Monday 30 April 2018

Shiromani Mantra (शिरोमणी मंत्र)

शिरोमणी मंत्र



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साधना के क्षेत्र मे सफलता प्राप्ति के लिये शक्ति शाली  शिरोमणी मंत्र इस प्रकार है ....
साधना क्षेत्रामध्ये सफलता मिळवण्यासाठी शक्ती शाली शिरोमणी मंत्र  

मन्त्र
ओम नमो परब्रहम परमात्मने नम: उत्पत्तिस्थिति प्रलयंकराये
ब्रहम हरिहराये त्रिगुणात्मने सर्व कौतुकानी दर्शय दर्शय
दत्तात्रेयाय नम:
मनोकामना सिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा ! 

ये मन्त्र ब्रह्मा विष्णु शिव सहित परम गुरु दत्तात्रेय जी को समर्पित है .
दररोज 10 मिनिट मंत्र जप केल्यास सर्व मंत्र जागृत होतात. आणि सर्व कार्या मध्ये सिद्धी मिळते हा अत्यंत गोपनीय मंत्र आहे. तुम्ही रोज स्वतःला शक्तिशाली अनुभव कराल. तुम्हाला वाटेल तुम्ही सर्व काही करण्यास सक्षम आहात. प्रत्येक साधकाला याचे प्रभाव वेगवेगळे असू शकतात. परंतु हा सात्विक मंत्र असून कोणीहि मंत्र जप करू शकतो.    

इस के प्रतिदिन 10 मिनट के जाप मात्र से सारे मन्त्र जागृत होने लगते है।
और कार्यों मे तुरन्त सिद्धी मिलती है ये परम गोपनीय मन्त्र है। इसका प्रभाव बड़ा ही दिव्य है।
आप नित्य ही खुद को शक्तिशाली अनुभव करेंगे

आपको लगेगा की आप सब कुछ करने मे सक्षम है। इस मन्त्र के प्रभाव प्रत्येक साधक के लिये अलग अलग हो सकते है


ये परम सात्विक मन्त्र है इसका जाप कोई भी कर सकता है कोई भी विधान नहीं है .....


श्रीनाथजी  गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
    
किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए इस नंबर पर फ़ोन करें :    
शंकरनाथ - 9420675133


नंदेशनाथ - 8087899308

Sunday 29 April 2018

Mahalaxmi Sadhna (महालक्ष्मी दुर्लभ साधना)


महालक्ष्मी दुर्लभ साधना







हिन्दू मान्यतानुसार लक्ष्मी जी को धन और वैभव की देवी माना जाता है। पुराणों के अनुसार यह भगवान विष्णु की पत्नी हैं। दीपावली के शुभ अवसर पर इनकी विशेष पूजा की जाती है। माना जाता है कि स्वभाव से चंचल मानी जाने वाली लक्ष्मी जी की आराधना से मनुष्य के जीवन में धन और वैभव की कभी कमी नहीं रहती।

लक्ष्मी जी का स्वरूप 

पुराणों के अनुसार लक्ष्मी जी बेहद चंचल स्वभाव की हैं और एक ही स्थान पर अधिक समय तक नहीं रहती। यही वजह है कि अगर मनुष्य धन का आदर ना करें तो उसे निर्धन होते देरे नहीं लगती।

माता लक्ष्मी जी के चार हाथ हैं, जिनमें से दो हाथों में वे कमल का फूल धारण किए रहती हैं तथा दो अन्य हाथों में से एक हाथ में कलश तथा एक हाथ से धन वर्षा करती रहती हैं। यह कमल पर विराजमान रहती हैं। 


ओम ह्रां महालक्ष्मीयै नमः इस मंत्र से आसन की पूजा करे
     ओम ह्रां शिवमूर्तये शिवाय नमः मंत्र से नमस्कार करे
   
न्यास    :
 ओम श्रां हृदयाय नमः
ओम श्रीं शिरसे स्वाहा:   
ओम श्रुं शिखायै वषट 
ओम श्रूं कवचाय हूं 
ओम श्रों नेत्रत्रयाय वौषट 
ओम श्र: अस्त्राय नमः   

करन्यास:   
ओम श्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः 
ओम श्रीं तर्जनीभ्यां नमः 
ओम श्रुं  मध्यमाभ्यां नमः 
ओम श्रूं अनामिकाभ्यां नमः 
ओम श्रों कनिष्टकाभ्यां नमः 
ओम श्री: करतल करपुष्टभ्यां नम:    
साधना मंत्र:   
1. ओम श्रीं ह्रीं महालक्ष्मीयै नमः   
2. घं ढं भं हं   
3. ओम श्रीं महालक्ष्मीयै नमः   
4. ओम श्रीं ओम   

ये साधना शुक्रवार,पूर्णिमा, अष्टमी या शुभ दिन से शुरू कर सकते है। यह साधना लक्ष्मी प्राप्ति के लिये है। इसमें महालक्ष्मी गुटिका ,यंत्र या मूर्ति का उपयोग किया जा सकता है। ना मिलने पर सुपारी का उपयोग करे।
   
इसमे घी का दिया, पंच खाद्य , खीर, मिठाई और मीठा पान का भोग लगाए।
   
। यह साधना अत्यंत प्रभावशाली है । यह साधना श्रद्धा और विश्वास से लगातार करना अनिवार्य है। माता लक्ष्मी को प्राप्त इतना सहज और सरल नही है। अपितु लगन से यह साधना करे।   



श्रीनाथजी  गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
    
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Thursday 26 April 2018

Pashuptastra Sadhna (पशुपतास्त्र मंत्र साधना)


पशुपतास्त्र मंत्र साधना

पशुपतास्त्र मंत्र साधना एवं सिद्धि ब्रह्मांड में तीन अस्त्र सबसे बड़े हैं। पहला पशुपतास्त्र, दूसरा नारायणास्त्र एवं तीसरा ब्रह्मास्त्र। इन तीनों में से यदि कोई एक भी अस्त्र मनुष्य को सिद्ध हो जाए, तो उसके सभी कष्टों का शमन हो जाता है। उसके समस्त कष्ट समाप्त हो जाते हैं। परंतु इनकी सिद्धि प्राप्त करना सरल नहीं है। यदि आपमें कड़ी साधना करने का साहस एवं धैर्य नहीं है तो ये साधना आपके लिए नहीं है। किसी भी प्रकार की साधना करने हेतु मनुष्य के भीतर साहस एवं धैर्य दोनों की आवश्यकता होती है।

मंत्र - ऊँ श्लीं पशु हुं फट्।

विनियोग :- ऊँ अस्य मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छंदः, पशुपतास्त्ररूप पशुपति देवता, सर्वत्र यशोविजय लाभर्थे जपे विनियोगः।

षडंग्न्यास :- ऊँ हुं फट् ह्रदयाय नमः। श्लीं हुं फट् शिरसे स्वाहा। पं हुं फट् शिखायै वष्ट्। शुं हुं फट् कवचाय हुं। हुं हुं फट् नेत्रत्रयाय वौष्ट्। फट् हुं फट् अस्त्राय फट्।

ध्यान:- मध्याह्नार्कसमप्रभं शशिधरं भीमाट्टहासोज्जवलम् त्र्यक्षं पन्नगभूषणं शिखिशिखाश्मश्रु-स्फुरन्मूर्द्धजम्। हस्ताब्जैस्त्रिशिखं समुद्गरमसिं शक्तिदधानं विभुम् दंष्ट्रभीम चतुर्मुखं पशुपतिं दिव्यास्त्ररूपं स्मरेत्।।


सर्वप्रथम अपने गुरुदेव से इस मंत्र की दीक्षा प्राप्त करें। इस मंत्र का पुरश्चरण 6 लाख जप करने से होता है। उसका दशांश होम, उसका दशांश तर्पण, उसका दशांश मार्जन एवं उसका दशांश ब्राह्मण भोज होता है। इस मंत्र के साथ में पाशुपतास्त्र स्त्रोत का पाठ भी अवश्य करना चाहिए। इस पाशुपत मंत्र की एक बार आवृति करने से ही मनुष्य संपूर्ण विघ्नों का नाश कर सकता है। सौ आवृतियों से समस्त उत्पातों को नष्ट कर सकता है। इस मंत्र द्वारा घी और गुग्गल के होम से मनुष्य असाध्य कार्यों को भी सिद्ध कर सकता है। इस पाशुपतास्त्र मंत्र के पाठमात्र से समस्त क्लोशों की शांति हो जाती है। पशुपतास्त्र स्त्रोत का नियमित रूप से 21 दिन सुबह-शाम 21-21 पाठ करें। साथ ही निम्नलिखिल स्त्रोत का 108 बार जाप करें। सुबह अथवा शाम को काले तिल से इस मंत्र की 51 आहुतियां भी अवश्य करें।


।।पाशुपतास्त्र स्त्रोतम।।

मंत्रपाठ :- ऊँ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपञ्चनयनाय नानारूपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगरंक्ताय भिन्नाञ्जनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन-रताय सर्वसिद्धिप्रप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादय तस्मिन् सिद्धाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभंजनाय सूर्यसोमाग्निनेत्राय विष्णु-कवचाय खंगवज्रहस्ताय यमदंडवरुणपाशाय रुद्रशूलाय ज्वलज्जिह्वाय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय-कारिणे।

ऊँ कृष्णपिंगलाय फट्। हुंकारास्त्राय फट्। वज्रह-स्ताय फट्। शक्तये फट्। दंडाय फट्। यमाय फट्। खड्गाय फट्। नैर्ऋताय फट्। वरुणाय फट्। वज्राय फट्। ध्वजाय फट्। अंकुशाय फट्। गदायै फट्। कुबेराय फट्। त्रिशुलाय फट्। मुद्गराय फट्। चक्राय फट्। शिवास्त्राय फट्। पद्माय फट्। नागास्त्राय फट्। ईशानाय फट्। खेटकास्त्राय फट्। मुण्डाय फट्। मुंण्डास्त्राय फट्। कंकालास्त्राय फट्। पिच्छिकास्त्राय फट्। क्षुरिकास्त्राय फट्। ब्रह्मास्त्राय फट्। शक्त्यस्त्राय फट्। गणास्त्राय फट्। सिद्धास्त्राय फट्। पिलिपिच्छास्त्राय फट्। गंधर्वास्त्राय फट्। पूर्वास्त्राय फट्। दक्षिणास्त्राय फट्। वामास्त्राय फट्। पश्चिमास्त्राय फट्। मंत्रास्त्राय फट्। शाकिन्यास्त्राय फट्। योगिन्यस्त्राय फट्। दंडास्त्राय फट्। महादंडास्त्राय फट्। नमोअस्त्राय फट्। सद्योजातास्त्राय फट्। ह्रदयास्त्राय फट्। महास्त्राय फट्। गरुडास्त्राय फट्। राक्षसास्त्राय फट्। दानवास्त्राय फट्। अघोरास्त्राय फट्। क्षौ नरसिंहास्त्राय फट्। त्वष्ट्रस्त्राय फट्। पुरुषास्त्राय फट्। सद्योजातास्त्राय फट्। सर्वास्त्राय फट्। नः फट्। वः फट्। पः फट्। फः फट्। मः फट्। श्रीः फट्। पेः फट्। भुः फट्। भुवः फट्। स्वः फट्। महः फट्। जनः फट्। तपः फट्। सत्यं फट्। सर्वलोक फट्। सर्वपाताल फट्। सर्वतत्व फट्। सर्वप्राण फट्। सर्वनाड़ी फट्। सर्वकारण फट्। सर्वदेव फट्। ह्रीं फट्। श्रीं फट्। डूं फट्। स्भुं फट्। स्वां फट्। लां फट्। वैराग्य फट्। मायास्त्राय फट्। कामास्त्राय फट्। क्षेत्रपालास्त्राय फट्। हुंकरास्त्राय फट्। भास्करास्त्राय फट्। चंद्रास्त्राय फट्। विध्नेश्वरास्त्राय फट्। गौः गां फट्। स्त्रों स्त्रों फट्। हौं हों फट्। भ्रामय भ्रामय फट्। संतापय संतापय फट्। छादय छादय फट्। उन्मूलय उन्मूलय फट्। त्रासय त्रासय फट्। संजीवय संजीवय फट्। विद्रावय विद्रावय फट्। सर्वदुरितं नाशय नाशय फट्।

इन मंत्रों का 1008 की संख्या में पाठ करने के उपरांत प्रतिदशांश हवन, तर्पण एवं मार्जन भी विधिपूर्वक करें।

Navgrah Shabar Mantra (नवग्रह शाबर मन्त्र)

नवग्रह शाबर मन्त्र 



रविदेव हवन
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा अर्क की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- सत नमो आदेश । गुरुजी को आदेश । ॐ गुरुजी । सुन बा योग मूल कहे बारी बार । सतगुरु का सहज विचार ।। ॐ आदित्य खोजो आवागमन घट में राखो दृढ़ करो मन ।। पवन जो खोजो दसवें द्वार । तब गुरु पावे आदित्य देवा ।। आदित्य ग्रह जाति का क्षत्रिय । रक्त रंजित कश्यप पंथ ।। कलिंग देश स्थापना थाप लो । लो पूजा करो सूर्य नारायण की ।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-मंगल शुक्र शनि । बुध-गुरु-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ सूर्य मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।


 
सोमदेव हवन
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा पलाश की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, सोमदेव मन धरी बा शून्य । निर्मल काया पाप न पुण्य ।। शशी-हर बरसे अम्बर झरे । सोमदेव गुण येता करें । सोमदेव जाति का माली । शुक्ल वर्णी गोत्र अत्री ।। ॐ जमुना तीर स्थापना थाप लो । कन्हरे पुष्प शिव शंकर की पूजा करो ।।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । मंगल रवि शुक्र शनि । बुध-गुरु-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ सोम मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।
 
मंगलदेव हवन
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा खैर की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, मंगल विषय माया छोड़े । जन्म-मरण संशय हरै । चन्द्र-सूर्य दो सम करै । जन्म-मरण का काल । एता गुण पावो मंगल ग्रह ।। मंगल ग्रह जाति का सोनी । रक्त-रंजित गोत्र भारद्वाजी ।। अवन्तिका क्षेत्र स्थापना थापलो । ले पूजा करो नवदुर्गा भवानी की ।।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-रवि शुक्र शनि । बुध-गुरु-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ भोम मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।
 
बुधग्रह हवन
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा अपामार्ग की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, बुध ग्रह सत् गुरुजी दिनी बुद्धि । विवरो काया पावो सिद्धि ।। शिव धीरज धरे । शक्ति उन्मनी नीर चढ़े ।। एता गुण बुध ग्रह करै । बुध ग्रह जाति का बनिया ।। हरित हर गोत्र अत्रेय । मगध देश स्थापना थापलो । ले पूजा गणेशजी की करै ।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-रवि शुक्र शनि । मंगल-गुरु-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ बुध मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।” 

गुरु (बृहस्पति) हवन
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा पीपल की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, बृहस्पति विषयी मन जो धरो । पाँचों इन्द्रिय निग्रह करो । त्रिकुटी भई पवना द्वार । एता गुण बृहस्पति देव ।। बृहस्पति जाति का ब्राह्मण । पित पीला अंगिरस गोत्र ।। सिन्धु देश स्थापना थापलो । लो पूजा श्रीलक्ष्मीनारायण की करो ।।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-रवि शुक्र शनि । मंगल-बुध-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ गुरु मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।
 
शुक्रदेव हवन-  
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा गूलर की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, शुक्रदेव सोधे सकल शरीर । कहा बरसे अमृत कहा बरसे नीर ।। नवनाड़ी बहात्तर कोटा पचन चढ़ै । एता गुण शुक्रदेव करै । शुक्र जाति का सय्यद । शुक्ल वर्ण गोत्र भार्गव ।। भोजकर देश स्थापना थाप लो । पूजो हजरत पीर मुहम्मद ।।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-रवि मंगल शनि । बुध-गुरु-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ शुक्र मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।
 
शनिदेव हवन-
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा शमी की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, शनिदेव पाँच तत देह का आसन स्थिर । साढ़े सात, बारा सोलह गिन गिन धरे धीर । शशि हर के घर आवे भान । तौ दिन दिन शनिदेव स्नान । शनिदेव जाति का तेली । कृष्ण कालीक कश्यप गोत्री ।। सौराष्ट्र क्षेत्र स्थापना थाप लो । लो पूजा हनुमान वीर की करो ।।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-मंगल शुक्र रवि । बुध-गुरु-राहु-केतु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ शनि मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।
 
राहु ग्रह हवन
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा दूर्वा की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, राहु साधे अरध शरीर । वीर्य का बल बनाये वीर ।। धुंये की काया निर्मल नीर । येता गुण का राहु वीर । राहु जाति का शूद्र । कृष्ण काला पैठीनस गोत्र ।। राठीनापुर क्षेत्र स्थापना थाप लो । लो पूजा करो काल भैरो ।।
सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-रवि शुक्र शनि । मंगल केतु बुध-गुरु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ राहु मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।
 
केतु ग्रह हवन-  
हवन सामग्रीः- गौघृत तथा कुशा की लकड़ी ।
दिशाः- पूर्व, मुद्रा-हंसी, संख्याः- ९ बार या १०८ बार ।
मन्त्रः- ॐ गुरुजी, केतु ग्रह कृष्ण काया । खोजो मन विषय माया । रवि चन्द्रा संग साधे । काल केतु याते पावे । केतु जाति का असरु जेमिनी गोत्र काला नुर ।। अन्तरवेद क्षेत्र स्थापना थाप लो । लो पूजा करो रौद्र घोर ।।

सत फुरै सत वाचा फुरै श्रीनाथजी के सिंहासन ऊपर पान फूल की पूजा चढ़ै । हमारे आसन पर ऋद्धि-सिद्धि धरै, भण्डार भरे । ७ वार, २७ नक्षत्र, ९ ग्रह, १२ राशि, १५ तिथि । सोम-रवि शुक्र शनि । मंगल बुध-राहु-गुरु सुख करै, दुःख हरै । खाली वाचा कभी ना पड़ै ।। ॐ केतु मन्त्र गायत्री जाप । रक्षा करे श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ । नमो नमः स्वाहा ।



श्रीनाथजी  गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
    
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शंकरनाथ - 9420675133


नंदेशनाथ - 8087899308

Wednesday 25 April 2018

Tarpan Vidhi (तर्पण विधि)


तर्पण विधि 


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(देवर्षिमनुप्यपितिधि)
प्रातःकाल संध्योपासना करने के पश्चात् बायें और दायें हाथ की अनामिका अङ्गुलि में पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिःइस मन्त्र को पढते हुए पवित्री (पैंती) धारण करें । फिर हाथ में त्रिकुश, यव, अक्षत और जल लेकर निम्नाङ्कित रूप से संकल्प पढें
ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये ।
तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः।
तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र के ऊपर एक हाथ या प्रादेशमात्र लम्बे तीन कुश रखें, जिनका अग्रभाग पूर्व की ओर रहे । इसके बाद उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें । फिर उसमें रखे हुए तीनों कुशों को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढँक लें और निम्नाङ्कित मन्त्र पढते हुए देवताओं का आवाहन करें ।
ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम् ।एदं वर्हिनिषीदत ॥(शु० यजु० ७।३४)
हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजमान हों ।
विश्वेदेवा: श्रृणुतेम, हवं मे ये ऽअन्तरिक्षे य ऽउप द्यवि ष्ठ ।येऽअग्निजिह्वाऽउत वा यजत्राऽआसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयद्ध्वम् ॥(शु० यजु० ३३।५३)हे विश्वेदेवगण ! आपलोगोंमें से जो अन्तरिक्ष में हों, जो द्य्लोक (स्वर्ग) के समीप हों तथा अग्नि के समान जिह्वावाले एवं यजन करने योग्य हों, वे सब हमारे इस आवाहन को सुनें और इस कुशासन पर बैठकर तृप्त हों ।
आगच्छन्तु महाभागा ब्रह्माण्डोदर वर्तिनः । ये यत्र  विहितास्तत्र सावधाना भवन्तु ते ॥
इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और उन पूर्वाग्र कुशों द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढते रहें
देवतर्पण
ॐ ब्रह्मा तृप्यताम् । ॐ विष्णुस्तृप्यताम् । ॐ रुद्रस्तृप्यताम् । ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् । ॐ देवास्तृप्यन्ताम् । ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् । ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् । ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् । ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् । ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ संवत्सररू सावयवस्तृप्यताम् । ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् । ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् । ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् । ॐ नागास्तृप्यन्ताम् । ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् । ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् । ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् । ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् । ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् । ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् । ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् । ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् । ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् । ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् । ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् । ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।
ऋषितर्पण
इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एव्क-एक अञ्जलि जल दें
ॐ मरीचिस्तृप्यताम् । ॐ अत्रिस्तृप्यताम् । ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् । ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् । ॐ पुलहस्तृप्यताम् । ॐ क्रतुस्तृप्यताम् । ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् । ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् । ॐ भृगुस्तृप्यताम् । ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥
दिव्यमनुष्यतर्पण
इसके बाद जनेऊ को माला की भाँति गले में धारण कर अर्थात्  पूर्वोक्त कुशों को दायें हाथ की कनिष्ठिका के मूल-भाग में उत्तराग्र रखकर स्वयं उत्तराभिमुख हो निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि यवसहित जल प्राजापत्यतीर्थ कनिष्ठिका के मूला-भाग) से अर्पण करें
ॐ सनकस्तृप्यताम् ॥2॥ ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् ॥2॥ ॐ सनातनस्तृप्यताम् ॥2॥ ॐ कपिलस्तृप्यताम् ॥2॥ॐ आसुरिस्तृप्यताम् ॥2॥ ॐ वोढुस्तृप्यताम् ॥2॥ ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् ॥2
दिव्यपितृतर्पण
तत्पश्चात उन कुशों को द्विगुण भुग्न करके उनका मूल और अग्रभाग दक्षिण की ओर किये हुए ही उन्हें अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे और स्वयं दक्षिणाभिमुख हो बायें घुटने को पृथ्वी पर रखकर अपसव्यभाव से जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर पूर्वोक्त पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें

ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥3
ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥3
ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: 3
ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: 3
ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: 3
ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम:॥३॥
ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: ॥३॥

यमतर्पण
इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए चैदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें
ॐ यमाय नम: 3
ॐ धर्मराजाय नम: 3
ॐ मृत्यवे नम: 3
ॐ अन्तकाय नम: 3
ॐ वैवस्वताय नमः ॥3
ॐ कालाय नम: 3
ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: 3
ॐ औदुम्बराय नम: 3
ॐ दध्नाय नम: 3
ॐ नीलाय नम:॥3
ॐ परमेष्ठिने नम:॥3
ॐ वृकोदराय नम:॥3
ॐ चित्राय नम:॥3
ॐ चित्रगुप्ताय नम: 3
मनुष्यपितृतर्पण
इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्त: समिधीमहि ।उशन्नुशत ऽआवह पितृन्हाविषे ऽअत्तवे ॥(शु० यजु० १६।७०)
हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं । हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ ।
ॐ आयन्तु न: पितर: सोम्यासोऽग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै: ।
अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिव्रुवन्तु तेऽवन्तस्मान् ॥
(शु० यजु० १६।५८)

हमारे सोमपान करने योग्य अग्निष्वात्त पितृगण देवताओं के साथ गमन करने योग्य मार्गों से यहाँ आवें और इस यज्ञ में स्वाधा से तृप्त होकर हमें मानसिक उपदेश दें तथा वे हमारी रक्षा करें ।
तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें

अस्मत्पिता (बाप) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्र आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधानम:॥३॥
अस्मन्माता अमुकी देवा दा अमुकसगोत्रा वसुरूषा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्सापत्नमाता सौतेली मा अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥२॥

इसके बाद निम्नाङ्कित नौ मन्त्रों को पढते हुए पितृतीर्थ से जल गिराता रहे

ॐ उदीरतामवर ऽउत्परास ऽउन्मध्यमा: पितर: सोम्यास: ।
असुं य ऽईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥
( शु० य० १६।४६)

इस लोक में स्थित, परलोक में स्थित और मध्यलोक में स्थित सोमभागी पितृगण क्रम से ऊर्ध्वलोकों को प्राप्त हों । जो वायुरूपको प्राप्त हो चुके हैं, वे शत्रुहीन सत्यवेत्ता पितर आवाहन करनेपर यहाँ उपस्थित हो हमलोगों की रक्षा करें ।

ॐ अङ्गिरसो न: पितरो नवग्वा ऽअथर्वाणो भृगव: सोम्यास: ।
तेषां वय, सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ।
(शु० य० १६।७०)

अङ्गिरा के कुल में, अथर्व मुनि के वंश में तथा भृगुकुल में उत्पन्न हुए नवीन गतिवाले एवं सोमपान करने योग्य जो हमारे पितर इस समय पितृलोक को प्राप्त हैं, उन यज्ञ में पूजनीय पितरों की सुन्दर बुद्धि में तथा उनके कल्याणकारी मन में हम स्थित रहें । अर्थात् उनकी मन-बुद्धि में हमारे कल्याण की भावना बनी रहे ।

ॐ आयन्तु न: पितर: सोम्यासोऽग्निष्वात्ता:पथिभिर्देवयानै: ।
अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥
(शु० य० १६।५८)

इस मन्त्र का अर्थ पहले (पृष्ठ ३२में) आ चुका है ।

ॐ ऊर्ज्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम् ।
स्वधास्थ तर्पयत मे पितृन् ॥ (शु० य०।३४)

हे जल ! तुम स्वादिष्ट अन्न के सारभूत रस, रोग-मृत्यु को दूर करनेवाले घी और सब प्रकार का कष्ट मिटानेवाले दुग्ध का वहन करते हो तथा सब ओर प्रवाहित होते हो, अतएव तुम पितरों के लिये हविःस्वरूप होय इसलिये मेरे पितरों को तृप्त करो ।

ॐ पितृभ्य:स्वधायिभ्य: स्वधा नम: पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य:
स्वधा नम: प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्यं: स्वधा नम: ।
अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृप्यन्त पितर: पितर:शुन्धध्वम् ॥
(शु० य० १६।३६)

स्वधा (अन्न) के प्रति गमन करनेवाले पितरों को स्वधासंज्ञक अन्न प्राप्त हो, उन पितरों को हमारा नमस्कार है । स्वधा के प्रति जानेवाले पितामहों को स्वधा प्राप्त हो, उन्हें हमारा नमस्कार है । स्वधा के प्रति गमन करनेवाले प्रपितामहों को स्वधा प्राप्त हो, उन्हें हमारा नमस्कार है । पितर पूर्ण आहार कर चुके, पितर आनन्दित हुए, पितर तृप्त हुए हे पितरो ! अब आपलोग आचमन आदि करके शुद्ध हों ।

ॐ ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्य याँ  २॥
ऽउ च न प्रविद्द्म । त्वं वेत्थ यति ते जातवेदरू स्वधाभिर्यज्ञ, सुकृतं जुपस्व ॥
(शु० य० १६।६७)

जो पितर इस लोक में वर्तमान हैं और जो इस लोक में नही किन्तु पितृलोक में विद्यमान हैं तथा जिन पितरों को हम जानते हैं और जिनको स्मरण न होने के कारण नही जानते हैं, वे सभी पितर जितने हैं, उन सबको हे जातवेदा-अग्निदेव ! तुम जानते हो । पितरों के निमित्त दी जानेवाली स्वधा के द्वारा तुम इस श्रेष्ठ यज्ञ का सेवन करो-इसे सफल बनाओ ।

ॐ मधु व्वाता ऽऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धव: ।
माध्वीन: सन्त्वोषधी: ॥
(शु० य० १३।२७)

यज्ञ की इच्छा करनेवाले यजमान के लिये वायु मधु पुष्परस-मकरन्द की वर्षा करती है । बहनेवाली नदियाँ मधु के समान मधुर जल का स्नोत बहाती हैं । समस्त ओषधियाँ हमारे लिये मधु-रस से युक्त हों ।

ॐ मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव , रज: ।मधु द्यौरस्तु न पिता ॥
(शु० य० १३।२८)

हमारे रात-दिन सभी मधुमय हों । पिता के समान पालन करनेवाला द्युलोक हमारे लिये मधुमय-अमृतमय हो । माता के समान पोषण करनेवाली पृथिवी की धूलि हमारे लिये मधुमयी हो ।

ॐ मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँऽ२ ॥ अस्तु सूर्यः
।माध्वीर्गावो भवन्तु न: ॥
(शु० य० १३।२६)

ॐ मधु । मधु । मधु । तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् ।

वनस्पति और सूर्य भी हमारे लिये मधुमान् मधुर रस से युक्त हों । हमारी समस्त गौएँ माध्वी-मधु के समान दूध देनेवाली हों ।
फिर नीचे लिखे मन्त्र का पाठमात्र करे

ॐ नमो व: पितरो रसाय नमो व: पितर: शोषाय नमो व: पितरो जीवाय नमो वर: पितर: स्वधायै नमो व: पितरो घोराय नमो व: पितरो मन्यवे नमो वर: पितर: पितरो नमो वो गृहान्न:पितरो दत्त सतो व: पितरो देष्मैतद्व: पितरो व्वास ऽआधत्त ॥
(शु० य० २।३२)

हे पितृगण । तुमसे सम्बन्ध रखनेवाली रसस्वरूप वसन्त-ऋतु को नमस्कार है, शोषण करनेवली ग्रीष्म-ऋतु को नमस्कार है, जीवन-स्वरूप वर्षा-ऋतु को नमस्कार है, स्वधारूप शरद-ऋतु को नमस्कार है, प्राणियों के लिये घोर प्रतीत होनेवाली हेमन्त-ऋतु को नमस्कार है, क्रोधस्वरूप शिशिर-ऋतु को नमस्कार है । अर्थात् तुमसे सम्बन्ध रखनेवाली सभी ऋतुएँ तुम्हारी कृपा से सर्वथा अनुकूल होकर सबको लाभ पहुँचानेवाली हों । हे षडऋतुरूप पितरो ! तुम हमें साध्वी पत्नी और सत्पुत्र आदि से युक्त उत्तम गृह प्रदान करो । हे पितृगण ! इन प्रस्तुत दातव्य वस्तुओं को हम तुम्हें अर्पण करते हैं, तुम्हारे लिये यह सूत्ररूप वस्त्र है, इसे धारण करो ।

द्वितीयगोत्रतर्पण
इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करे, यहाँ भी पहले की ही भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन-तीन बार पढकर तिलसहित जल की तीन-तीन अञ्जलियाँ पितृतीर्थ से दे । यथा

अस्मन्मातामह: नाना अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं गङ्गाजलं वा तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्प्रमातामह: परनाना अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामह: बूढे परनाना अमुकशर्मा अमुकसगोत्र आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥३॥
अस्मन्मातामही नानी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्प्रमातामही परनानी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥३॥
अस्मद्वृद्धप्रमातामही बूढी परनानी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥३॥

पत्न्यादितर्पण
अस्मत्पत्नी भार्या अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥१॥
अस्मत्सुतरू बेटा अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्कन्या बेटी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥१॥
अस्मत्पितृव्य: पिता के भाई अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मन्मातुल: मामा अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मद्भ्राता अपना भाई अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्सापत्नभ्राता सौतेला भाई अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥३॥
अस्मत्पितृभगिनी बूआ अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥१॥
अस्मन्मातृभगिनी मौसी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥१॥
अस्मदात्मभगिनी अपनी बहिन अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥१॥
अस्मत्सापत्नभगिनी सौतेली बहिन अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥१॥
अस्मच्छवशुर: श्वशुर अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मद्गुरु: अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मदाचार्यपत्नी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥२॥
अस्मच्छिष्य: अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मत्सखा अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥
अस्मदाप्तपुरुष: अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे

देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा: ।
पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा: ॥
जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव: ।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥
नरकेषु समस्तेपु यातनासु च ये स्थिता: ।
तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥

देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से भीघ्र तृप्त हों । जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में पङेपडे दुरूख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुम्कसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों ।

ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवषिंपितृमानवा: ।
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् ।
आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥

ब्रह्माजो  से लोकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों
मेरे कुल की बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यम्त सात द्रीपो के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में या किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो जायँ

वस्त्र-निष्पीडन
तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र को पढते हुए अपसव्य-होकर अपने बाएँ भाग में भूमिपर उस वस्त्र को निचोड़े । पवित्रक को तर्पण किये हुए जल मे छोड दे । यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये । वस्त्र-निष्पीडन का मन्त्र यह है
ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृतारू ।
ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ॥

भीष्मतर्पण
इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही अनेऊ अपसव्य करके हाथ में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल अके द्वारा तर्पण करे । उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाङ्कित श्लोक है

वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च ।
गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम् ।
अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥

अर्घ्य दान
फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे । तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य कर बाएँ कंधेपर करके एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसके मध्यभाग में अनामिका से षडदल कमल बनावे और उसमें श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड दे । फिर दूसरे पात्र में चन्दल से षडदल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे । अर्ध्यदान के मन्त्र निम्नाङ्कित हैं

ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो व्वेन ऽआव: ।
स बुध्न्या ऽउपमा ऽअस्य व्विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्व व्विव: 
(शु० य० १३।३)

ॐ ब्रह्मणे नम:। ब्रह्माणं पूजयामि ॥

सर्वप्रथम पूर्व दिशा से प्रकट होनेवाले आदित्यरूप ब्रह्मने भूगोल के मध्यभाग से आरम्भ करके इन समस्त सुन्दर कान्तिबाले लोकों को अपने प्रकाश से व्यक्त किय है तथा वह अत्यन्त कमनीय आदित्य इस जगत् कि निवासस्थानभूत अवकाशयुक्त दिशाओं को, विद्यमान-मूर्त्तपदार्थ के स्थानों को और अमूर्त्त वायु आदि के उत्पत्ति स्थानों को भी प्रकाशित करता है ।

ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् ।
समूढमस्यपा, सुरे स्वाहा ॥
ॐ विष्णवे नम: । विष्णुं पूजयामि ॥

सर्वव्यापी त्रिविक्रम वामन अवतारधारी भगवान् विष्णुने इस चराचर जगत् को विभक्त करके अपने चरणों से आक्राम्त किया है । उन्होंने पृथ्वी, आकाश और द्युलोक-इन तीनो स्थानों में अपना चरण स्थापित किया है अथवा उक्त तीनों स्थानों में वे क्रमशरू अग्नि, वायु तथा सूर्यरूप से स्थित हैं ।, इन विष्णु भगवान् के चरण में समस्त विश्व अन्तर्भूत है । इम इनके निमित्त स्वाहा हविष्यदान करते हैं ।

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम: ।वाहुब्यामुत ते नम: ॥
ॐ रुद्राय नम: । रुद्रं पूजयामि ॥

हे रुद्र ! आप के क्रोध और वाण को नमस्कार है तथा आपकी दोनों भुजाओं को नमस्कार हैं ।

ॐ तत्सवितुर्व रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।धियो यो न: प्रचोदयात् ॥
ॐ सवित्रे नम: । सवितारं पूजयामि ॥
हस स्थावर-जङ्गमरूप सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करनेवाले उन निरतिशय प्रकाशमय सूर्यस्वरूप परमेश्वर के भजने योग्य तेज का ध्यान करते हैं, जो कि हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते रहते हैं ।

ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि ।द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥
ॐ मित्राय नम:। मित्रं पूजयामि ॥

मनुष्यों का पोषण करनेवाले दीप्तिमान् मित्रदेवता का यह रक्षणकार्य सनातन, यशरूप से प्रसिद्ध, विचित्र तथा श्रवण करने के योग्य है ।

ॐ इमं मे व्वरूण श्रुधी हवमद्या च मृडय ।  त्वामवस्युराचके ॥
ॐ वरुणाय नम: । वरूणं पूजयामि ॥
हे संसार-सागर के अधिपति वरुणदेव ! अपनी रक्षा के लिये मैं आपको बुलाना चाहता हूँ, आप मेरे इल आवाहन को सुनिये और यहाँ शीघ्र पधारकर आज हमें सब प्रकार से सुखी कीजिये ।
फिर भगवान सूर्य को अघ्र्य दें 
एहि सूर्य सहस्त्राशों तेजो राशिं जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाघ्र्य दिवाकरः।
हाथों को उपर कर उपस्थाप मंत्र पढ़ें
चित्रं देवाना मुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरूणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्यआत्माजगतस्तस्थुशश्च।
फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को नमस्कार करें।
ॐ प्राच्यै इन्द्राय नमः। ॐ आग्नयै अग्नयै नमः। ॐ दक्षिणायै यमाय नमः। ॐ नैऋत्यै नैऋतये नमः। ॐ पश्चिमायै वरूणाय नमः। ॐ वाव्ययै वायवे नमः। ॐ उदीच्यै कुवेराय नमः। ॐ ईशान्यै ईशानाय नमः। ॐ ऊध्र्वायै ब्रह्मणै नमः। ॐ अवाच्यै अनन्ताय नमः।
सव्य होकर पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।
ॐ ब्रह्मणै नमः। ॐ अग्नयै नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ औषधिभ्यो नमः। ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो  नमः। ॐ अपां  पतये नमः। ॐ वरूणाय नमः।
फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें 
और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें


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श्राद्ध न करनेसे हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः आद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठा...