ने के बाद खोल देते हैं। यह मंत्र शास्त्रीय मंत्रों की भांति कठिन भी नहीं होते और इतने आसान कि, इसका जो चाहे लाभ उठा सकता है। शाबर मंत्रों से हर एक समस्या का निराकरण किया जा सकता है। यदि बताई गई विधि के अनुसार इसका सही-सही प्रयोग किया जाए।

शाबर मंत्रो मे सुधार की भी जरूरत नहीं होती, क्योंकि ये आमतौर पर ग्रामीण भाषाओं में होते हैं और अधिकतर मंत्रों में हनुमान या काली से ही इन शाबर मंत्रों के द्वारा कार्य सिद्ध किए जाने की प्रार्थना की जाती है।

आप नियमपूर्वक शुद्ध उच्चारण के द्वारा संयम पूर्वक रहकर यदि इन्हें सिद्ध करना चाहें तो बड़े आराम से कर सकते हैं। जिन्हें मंत्रों में रूचि हो, भगवान में विश्वास हो, तो वे इन्हें स्वयं सिद्ध कर इनका लाभ उठा सकते हैं और आनेवाली पीढ़ी को भी इससे अवगत करा सकते हैं, क्योंकि भावी पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता में रंगकर भारतीय संस्कृति का मजाक उड़ाने लगी है। सीता, सावित्री के बजाये मरियम और तुलसी, सूर, कबीर, कालिदास से बड़ा शैक्सपीयर को मानते हैं। 
शाबर मंत्र सिद्धी कैसे करे
शाबर मंत्र सदैव एक ही स्थान पर बैठकर सिद्ध करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है जहां मंत्र जपा जाये उस स्थान को दोष मुक्त कर अला-बला से भी मुक्त कर लिया जाये । साथ ही ऐसा करने से साधक की भी रक्षा होती है। इस तरह के जो शाबर मंत्र होते हैं उन्हें रक्षा मंत्र भी कहा जाता है |
 !

ॐ नमः शिवाय🙏🙏🌷🌷

- मनोज कुमार 

Tuesday 28 June 2022

चंद्र ग्रह

कुंडली मे चंद्रमा का अहम भूमिका होती है चंद्रमा मन का कारक है चंद्रमा सूर्य के साथ बैठता है अमावस्या दोष बना देता है चंद्रमा राहु के साथ युक्ति होती है तो मातृ दोष का निर्माण होता है शनि के साथ युक्ति होती है विष दोष का निर्माण होता है चंद्रमा पीड़ित होता है कुंडली में बने हुए राजयोग जैसे गजकेसरी राजयोग, बुद्धादित्य राजयोग, लक्ष्मीनारायण राजयोग, इत्यादि राजयोग चंद्रमा के पीड़ित होने से अपना फल या प्रभाव देने में असमर्थ हो जाते हैं चंद्रमा मन का कारक है चंद्रमा पीड़ित होता है तो जातक का मन हमेशा विचलित रहता है ऐसे में कोई भी अपना डिसीजन लेने में असमर्थ हो जाता है ऐसे में जातक को कोई भी उपाय दिया जाए जब भी विश्वास नहीं करता है और उपाय भी सही ढंग से नहीं करता है 

- मनोज कुमार


प्रश्न: भाग्य बंधन क्या होता है ? क्या कोइ ईँसान अपनी तंत्र शक्ति से भाग्य बांध सकता हैं ?

प्रश्न: भाग्य बंधन क्या होता है ? क्या कोइ ईँसान अपनी तंत्र शक्ति से भाग्य बांध सकता हैं ?
उत्तर: बहुत अच्छा प्रश्न हे, यह. आजकल बहुत सारे लोग इसी समस्याओं से परेशान हे. भाग्यबंधन होना यानी इश्वर की और या प्रकृति के और से जो सहज लाभ इंसान को मिलने चाहिए वह लाभ मिलना बंद हो जाना. जो opportunities, जो सफ़लता, जो सन्मान, जो स्वास्थ्य और जो प्रेम सरल तरीके से मिलने चाहिए वह सब खूब मेहनत करने के बाद भी प्राप्त नहीं होना. यह सब भाग्य बंधन कहा जाता हे. इसी भाग्य बंधन को ज्योतिष लोग ग्रह दोष कहते हे, तांत्रिक लोग पितृ दोष और प्रेत बाधा कहते हे, वास्तु शास्त्री इसे वास्तु दोष और पंडित लोग इसे महा दशा का नाम देते हे. जब कि यह भाग्य बंधन ही हे, जो मनुष्य को उसके खुद के ही कर्मों के कारण प्राप्त होता हे, ज्यादातर लोग भाग्य बंधन का शिकार 30 साल के बाद होते हे उन्हें अपने 30 वर्ष का आचरण, विचरण और विचारों पर समीक्षा करनी चाहिए, उसी में से उन्हें अपने भाग्य बंधन के कर्म मिल जाएंगे. किन्तु जिनका भाग्य बंधन जन्म के साथ ही शुरू हो जाता हे, वे अपने पूर्ण जन्म के कर्म फल का ही परिणाम होता हे. 
  देखिए इश्वर किसी के भी पाप और पुण्य को स्वीकार नहीं करते हे. किसी के कर्म पर इश्वर का अधिकार नहीं और ना उसके कर्म फल पर इश्वर का अधिपत्य. इसलिए इश्वर के पास भी किसी के भाग्य को खोलने या बंधन का अधिकार नहीं फिर तांत्रिकों की क्या स्थिति है इस से आप सभी वाकिफ हे. फिर भी कुछ केस में ऐसा देखा गया हे कि किसी तांत्रिक ने अपने शक्ति सामर्थ्य से किसी के भाग्य को बाँध लिए. देखिए वास्तव मे ऐसा नहीं होता. जब पाप कर्म मनुष्य को दुख फल देने के लिए प्रवृत्त होता हे तो उसे भी किसी ना किसी माध्यम के द्वारा ही देना होता हे. ऐसे समय में जो तांत्रिक कुछ भी नहीं जानता वह भी कुछ विधि से पीड़ित व्यक्ती के भाग्य को बांधने का निर्मित बन जाता हे, इसी प्रकार जब पुण्य फल सुख देने वाला होता हे तब भी किसी भी ज्योतिष, पंडित या अन्य मार्गदर्शक को ही माध्यम बनाकर उन्हें उसका निर्मित बनाता हे. यह सीधा प्रोसेस हे. 
    कर्म पर सिर्फ और सिर्फ इंसान का खुद का ही अधिकार हे, इसलिए उस से प्राप्त होने वाले फल पर भी उसी kw अधिकार. इसमे किसी की नहीं चलती, इश्वर की भी नहीं. अहिल्या का भी जब बुरे कर्म का समय सीमा समाप्त हुआ तभी उसे श्री राम के चरण स्पर्श का लाभ मिला, इसी प्रकार केवट, शबरी, हनुमानजी, सुग्रीव, विभीषण सभी को प्रभु की कृपा उनके पुण्य फल के उदय के समय प्राप्त हुई.



जप के प्रकार

जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है जानिए
जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। 
जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 
 
1. नित्य जप
प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 
 
2. नैमित्तिक जप
किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।   
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 
 
3. काम्य जप
किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
 
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 
 
4. निषिद्ध जप
मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 
 
5. प्रायश्चित जप
अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
 
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।
 
6. अचल जप
यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
 
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 
 
7. चल जप
यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
 
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 

8. वा‍चिक जप
जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
 
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 
 
9. उपांशु उपाय
वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 
 
10. भ्रमर जप
भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 
 
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 
 
11. मानस जप 
यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
 
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 
 
12. अखंड जप 
यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 
 
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
 
13. अजपा जप 
यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 
 राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 
 
14. प्रदक्षिणा जप
इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है।

३ नाडिया ऑर ७ चक्र

मनुष्य के शरीर में
मुख्य तीन नाड़ियाँ होती हैं!
1) इड़ा नाड़ी
2) पिंगला नाड़ी
3) सुषुम्ना नाड़ी
ये तीनो नाड़ियाँ एक वक्र पथ में मेरूदंड से होकर जाती है और सात बार एक दूसरे को काटती हुई पार करती हैं! जहाँ पर नाड़ियाँ एक दूसरे को काटती है, उस स्थान को 'प्रतिच्छेदन बिंदु' कहते हैं! इन्ही प्रतिच्छेदन बिंदुओं पर, नाड़ियाँ ब्रह्मांड की किरणों के साथ मिलकर एक शक्तिशाली ऊर्जा का केंद्र बनाती है, जिसे 'चक्र' कहते है!

मनुष्य के शरीर में मूल रूप से 7 सात चक्र होते हैं!
1)मूलाधार चक्र
2)स्वाधिष्ठान चक्र
3)मणिपुर चक्र
4)अनाहत चक्र
5)विशुद्धि चक्र
6)आज्ञा चक्र व
7)सहस्त्रार या सहस्त्रदल या ब्रह्मचक्र
यह चक्र मानव शरीर के मेरूदंड में होते है, और इन्ही चक्रों को शरीर की समस्त दिव्य शक्तियों का केंद्र माना जाता है!

तो आज से हम क्रमशः इन्ही चक्रों के रहस्यों पर चर्चा शुरू करते है! जो कि मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र तक स्थूल रूप में ना ही दिखाई देते हैं और ना ही महसूस होते हैं, (जब तक कि इन चक्रो को जाग्रत ना कर लिया जाये) क्योकि शरीर में इनका निवास सूक्ष्म रूप में होता हैं!

हर चक्र के जागने से शरीर में एक विशेष दिव्य ऊर्जा का संचरण होता है! चक्र ध्यान करते समय जब ब्रह्मांड की किरणों से ऊर्जा निकल कर इन चक्र केंद्र पर पड़ती है, तब शरीर के भीतर इन चक्र केंद्रों से एक विशेष दिव्य ऊर्जा उत्पन्न होती हैं! जो मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ गति करती हुई, मध्य के विभिन्न चक्र केंद्रों को भेदती हुई सिर के शीर्षस्थान पर यानि सहस्रार चक्र तक पहुँचती है!

हर चक्र का एक अपना दिव्य प्रकाश पुञ्ज होता है! जो हर गहरी श्वास की गति के साथ,
1)मूलाधार चक्र में रक्तवर्णी
2)स्वाधिष्ठान चक्र में सिन्दूरीवर्ण
3)मणिपूर चक्र में पीतवर्ण
4)अनाहत चक्र में हरितवर्ण
5)विशुद्ध चक्र में हरित-नील (फिरोजी-वर्ण)
6)आज्ञा चक्र में नीलवर्ण व
7)सहस्रार चक्र में बैंगनी वर्ण का आलोक फैलाकर मनुष्य की दिव्य चेतना को समृद्धि करता है!

🙏🙏🙏

 - मनोज कुमार 

Thursday 12 May 2022

पुण्यसंचय

तुमचे सद्गुरु एका ठराविक मर्यादेपर्यंत तुम्हाला मदत करतात. त्या मदतीसाठी ते तुमच्याच #विधिलिखितामधील_पुण्यसंचय, तुमची #सश्रद्धता आणि तुमची #साधना याचा इंधन म्हणून वापर करतात. त्यासाठी ते अनेक Permutations and combinations वापरुन बघतात. दुसरीकडे तुम्हाला स्वयंपूर्ण, बलवान आणि सकारात्मक होण्याची प्रेरणाही देत असतात. परंतु तुमचं होतं काय की सातत्याने आणि आयत्या मिळालेल्या मदतीने तुम्ही तद्दन आळशी आयतोबा झालेले असतात. आपली औकात नसतानाही काही वेळा अनपेक्षितपणे मिळालेल्या मदतीने कृतज्ञतेसोबत तुमच्यात थोडा मंदपणा आणि आळशीपणा आलेला असतो....

एका certain point ला सद्गुरुही थकतात. कारण, तुम्ही कृतीशुन्य झालेलं त्यांना खपत नाही. आणि मदतीचा प्रवाह आटू लागतो. "आतातरी उठ आणि कामाला लाग" हा शेवटचा संदेश येतो. तोही इग्नोर करुन तुम्ही भक्ती, जपजाप्य आणि नामस्मरणाची वेळकाढू आणि पळवाटी ढोंगे सुरु केली की सद्गुरुंना क्षणभर बाजूला जायला सांगून नियती शनीमहाराजांच्या मदतीने ढुंगणावर इतकी सणसणीत लाथ घालते की पार्श्वभाग चोळायचीही फुरसत मिळत नाही आणि माणूस विचित्र भानावर येतो....

#गुरुंनाही_मर्यादा_असते
#कार्यप्रवृत्त_व्हा
#आळस_झटका
#आध्यात्म_ही_पळवाट_नाही

- सतीश गडकर

Monday 21 March 2022

ज्वाला माता

51 शक्तिपीठों में से एक ज्वालामुखी मंदिर काफी प्रसिद्ध है। इस मंदिर जोता वाली मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस स्थान पर माता सती की जीभ गिरी थी। यहां माता ज्वाला के रूप में विराजमान हैं और भगवान शिव यहां उन्मत भैरव के रूप में स्थित हैं। इस मदिर का चमत्कार यह है कि यहां कोई मूर्ति नहीं है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रहीं 9 ज्वालों की पूजा की जाती है

शक्तिपीठ मां ज्वाला देवी के बारे में मान्यता है कि माता सती की अधजली जिह्वा यहां पर गिरी

मंदिर में बिना तेल और बाती के नौ ज्वालाएं जल रही हैं, जो माता के 9 स्वरूपों का प्रतीक हैं। मंदिर एक सबसे बड़ी ज्वाला जो जल रही है, वह ज्वाला माता हैं और अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां मां अन्नपूर्णा, मां विध्यवासिनी, मां चण्डी देवी, मां महालक्ष्मी, मां हिंगलाज माता, देवी मां सरस्वती, मां अम्बिका देवी एवं मां अंजी देवी हैं

Friday 14 January 2022

युगाद्या शक्तिपीठ

 युगाद्या शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। 'देवीपुराण' में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। 


युगाद्या शक्तिपीठ बंगाल के पूर्वी रेलवे के वर्धमान जंक्शन से 39 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में तथा कटवा से 21 कि.मी दक्षिण-पश्चिम में महाकुमार-मंगलकोट थानांतर्गत 'क्षीरग्राम' में स्थित है- 'युगाद्या शक्तिपीठ'। इस शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी 'युगाद्या' तथा भैरव 'क्षीर कण्टक' हैं। तंत्र चूड़ामणि के अनुसार यहाँ माता सती के दाहिने चरण का अँगूठा गिरा था-

'भूतधात्रीमहामाया भैरव: क्षीरकंटक:। युगाद्यायां महादेवी दक्षिणागुंष्ठ: पदो मम।' 


यहाँ माता सती को "भूतधात्री" तथा भगवन शिव को "क्षीरकंटक" अर्थात "युगाध" कहा जाता है। इसे 'क्षीरग्राम शक्तिपीठ' भी कहा जाता है। इस मंदिर में एक यात्री निवास भी है तथा यहाँ वर्धमान से बस द्वारा भी पहुँचा जा सकता है। त्रेता युग में अहिरावण ने पाताल में जिस काली की उपासना की थी, वह युगाद्या ही थीं।


 कहा जाता है कि अहिरावण की कैद से छुड़ाकर राम-लक्ष्मण को पाताल से लेकर लौटते हुए हनुमान देवी को भी अपने साथ लाए तथा क्षीरग्राम में उन्हें स्थापित किया। क्षीरग्राम की भूतधात्री महामाया के साथ देवी युगाद्या की भद्रकाली मूर्ति एक हो गई और देवी का नाम 'योगाद्या' या 'युगाद्या' हो गया। बंगला के अनेक ग्रंथों के अलावा 'गंधर्वतंत्र', 'साधक चूड़ामणि', 'शिवचरित' तथा 'कृत्तिवासी रामायण' में इस देवी का वर्णन मिलता है।





Wednesday 12 January 2022

भगवान श्री राम के मृत्यु का कारण

भगवान श्री राम के मृत्यु वरण में सबसे बड़ी बाधा उनके प्रिय भक्त हनुमान जी थे.... क्योंकि हनुमान जी के होते हुए यम की इतनी हिम्मत नहीं थी की वो प्रभु श्री राम के पास पहुँच सके इसलिए स्वयं श्रीराम जी ने इसका हल निकाला.....

एक दिन, श्रीराम जान गए कि उनकी मृत्यु का समय हो गया था। *वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना पड़ता है। “यम को मुझ तक आने दो। मेरे लिए वैकुंठ, मेरे स्वर्गिक धाम जाने का समय आ गया है”, उन्होंने कहा.....* लेकिन मृत्यु के देवता यम अयोध्या में घुसने से डर रहे थे क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान जी से भय लग रहा था....

*यम के प्रवेश के लिए हनुमान को हटाना जरुरी था। इसलिए राम ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा। हनुमान जी ने स्वंय का स्वरुप छोटा करते हुए बिलकुल भंवरे जैसा आकार बना लिया और केवल उस अंगूठी को ढूढंने के लिए छेद में प्रवेश कर गए, वह छेद केवल छेद नहीं था बल्कि एक सुरंग का रास्ता था जो सांपों के नगर नाग लोक तक जाता था। हनुमान जी नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया......*
वासुकी... हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए जहां अंगूठियों का पहाड़ जैसा ढेर लगा हुआ था.... *“यहां आपको राम की अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा। हनुमान जी सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे क्योंकि ये तो भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन सौभाग्य से, जो पहली अंगूठी उन्होंने उठाई वो राम जी की अंगूठी थी। आश्चर्यजनक रुप से, दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम की ही अंगूठी थी। वास्तव में वो सारी अंगूठी जो उस ढेर में थीं, सब एक ही जैसी थी। “इसका क्या मतलब है...?” वह सोच में पड़ गए। वासुकी जी मुस्कुराए और बाले, “जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं। दूसरे भाग या त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है और पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसलिए यह सैकड़ो हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं.... अंगूठियां गिरती रहीं और इनका ढेर बड़ा होता रहा। भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां काफी जगह है”.......*

हनुमान जी जान गए कि उनका नागलोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात, कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। *यह राम का उनको समझाने का मार्ग था कि मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकेगा....... 🚩 "राम मृत्यु को प्राप्त होंगे....." हमारा जीवन समाप्त होगा.. 🚩 लेकिन हमेशा की तरह, यह संसार चलता रहेगा और हम भी जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं और रामजी भी पुनः जन्म लेंगे और हम भी...........* 


जय जय श्री राम


मृत्यू

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किसी सदस्य ने हमे कहा कि मृत्यु क्या है कृपा इस पर लिखे तो हम प्रयास कर रहे कि मृत्यु को शब्द दे सके किन्तु हमारे विचार से मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक झूठ है ..जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। 

जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं और रूप की बदलाहट को तुम मृत्यु समझ लेते हो। तुम बच्चे थे, फिर तुम जवान हो गए। बच्चे का क्या हुआ? बच्चा मर गया? अब तो बच्चा कहीं दिखायी नहीं पड़ता।

जवान थे, अब बूढ़े हो गए। जवान का क्या हुआ? जवान मर गया?  जवान अब तो कहीं दिखायी नहीं पड़ता। सिर्फ रूप बदलते हैं.. बच्चा ही जवान हो गया; जवान ही बूढ़ा हो गया और कल जीवन ही मृत्यु हो जाएगा।

यह सिर्फ रूप की बदलाहट है। दिन में तुम जागे थे, रात सो जाओगे। दिन और रात एक ही चीज के रूपांतरण हैं। जो जागा था, वही सो गया। बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। 

जब तक बीज में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे; फिर जन्म होगा। और गर्भ में नहीं पड़ोगे, तो महाजन्म होगा, तो मोक्ष में विराजमान होते।

मरता कभी कुछ भी नहीं। विज्ञान भी इस बात से सहमत है। विज्ञान कहता है. किसी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान कहता है पदार्थ अविनाशी है। एक रेत के छोटे से कण को भी विज्ञान की सारी क्षमता के बावजूद हम नष्ट नहीं कर सकते।

पीस सकते हैं, नष्ट नहीं कर सकते। पीसने से तो रूप बदलेगा। रेत को पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। उसको और पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। हम उसका अणु विस्फोट भी कर ‘सकते हैं। 

लेकिन अणु (molecule)टूट जाएगा, तो परमाणु (Atom )होंगे। रेत और पतली हो गयी।BUNDLE OF Energy.. हम परमाणु को भी तोड़ सकते हैं, तो फिर इलेक्ट्रान, पाजिट्रान(पोजीटिव इलेक्ट्रोन),फोटॉन (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन)  रह जाएंगे। 

रेत और पतली हो गयी,मगर नष्ट कुछ नहीं हो रहा है; सिर्फ रूप बदल रहा है। परमाणु के केन्द्र में नाभिक (न्यूक्लिअस) होता है जिसके चारो ओर इलेक्ट्रॉन  (एक ऋणात्मक विद्युत आवेश,आकार बहुत छोटा तथा सबसे हल्का) चक्कर लगाते रहते हैं।

नाभिक--प्रोटॉन  (धनात्मक आवेश..  तथा इलेक्ट्रान के द्रव्यमान के 1,839 गुना ) एवं न्यूट्रानों (अनावेशित,न्यूट्रल जो इलेक्ट्रान के द्रव्यमान के 1,839 गुना है) से बना होता है।

एक परमाणु के नाभिक/न्यूक्लिअस में... इलेक्ट्रॉन्स प्रोटॉन की ओर आकर्षित होता है जबकि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन  एक दूसरे को आकर्षित करते है।

न्यूक्लिअसरूपी  परंब्रह्म  के चारो ओर इलेक्ट्रान क्लाउड या नेगेटिव एनर्जी चक्कर लगाती  रहती हैं।न्यूक्लिअसरूपी परंब्रह्म प्रोटॉनरूपी पॉजिटिव एनर्जी एवं न्यूट्रानरूपी  न्यूट्रल एनर्जी-साम्यावस्था से अधिक नज़दीक हैं।

नेगेटिव एनर्जी- पॉजिटिव एनर्जी की ओर आकर्षित होती  है ;जबकि पॉजिटिव एनर्जी एवं  न्यूट्रल एनर्जी-एक दूसरे को आकर्षित करते है।

विज्ञान ने पदार्थ की खोज की, इसलिए पदार्थ के अविनाशत्व को जान लिया। धर्म कहता है – चेतना अविनाशी है, क्योंकि धर्म ने चेतना की खोज की और चेतना के अविनाशत्व को जान लिया।

विज्ञान और धर्म दोनों राजी हैं कि जो है, वह अविनाशी है। मृत्यु है ही नहीं। तुम सदा थे; ओर सदा रहोगे और अगर तुम जाग जाओ, अगर तुम चैतन्य से भर जाओ, तो तुम्हें सब दिखायी पड़ जाएगा कि , कब क्या थे।

गौतम बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों की कितनी ही कथाएं कही हैं । कभी जानवर थे; कभी पौधा , कभी पशु ;कभी पक्षी, कभी राजा, कभी भिखारी, कभी स्त्री, तो कभी पुरुष। जो जाग जाता है, उसे सारा स्मरण आ जाता है।

मृत्यु तो होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ पर्दे का गिरना है। तुम नाटक देखने गए और पर्दा गिरा। अब फिर तैयारी कर रहे होंगे। मेकअप करेंगे और फिर पर्दा उठेगा। शायद तुम पहचान भी न पाओ कि जो सज्जन थोड़ी देर पहले कुछ और थे, अब वे कुछ और हो गए हैं! 

बस,यही हो रहा है। इसलिए संसार को नाटक मंच कहा गया है। यहां रूप बदलते रहते हैं। फिर लौट आते हैं, बार -बार लौट आते हैं। मृत्यु एक भ्रान्ति है , धोखा है। पहले भी सब ऐसा ही था। फिर और फिर ऐसा ही होगा। 

यह दुनिया मिट जाएगी, तो दूसरी दुनिया पैदा होगी। यह पृथ्वी उजड़ जाएगी, तो दूसरी पृथ्वी बस जाएगी। तुम इस देह को छोड़ोगे, तो दूसरी देह में प्रविष्ट हो जाओगे। तुम इस चित्तदशा को छोड़ोगे, तो नयी चित्तदशा मिलती।

तुम अज्ञान छोड़ोगे, तो ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाओगे; मगर मिटेगा कुछ भी नहीं। मिटना होता ही नहीं। सब यहां अविनाशी है। अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। मृत्यु है ही नहीं और जो है ही नहीं, उसकी व्याख्या कैसे करें?

उदाहरण के लिए ये ऐसा ही है, जैसे तुमने रास्ते पर पड़ी रस्सी में भय के कारण सांप देखा। भागे, घबडाए, फिर कोई मिल गया, जो जानता है कि रस्सी है। उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और कहा मत घबड़ाओ, रस्सी है। तुम्हें ले गया; पास जाकर दिखा दी कि रस्सी है।

फिर क्या तुम उससे पूछोगे सांप का क्या हुआ? बात खतम हो गयी,क्योकि सांप था ही नहीं। रस्सी के रूप -रंग ने , सांझ के धुंधलके ने , तुम्हारे भीतर के भय ने तुम्हें भांति दे दी।

सारी भ्रांतियों ने मिलकर एक सांप निर्मित कर दिया। वह तुम्हारा सपना था। मृत्यु तुम्हारा सपना है। कभी घटा नहीं। घटता मालूम होता है। और इसलिए भ्रांति मजबूत बनी रहती है कि जो आदमी मरता है, वह तो विदा हो जाता है। वही जानता है कि' क्या है मृत्यु' जो मरता है।

तुम तो मर नहीं रहे ;केवल बाहर से खड़े देख रहे हो।एक डाक्टर कह सकता है कि मैंने सैकड़ों मृत्युएं देखी हैं। लेकिन ये गलत है। उसने सैकडों मरते हुए लोग देखे होंगे, लेकिन मरते हुए लोग देखने से क्या होता है।

तुम बाहर यही देख सकते हो कि सांस धीमी होती जाती है;  धड़कन डूबती जाती है। मगर यह मृत्यु थोड़े ही है। यह आदमी अब ठंडा हो गया, यही देखोगे। मगर इसके भीतर जो चेतना थी, कहां गयी?

उसने कहां पंख फैलाए? वह किस आकाश में उड गयी? वह किस द्वार से प्रविष्ट हो गयी? किस गर्भ में बैठ गयी? वह कहां गयी? क्या हुआ? उसका तो तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।

यह तो वही आदमी कह सकता है और मुर्दे कभी लौटते नहीं। जो मर गया, वह लौटता नहीं। और जो लौट आते हैं, उनकी तुम मानते नहीं। जैसे बुद्ध यही कह रहे हैं कि मैंने ध्यान में वह सारा देख लिया।

जो मौत में देखा जाता है। इसलिए तो ज्ञानी की कब्र को हम समाधि कहते हैं, क्योंकि वह समाधि को जानकर मरा। उसने ध्यान की परम दशा जानी। इसलिए हम संन्यासी को जलाते नहीं बल्कि गाड़ते हैं।

शायद तुमने सोचा ही न हो कि  'क्यों'? क्योंकि गृहस्थ को अभी फिर पैदा होना है। उसकी देह जल जाए, यह अच्छा हैं। क्योंकि देह के जलते ही उसकी आत्मा की आसक्ति इस देह में थी, वह मुक्त हो जाती है। 

जब जल ही गयी; खतम ही हो गयी, राख हो गयी—अब इसमें मोह रखने का क्या प्रयोजन है? वह उड़ जाता है। वह नए गर्भ में प्रवेश करने की तैयारी करने लगता है। पुराना घर जल गया, तो नया घर खोजता है।

संन्यासी तो जानकर ही मरा है। अब उसे कोई नया घर स्वीकार नहीं करना है। पुराने घर से मोह तो उसने मरने के पहले ही छोड़ दिया। अब जले-जलाए, मरे -मराए को जलाने से क्या सार।

इस आधार पर संन्यासी को हम जलाते नहीं, गाड़ते हैं। और उसकी कब्र को समाधि कहते हैं। इसीलिए कि वह ध्यान की परम अवस्था समाधि को पाकर गया है। वह मृत्यु को जीते जी जानकर गया है कि मृत्यु झूठ है।

जिस दिन मृत्यु झूठ हो जाती है, उसी दिन जीवन भी झूठ हो जाता है। क्योंकि वह मृत्यु और जीवन हमारे दोनों एक ही भांति के दो हिस्से हैं। जिस दिन मृत्यु झूठ हो गयी, उस दिन जीवन भी झूठ हो गया। 

उस दिन कुछ प्रगट होता है, जो मृत्यु और जीवन दोनों से अतीत है। उस अतीत का नाम ही परमात्मा है; जो न कभी पैदा होता, न कभी मरता, जो सदा है।मृत्यु कीमती चीज है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो संन्यास न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो धर्म न होता।

मृत्यु अपरिहार्य है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो परमात्मा का कोई स्मरण न होता, प्रार्थना न होती, पूजा न होती, आराधना न होती ; यह पृथ्वी दिव्य पुरुषों को तो जन्म ही न दे पाती, मनुष्यों को भी जन्म न दे पाती।

यह पृथ्वी पशुओं से भरी होती। मृत्यु ने ही झकझोरा। मृत्यु की बड़ी कृपा है, उसका बड़ा अनुग्रह है। बुद्ध को भी स्मरण आया था ..मृत्यु को ही देख कर। बुद्ध ने उसी रात घर छोड़ दिया,और क्रांति घट गई। 

जब मृत्यु होने ही वाली है, तो हो ही गई; तो जितने दिन हाथ में है.. इतने दिनों में हम उसको खोज लें जो अमृत है। दोस्तो विषय की भूमिका में ही लेख बन गया विषय का विस्तार नही कहा तो न्याय नही होगा।

तो हम इसको अगली कुछ पोस्टो में पूर्ण करते। क्रमशः

by Brijmohan sarda. 


कैंसर के कारक ग्रह - अनिल सुधांशु

कैंसर के कारक ग्रह !

 मानव शरीर में कैंसर की उत्पत्ति में कोशिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कोशिकाओं में श्वेत एवं लाल रक्त कण होते हैं। ज्योतिष में श्वेत रक्त कण का कारक कर्क राशि का स्वामी चंद्र तथा लाल रक्त कण का सूचक मंगल है। कर्क राशि का अंग्रेजी नाम कैंसर (cancer)  है तथा इसका चिह्न केकड़ा है। केकड़े की प्रकृति होती है कि, वह जिस स्थान को अपने पंजों से जकड़ लेता है, उसे अपने साथ लेकर ही छोड़ता है।

 इसलिए ज्योतिष में कैंसर जैसे भयानक रोग के लिए कर्क राशि के स्वामी चंद्र का विशेष महत्व है। इसी प्रकार रक्त में लाल कण की कमी होने पर प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है।

जन्म कुंडली में पाप ग्रहों का प्रभाव:---

जन्म कुंडली में जब एक भाव पर ही अधिकतर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, विशेषकर शनि, राहु व मंगल से तब उस संबंधित भाव वाले अंग में कैंसर रोग के होने की संभावना अधिक होती है। कैंसर रोग जिस दशा में होता है, उसके बाद आने वाली दशाओं का आंकलन किया जाना चाहिए। यदि यह दशाएँ शुभ ग्रहों की है या अनुकूल ग्रह की है या योगकारक ग्रह की दशा आती है, तब रोग का पता आरंभ में ही चल जाता है और उपचार भी हो जाता है !

- राहु को विष माना गया है, यदि राहु का किसी भाव या भावेश से संबंध हो एवं इसका लग्न या रोग भाव से भी सम्बन्ध हो तो शरीर में विष की मात्रा बढ़ जाती है।

- षष्टेश लग्न, अष्टम या दशम भाव मे स्थित होकर राहु से दृष्ट हो तो कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

- बारहवें भाव में शनि-मंगल या शनि-राहु, शनि-केतु की युति हो तो जातक को कैंसर रोग देती है।

- राहु की त्रिक भाव या त्रिकेश पर दृष्टि हो भी कैंसर रोग की संभावना बढ़ाती है।

- षष्टम भाव तथा षष्ठेश पीडि़त या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थित हो।

- बुध ग्रह त्वचा का कारक है अत: बुध अगर क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो तथा राहु से दृष्ट हो तो जातक को कैंसर रोग होता है।

- बुध ग्रह की पीडि़त या हीनबली या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थिति भी कैंसर को जन्म देती है। बृहत पाराशरहोरा शास्त्र के अनुसार षष्ठ पर क्रूर ग्रह का प्रभाव स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है।

- सभी लग्नों में कर्क लग्न के लोगों को सबसे ज्यादा खतरा इस रोग का होता है।

- कर्क लग्न में बृहस्पति कैंसर का मुख्य कारक है, यदि बृहस्पति की युति मंगल और शनि के साथ छठे, आठवे, बारहवें या दूसरे भाव के स्वामियों के साथ हो जाये व्यक्ति की मृत्यु कैंसर के कारण होना लगभग तय है।

- शनि या मंगल किसी भी कुंडली में यदि छठे या आठवे स्थान में राहू या केतु के साथ हों तो कैंसर होने की प्रबल सम्भावना होती है !

 विशेष आग्रह:--किस ग्रह के कारण कैंसर हुआ है, इसके लिए अपनी कुंडली की विधिवत विशेषण कराने के बाद उपरोक्त ग्रह का उपाय करें, निश्चित रूप से आपको लाभ होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि ऐसी जान लेवा बीमारी, हमारे पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों का परिणाम होता है !

अनिल सुधांशु 

श्री गोरक्षनाथ जी की आरती



ऊँ जय गोरक्ष देवा, श्री स्वामी जय गोरक्ष देवा।सुर-नर मुनि जन ध्यावें, सन्त करत सेवा॥
ऊँ गुरुजी योगयुक्ति कर जानत, मानत ब्रह्म ज्ञानी।सिद्ध शिरोमणि राजत, गोरक्ष गुणखानी ॥1॥ 
जय ऊँ गुरुजी ज्ञान ध्यान के धारी, सब के हितका...री।गो इन्द्रिन के स्वामी, राखत सुध सारी ॥2॥ 
जय ऊँ गुरुजी रमते राम सकल, युग मांही छाया है नाहीं।घट-घट गोरक्ष व्यापक, सो लख घट माहीं ॥3॥ 
जय ऊँ गुरुजी भष्मी लसत शरीरा,रजनी है संगी।योग विचारक जानत, योगी बहु रंगी ॥4॥
 जय ऊँ गुरुजी कण्ठ विराजत सींगी-सेली, जत मत सुख मेली।भगवाँ कन्था सोहत, ज्ञान रतन थैली ॥5॥
 जय ऊँ गुरुजी कानन कुण्डल राजत, साजत रविचन्दा।बाजत अनहद बाजा, भागत दुख-द्वन्द्वा ॥6॥ 
जय ऊँ गुरुजी निद्रा मारो,काल संहारो, संकट के बैरी।करो कृपा सन्तन पर, शरणागत थारी ॥7॥ 
जय ऊँ गुरुजी ऐसी गोरक्ष आरती, निशदिन जो गावै।वरणै राजा 'रामचन्द्र योगी', सुख सम्पत्ति पावै ॥8॥

गगन मंडल पर उँधा कुआ जहा अमृत का बासा।सुगरा होए तो भर भर पीवे नुगरा जाए प्यासा - नरेश नाथ

गगन मंडल पर उँधा कुआ जहा अमृत का बासा।
सुगरा होए तो भर भर पीवे नुगरा जाए प्यासा।।

मतलब की गगन मंडल पे उलटा कुआ अब ये कुआ उलटा हैं तो इस उलटे कुए का अमृत तो वही पी सकता हैं जो समर्थ रखता हो यह सत्य हैं
 की खेचरी मुद्रा के दुवारा इस अमृत को पान किया जाता हैं पर इस मुद्रा के पहले कई काम होते हैं 
की खेचरी मुद्रा !चाचरी निधि ! अगोचरी बुद्धि ज्ञान का बटुवा निरत की सैली और संतोष सूत वीवेक धागा ।गोरक्षनाथ जी ने शुक्ष्म वेद का निर्माण की ये चार वेद आप जानते हो पर सूक्ष्म वेद पाचवा वेद हैं इसी वेद में वो अमर कथा हैं जो शिव ने शक्ति सुनाई ।। 
इस वेद के माध्यम से चौरासी सिद्धो का विस्तार हुआ और अमर तत्व को पाया ।।
सब बाते शब्दों की महिमा हैं हम कहना तो नहीं चाहते थे पर एक सवाल छोड़ता हु की ये सबद कहा निकलता हैं जिसे आप बोलते हो ।।
 सिर्फ ॐ जपने से कुछ नहीं होता आपको शांति मिल जाएगी पर उस वचन का क्या जो गर्भ में उस परमात्मा को दिया । हम को पता हैं की आपको यह बाते समझ नहीं आएँगी क्युकी एक तो वाणी और एक नाथ की व्याख्या सब उलट पलट पर यह बाते परस्पर उस वाणी से जुडी हैं जिसे आपने लिखा हैं क्युकी सबद का ताला लगा हैं जैसा आप इसे पड़ कर सोचेंगे वेसा ही भरथरी बाबा ने गोरक्षनाथ जी शब्द सुनने के बाद सोचा था क्या ये पागल है बाबा। क्युकी

सबद ही कुची सबद ही ताला सबदे सबद घट में हो उजियाला। 
काटे बिन काटा नहीं निकले कुंजी बीन खुले नहीं ताला।।।

वेद पुराण मजल नहीं पुग्या नहीं पुग्या पंडित काजी ।।
साचा संत हरिजन पुग्या अमर नाम रोप बाजी। 

***************नरेश नाथ**************

Tuesday 11 January 2022

16 सिद्धियाँ


1. वाक् सिद्धि : - 👇

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-👇

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

3. प्रज्ञा सिद्धि : -👇

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.

 4. दूरश्रवण सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.

 5. जलगमन सिद्धि:-👇

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.

 6. वायुगमन सिद्धि :-👇

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.

 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-👇

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.

 8. विषोका सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.

 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-👇

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.

10. कायाकल्प सिद्धि:-👇

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.

11. सम्मोहन सिद्धि :-👇

 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.

 12. गुरुत्व सिद्धि:-👇

 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.

 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-👇

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.

 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-👇

  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.

 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-👇

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.

16. अनुर्मि सिद्धि:-👇

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.

योग

आज का मनुष्य मानसिक तनावों से जर्जर होता हुआ  संतोष और आनन्द  की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, शांति  का अहसास महसूस करने के लिए उतावला हो रहा है, वह अपनी जीवन बगिया के आसपास से स्वार्थ, क्रोध, कटुता, इर्षा, घृणा के काँटों को दूर कर देना चाहता है, उसे अपने इस जीवन रूपी उद्यान में सुगंध लानी है।

उसे उस मार्ग की तलाश है जो उसे शरीर से दृढ़ और बलवान बनाये, बुध्दि से प्रखर और पुरुषार्थी बनाये, भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति करते हुए उसे आत्मवान बनाये, निश्चित रूप से ऐसा मार्ग है, इसे भारत के एक महर्षि पतंजली ने योगदर्शन का नाम दिया है, योगदर्शन एक मानवतावादी सार्वभौम संपूर्ण जीवन दर्शन है, भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है।

इस भौतिकवादी , क्लेशमय जीवन में योग की सबसे अधिक आवश्कता है, थोड़ा-सा नियमित आसन और प्राणायाम हमें निरोगी तथा स्वस्थ रख सकता है, यम-नियमों के पालन से हमारा जीवन अनुशासन से प्रेरित हो चरित्र में अकल्पनीय परिवर्तन आ सकता है, धारणा एवं ध्यान के अभ्यास से वह न केवल तनावरहित होगा वरन कार्य-कुशलता में पारंगत भी हो पायेगा।

हम अपने उत्थान के साथ-साथ समाज तथा राष्ट्र के उत्थान में भी सहभागी हो सकेंगे, सज्जनों! बाबा रामदेवजी का कहना कितना सही है, ”जो रोज करेगा योग, उसे नहीं होगा कोई रोग“ योग न केवल शारीरिक क्रियाओं  को  सही करता है, वरन् आपके आध्यात्मिक विकास में भी सहायक होता है, जिसके चलते हम किसी भी बात पर अपना ध्यान केन्द्रित करना सिख जाते हैं, इस कारण हमारी साँस लेने की प्रक्रिया भी सही हो जाती है।

हमारे जीवन में काफ़ी स्थिरता, ठहराव तथा समज-शक्ति का अनायश ही उद्भव होता दिखाई देता है, हमारा शरीर दिन-प्रतिदिन सुडौल और स्फूर्तिदायी बनता जाता है, आलस हम से कोसों दूर भाग जाता है, एक नई उमंग, नया जोश हमारे अंदर उभरने लगता है, ये ही वजह रही होगी इस महामुल्य वाक्यों की जो स्वामी विवेकानंदजी ने कहे थे।

स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था- मानव जाती को विनाश से बचाने के लिए और विश्वास की और अग्रसर करने के लिये यह अत्यावश्यक है कि प्राचीन संस्कृति भारत में फिर से स्थापित की जाये जो अनायास ही फिर सारी दुनिया में प्रचलित होगी, यह उपनिषद और वेदांत पर आधारित संस्कृति ही आंतर-राष्ट्रिय स्तर पर एक मजबूत नींव बनकर उभरेगी 

आज हम देख भी रहे हैं कि दूरदर्शन एवं शिबिर-केन्द्रों के माध्यमों से सारी दुनिया योग की दिवानी बनी दिखाई दे रही है, योग ही तो है जिसने हमे भीतरी और बाहरी प्रकृति को वश में करना सिखाया, आज हम जान गये हैं कि खुद हृष्ट-पृष्ट रहना है तथा दूसरों को भी  हृष्ट-पृष्ट बने रहना सिखाना है, यों देखा जाये तो हमारी भगवत-गीता भी तो अपने आप में योग की एक परम पाठ्य पुस्तक ही तो है।

मुल्त: भगवान् श्री कृष्णा द्वारा अर्जुन को सांख्ययोग  तथा कर्मयोग के बारे में ज्ञान देना क्या योग नहीं है? भगवत-गीता का हर आध्याय कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, त्यागयोग, ध्यानयोग का ही तो परिचायक रहा है, इन्हीं सिध्धान्तिक योगों  के माध्यम से ही तो अर्जुन अपने  शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, भावनात्मक एवम् आध्यात्मिक पहलुओं को पहचान पाये थे, सफलता और विफलता का पथ देख पाये थे, विषम मन: स्तिथि में अपना संतुलन बना पाये थे।

सुबह सूर्यनमस्कार करने का जो हमारे शास्त्रों में कहा गया है, वह सभी आसनों का पर्याय ही तो है, हर धर्म पुस्तक में मन की शांति के लिए योग का कहीं न कहीं उपयोग देखा ही जाता है, आधुनिक युग में योग का महत्व और भी बढ़ गया है, क्योंकि?  हमारी व्यस्तता और भागदौड़ भरी ज़िदगी ने हमे रोगों से घेर दिया है, आज हम देख रहें हैं कि मधुमेह, रक्तचाप, सिर-दर्द, छोटी उम्र में बालों का सफेद होना जैसे आम रोग देखे जा सकते हैं।

अत्यधिक तनाव, प्रदुषण, कमाने की चिंता इत्यादि ने इन्सान को रोगग्रस्त बना दिया है, आज युवाओं में कम महेनत में ज्यादा पाने की होड़ ने उन्हें अविवेकी बना दिया है और इसी के चलते नौकरी प्रतिस्पर्धा का दूषण बन कर रह गई है जो बेवजह ही युवाओं में एक कुंठा को जन्म दे रही है, उन्हें कम उम्र में ही तनावग्रस्त कर रही है, हर व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है, ऊँचाइयों को छुना चाहता है, वैभवी बनना चाहता है 

ये सब पाने के लिए उसे आंतरिक उर्जा चाहिए और इसका एक ही सशक्त मार्ग है योग, योग व्यायम नहीं है, योग सम्पूर्ण विज्ञान है, हमारे  पूर्वजों ने शरीर को एक मन्दिर मानकर उसकी नियमित पूजा कैसे की जाये उसका पूरा-पूरा विधान बताया है, योग का अर्थ ही जोड़ना होता है, हमारा शरीर पाँच इन्द्रियों के समन्वय से ही कार्य करता है, कान, त्वचा, आँख, जीभ व नाक क्रमश: एक दूजे के पूरक हैं।

अगर नाक द्वारा शुद्ध हवा को सही तरीके से ली जाये तो शरीर की और सारी इन्द्रियां जुड़ कर अपना-अपना कार्य व्यवस्थित करने लगती है, शरीर को पूर्ण मात्र में उर्जा प्रदान करती है; कितना सरल उपाय है, ये जो साँस की रिधम है, उसी को “प्राणायाम” कहते हैं, प्राणायाम योग की एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसको आपना कर हम बिना पैसे खर्च किये अपने आप को निरोगी रख सकते हैं।

"हिंग लगे न फटकरी, रंग चढ़े चौखा" बस अपने आप को इसके लिए तैयार करने भर की जरूरत है, ये नियम आप को रोगों से तो बचायेगा ही साथ ही आपके आत्म-विश्वास को भी बढ़ायेगा, भाई-बहनों, आखिर में मैं यह कहना चाहूंगा कि योग एक ऐसी अमूल्य औषधि है जो बिना मूल्य आप को स्वस्थता प्रदान कर सकती है, आप को शक्तिवर्धक बना सकती है, आप का आत्मविश्वास बढ़ा सकती है।

प्रात: जल्दी उठें और  योग करें, योग के महत्व को समझे, और जीवन में उसे अपनायें, योग से आपको कभी डाॅक्टर के पास नहीं जाना पड़ेगा, योग और प्राणायाम करने से आपको कभी दवाई नहीं खानी पड़ेगी, इसलिये प्रतिदिन प्रात: एक घंटा तक नियमित योग करों और फिर पूरे दिन कर्म योग करों, आज रविवार के पावन दिवस की पावन सुप्रभात आप सभी को मंगलमय् हों।

योग है जीवन की धारा, जिसने जाना, उसने माना, 
सबका योग ने जीवन तारा, रोगों से हों मुक्त सभी,
ये बिनती मेरी आपसे अभी, करो योग रहो निरोग!


चेतना की सात अवस्थाएँ


1. जागृति ---- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता। यह एक प्रकार का स्वप्न-लोक ही है। जब हम अतीत की किसी यद् में खोए हुए रहते हैं, तो हम स्मृति-लोक में होते हैं। यह भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है।
तो, वर्तमान में रहना ही, ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
2. स्वप्न------ स्वप्न की चेतना एक घाल-मेली चेतना है।
जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था, थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से। अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है।
3. सुषुप्ति----- सुषुप्ति की चेतना निष्क्रिय अवस्था है
चेतना की यह अवस्था हमारी इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। इस अवस्था में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को रोक कर विश्राम में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना।
4. तुरीय----- तुरीय का अर्थ होता है "चौथी"।
चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। इसका कोई गुण नहीं होने के कारण इसका कोई नाम नहीं है। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसकी संख्या से संबोधित कर लेते हैं। नाम होगा, तो गुण होगा नाम होगा तो रूप भी होगा। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है न ही कोई रूप।यह निर्गुण है, निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक यात्रा।
5. तुरीयातीत--------चेतना की पाँचवी अवस्था : तुरीय के बाद वाली
यह अवस्था जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म इसी अवस्था में संभव हो पाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था "योगस्थः कुरु कर्मणि" योग में स्थित हो कर कर्म करो! इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों? अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि "कर्म तो होगा परन्तु संस्कार नहीं बनेगा।" इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए न जीवन रहते जीवन-मुक्त। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।
6. भगवत चेतना------- बस मैं और तुम वाली चेतना।
चेतना की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है। भक्त को सारा संसार भगवन-मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने कहा था "जित देखौं तित श्याम-मई है"। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।
7. ब्राह्मी-चेतना------- एकत्व की चेतना
चेतना की इस अवस्था में भक्त और भगवन का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का लोप हो जाता है। अवस्था में साधक कहता है "अहम् ब्रह्मास्मि" मैं ही ब्रह्म हूँ।

अन्नपूर्णेचे महत्त्व

अन्नपूर्णेचे महत्त्व.


 अन्नपूर्णा या देवतेला एक अनन्यसाधारण असे महत्त्व आहे. विशेषतः मी दत्तसंप्रदायात असल्यामुळे जेव्हा श्रीदत्ताला नैवेद्य दाखवला जातो ,त्यानंतर लगेच अन्नपूर्णेलाही दाखवला जातो. मला हे नेहमी कोडं पडायचे की अन्नपूर्णेला एवढे महत्त्व का दिले जाते.शेवटी मी अन्नपूर्णे संबंधी जेवढी माहिती मिळेल ती सर्व मिळवण्याचा प्रयत्न केला. यासंबंधी शंकर पार्वतीची कथा प्रसिद्ध आहे. अन्नाचे एवढे महत्त्व श्री शंकराला ही मान्य नव्हते. दोघांचा वाद झाला आणि पार्वती रुसून निघून गेली. पार्वती म्हणजे प्रत्यक्ष अन्नपुर्णाच. तीच निघून गेल्यामुळे जगात सर्वत्र हाहा:कार माजला. अन्न नसल्यामुळे लोकांचे हाल सुरू झाले शेवटी पार्वतीलाच दया आली आणि ती अन्नपूर्णेच्या स्वरूपात काशीला अवतीर्ण झाली. तिने अन्नदान सुरू केले. भगवान श्रीशंकरालाही मधली सगळी परिस्थिती अनुभवाला आल्यामुळे अन्नाचे महत्त्व समजले आणि ते स्वतः कटोरा घेऊन पार्वतीकडे भिक्षा मागायला आले. अन्नपूर्णेचे पहिले मंदिर त्यामुळेच काशीला आहे.

               जीवनात अन्नाला अनन्यसाधारण महत्त्व आहे. समस्त प्राणीमात्र अन्नाशिवाय जगू शकत नाहीत. अन्न शरीराला शक्ती पुरवते आणि जीवनाची नवी उमेद सतत देत राहते. अन्न खाल्ले की शरीराला एक प्रकारचे समाधान मिळते .म्हणूनच अन्नदानाला अनन्यसाधारण महत्त्व दिले गेले आहे. ते अन्न सुग्रास असले पाहिजे. अन्न  बनवणाऱ्याची मनस्थिती समाधानी असली पाहिजे. त्यांनी ते अन्न समाधानानी बनवले असले पाहिजे. तेच पदार्थ घेऊन वेगवेगळ्या लोकांनी बनवलेल्या अन्नाची चव वेगवेगळी असते. याचे कारणच हे की अन्न बनवणाऱ्याच्या वासना आणि मनस्थिती त्या अन्नात उतरत असते. म्हणून घरच्या अन्नपूर्णेला नेहमी समाधानात ठेवले गेले पाहिजे. तिने शुचिर्भूत होऊन अन्न शिजवले पाहिजे.आपल्याकडे मुलीला सासरी जाताना अन्नपूर्णेची मूर्ती त्यासाठीच दिली जाते. तिने अन्नपूर्णेची सेवा , उपासना करून, उत्तम अन्न कुटुंबियांना खायला घालून कुटुंब सुखी करावे अशी अपेक्षा त्यामागे असते.
               मध्यंतरीच्या काळामध्ये मी मुद्दाम अन्नपूर्णेची उपासना केली आणि मग लक्षात आले की नुसती उपासना उपयोगी नाही .तिची प्रत्यक्ष सेवा केली पाहिजे. म्हणून मी स्वतः वेगवेगळे पदार्थ बनवण्यास सुरुवात केली आणि कोणताही पूर्वानुभव नसताना सुद्धा ह्या सर्व पाककृती अतिशय छान सराईतासारख्या केल्या गेल्या.जणू अन्नपूर्णादेवीच माझ्या हातातून काम करत होती.
            
               आपल्या अनेक वासना या अन्नाद्वारे पूर्ण होत असतात .मी पुष्कळ संन्याशीहि असे पाहिले आहेत की ज्यांच्या वासना अन्नात अडकून बसलेल्या असतात. खाण्याच्या अनेक इच्छा अपूर्ण असतात. शरीर आहे तिथे वासना असणारच. त्या पूर्ण झाल्याशिवाय संपत नाहीत. मित्रमंडळ जमा करून चिवड्याचा ढीगच्या ढीग फस्त करताना कसा आनंद मिळतो हे अनेकांनी अनुभवले असेल. शेवटी जीवन हे आनंद निर्मिती साठीच आहे .छोट्या छोट्या गोष्टीत सुद्धा खूप आनंद भरला आहे, परंतु आपल्याला त्याची कल्पनाच नसल्यामुळे तो आनंद आपण घेत नाही.
               अन्नामुळे शरीरात चैतन्य उत्पन्न होते .अगदी शरीर सोडल्यानंतर सुद्धा या चैतन्याची आवश्यकता लिंग देहाला असते. उत्तम अन्न हे शरीराला समाधान प्राप्त करून देते. शुचिर्भूत होऊन आनंदी वृत्तीने स्वयंपाक करण्याची आवश्यकता आहे आणि ते वातावरण घरातल्या सर्व लोकांनी निर्माण करून द्यावे. त्या अन्नात प्रेम असते. म्हणूनच आईच्या हातचे अन्न आपल्याला सगळ्यात गोड वाटते. केलेला स्वयंपाक हा आपण प्रत्यक्ष परमेश्वरासाठी करतो ही भावना करून जर केला तर तो अतिशय उत्तम होतो.म्हणूनच नैवेद्याचे अन्न हे अतिशय चविष्ट असते .उत्तम संसार करून सर्व प्रकारच्या वासना भोगून पूर्ण केल्या पाहिजेत. तेव्हाच माणूस परमेश्वर चिंतनाकडे वळू शकतो. असमाधानी माणूस ध्यानधारणा करू शकत नाही. आपले सर्व ऋषी-मुनी हे विवाहित दाखवले आहेत आणि सर्व प्रकारचे भोग भोगून वासनाक्षय करूनच ते पूर्णत्वाला पोहोचले आहेत. 
म्हणूनच शंकराचार्य 
म्हणतात--
'अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राण वल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं
भिक्षांदैहि च पार्वती।।
 *सर्व अन्नपूर्णाना  समर्पित*  

              🙏🕉️🙏

Monday 10 January 2022

52 शक्तिपीठ



52 शक्तिपीठ

ये देश भर में स्थित देवी के वो मंदिर है जहाँ देवी के शरीर क़े अंग या आभूषण गीरे थे। सबसे ज्यादा शक्ति पीठ बंगाल में है। शक्तिपीठों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी आप हमारे पिछले लेख 51 शक्ति पीठ पर प्राप्त कर सकते है।

बंगाल के शक्तिपीठ
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1. काली मंदिर – कोलकाता
2. युगाद्या- वर्धमान (बर्दमान)
3. त्रिस्त्रोता- जलपाइगुड़ी
4. बहुला- केतुग्राम
5. वक्त्रेश्वर- दुब्राजपुर
6. नलहटी- नलहटी
7. नन्दीपुर- नन्दीपुर
8. अट्टहास- लाबपुर
9. किरीट- बड़नगर
10. विभाष- मिदनापुर

मध्यप्रदेश के शक्तिपीठ
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12. हरसिद्धि- उज्जैन
13. शारदा मंदिर- मेहर
14. ताराचंडी मंदिर- अमरकंटक

तमिलनाडु के शक्तिपीठ
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15. शुचि- कन्याकुमारी
16. रत्नावली- अज्ञात
17. भद्रकाली मंदिर- संगमस्थल
18. कामाक्षीदेवी- शिवकांची

बिहार के शक्तिपीठ
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19. मिथिला- भारत-नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट 
20. वैद्यनाथ- बी. देवघर
21. पटनेश्वरी देवी- पटना
22.सर्वानन्दकरी-मगध

उत्तरप्रदेश के शक्तिपीठ
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23. चामुण्डा माता- मथुरा
24. विशालाक्षी- मीरघाट
25. ललितादेवी मंदिर- प्रयाग

राजस्थान के शक्तिपीठ
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26. सावित्रीदेवी- पुष्कर
27. वैराट- जयपुर

गुजरात के शक्तिपीठ
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28. अम्बिक देवी मंदिर- गिरनार
28. भैरव पर्वत- गिरनार

आंध्रप्रदेश के शक्तिपीठ
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29. गोदावरीतट- गोदावरी स्टेशन
30. भ्रमराम्बादेवी- श्रीशैल

महाराष्ट्र के शक्तिपीठ
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31. करवीर- कोल्हापुर
32. भद्रकाली- नासिक

कश्मीर के शक्तिपीठ
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33. श्रीपर्वत- लद्दाख
34. पार्वतीपीठ- अमरनाथ गुफा

पंजाब के शक्तिपीठ
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35. विश्वमुखी मंदिर- जालंधर

उड़ीसा के शक्तिपीठ
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36. विरजादेवी- पुरी

हिमाचल प्रदेश के शक्तिपीठ
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37. ज्वालामुखी शक्तिपीठ- कांगड़ा

असम के शक्तिपीठ
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38. कामाख्यादेवी- गुवाहाटी

मेघालय के शक्तिपीठ
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39. जयंती- शिलांग

त्रिपुरा के शक्तिपीठ
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40. राजराजेश्वरी त्रिपुरासुंदरी- राधाकिशोरपुर

हरियाणा के शक्तिपीठ
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41. कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ- कुरुक्षेत्र

42. कालमाधव शक्तिपीठ- अज्ञात

नेपाल के शक्तिपीठ
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43. गण्डकी- गण्डकी

44. भगवती गुहेश्वरी- पशुपतिनाथ

पाकिस्तान के शक्तिपीठ
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45. हिंगलाजदेवी- हिंगलाज

श्रीलंका के शक्तिपीठ
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46. लंका शक्तिपीठ- त्रिंकोमाली

तिब्बत के शक्तिपीठ
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47. मानस शक्तिपीठ- मानसरोवर

बांगलादेश के शक्तिपीठ
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48. यशोर- जैशौर

49. भवानी मंदिर- चटगांव

50. करतोयातट- भवानीपुर

51. उग्रतारा देवी- बारीसाल

52 वीं पंचसागर शक्तिपीठ है। 
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श्राद्ध न करनेसे हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः आद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठा...