Wednesday, 12 January 2022

मृत्यू

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किसी सदस्य ने हमे कहा कि मृत्यु क्या है कृपा इस पर लिखे तो हम प्रयास कर रहे कि मृत्यु को शब्द दे सके किन्तु हमारे विचार से मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक झूठ है ..जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। 

जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं और रूप की बदलाहट को तुम मृत्यु समझ लेते हो। तुम बच्चे थे, फिर तुम जवान हो गए। बच्चे का क्या हुआ? बच्चा मर गया? अब तो बच्चा कहीं दिखायी नहीं पड़ता।

जवान थे, अब बूढ़े हो गए। जवान का क्या हुआ? जवान मर गया?  जवान अब तो कहीं दिखायी नहीं पड़ता। सिर्फ रूप बदलते हैं.. बच्चा ही जवान हो गया; जवान ही बूढ़ा हो गया और कल जीवन ही मृत्यु हो जाएगा।

यह सिर्फ रूप की बदलाहट है। दिन में तुम जागे थे, रात सो जाओगे। दिन और रात एक ही चीज के रूपांतरण हैं। जो जागा था, वही सो गया। बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। 

जब तक बीज में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे; फिर जन्म होगा। और गर्भ में नहीं पड़ोगे, तो महाजन्म होगा, तो मोक्ष में विराजमान होते।

मरता कभी कुछ भी नहीं। विज्ञान भी इस बात से सहमत है। विज्ञान कहता है. किसी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान कहता है पदार्थ अविनाशी है। एक रेत के छोटे से कण को भी विज्ञान की सारी क्षमता के बावजूद हम नष्ट नहीं कर सकते।

पीस सकते हैं, नष्ट नहीं कर सकते। पीसने से तो रूप बदलेगा। रेत को पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। उसको और पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। हम उसका अणु विस्फोट भी कर ‘सकते हैं। 

लेकिन अणु (molecule)टूट जाएगा, तो परमाणु (Atom )होंगे। रेत और पतली हो गयी।BUNDLE OF Energy.. हम परमाणु को भी तोड़ सकते हैं, तो फिर इलेक्ट्रान, पाजिट्रान(पोजीटिव इलेक्ट्रोन),फोटॉन (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन)  रह जाएंगे। 

रेत और पतली हो गयी,मगर नष्ट कुछ नहीं हो रहा है; सिर्फ रूप बदल रहा है। परमाणु के केन्द्र में नाभिक (न्यूक्लिअस) होता है जिसके चारो ओर इलेक्ट्रॉन  (एक ऋणात्मक विद्युत आवेश,आकार बहुत छोटा तथा सबसे हल्का) चक्कर लगाते रहते हैं।

नाभिक--प्रोटॉन  (धनात्मक आवेश..  तथा इलेक्ट्रान के द्रव्यमान के 1,839 गुना ) एवं न्यूट्रानों (अनावेशित,न्यूट्रल जो इलेक्ट्रान के द्रव्यमान के 1,839 गुना है) से बना होता है।

एक परमाणु के नाभिक/न्यूक्लिअस में... इलेक्ट्रॉन्स प्रोटॉन की ओर आकर्षित होता है जबकि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन  एक दूसरे को आकर्षित करते है।

न्यूक्लिअसरूपी  परंब्रह्म  के चारो ओर इलेक्ट्रान क्लाउड या नेगेटिव एनर्जी चक्कर लगाती  रहती हैं।न्यूक्लिअसरूपी परंब्रह्म प्रोटॉनरूपी पॉजिटिव एनर्जी एवं न्यूट्रानरूपी  न्यूट्रल एनर्जी-साम्यावस्था से अधिक नज़दीक हैं।

नेगेटिव एनर्जी- पॉजिटिव एनर्जी की ओर आकर्षित होती  है ;जबकि पॉजिटिव एनर्जी एवं  न्यूट्रल एनर्जी-एक दूसरे को आकर्षित करते है।

विज्ञान ने पदार्थ की खोज की, इसलिए पदार्थ के अविनाशत्व को जान लिया। धर्म कहता है – चेतना अविनाशी है, क्योंकि धर्म ने चेतना की खोज की और चेतना के अविनाशत्व को जान लिया।

विज्ञान और धर्म दोनों राजी हैं कि जो है, वह अविनाशी है। मृत्यु है ही नहीं। तुम सदा थे; ओर सदा रहोगे और अगर तुम जाग जाओ, अगर तुम चैतन्य से भर जाओ, तो तुम्हें सब दिखायी पड़ जाएगा कि , कब क्या थे।

गौतम बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों की कितनी ही कथाएं कही हैं । कभी जानवर थे; कभी पौधा , कभी पशु ;कभी पक्षी, कभी राजा, कभी भिखारी, कभी स्त्री, तो कभी पुरुष। जो जाग जाता है, उसे सारा स्मरण आ जाता है।

मृत्यु तो होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ पर्दे का गिरना है। तुम नाटक देखने गए और पर्दा गिरा। अब फिर तैयारी कर रहे होंगे। मेकअप करेंगे और फिर पर्दा उठेगा। शायद तुम पहचान भी न पाओ कि जो सज्जन थोड़ी देर पहले कुछ और थे, अब वे कुछ और हो गए हैं! 

बस,यही हो रहा है। इसलिए संसार को नाटक मंच कहा गया है। यहां रूप बदलते रहते हैं। फिर लौट आते हैं, बार -बार लौट आते हैं। मृत्यु एक भ्रान्ति है , धोखा है। पहले भी सब ऐसा ही था। फिर और फिर ऐसा ही होगा। 

यह दुनिया मिट जाएगी, तो दूसरी दुनिया पैदा होगी। यह पृथ्वी उजड़ जाएगी, तो दूसरी पृथ्वी बस जाएगी। तुम इस देह को छोड़ोगे, तो दूसरी देह में प्रविष्ट हो जाओगे। तुम इस चित्तदशा को छोड़ोगे, तो नयी चित्तदशा मिलती।

तुम अज्ञान छोड़ोगे, तो ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाओगे; मगर मिटेगा कुछ भी नहीं। मिटना होता ही नहीं। सब यहां अविनाशी है। अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। मृत्यु है ही नहीं और जो है ही नहीं, उसकी व्याख्या कैसे करें?

उदाहरण के लिए ये ऐसा ही है, जैसे तुमने रास्ते पर पड़ी रस्सी में भय के कारण सांप देखा। भागे, घबडाए, फिर कोई मिल गया, जो जानता है कि रस्सी है। उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और कहा मत घबड़ाओ, रस्सी है। तुम्हें ले गया; पास जाकर दिखा दी कि रस्सी है।

फिर क्या तुम उससे पूछोगे सांप का क्या हुआ? बात खतम हो गयी,क्योकि सांप था ही नहीं। रस्सी के रूप -रंग ने , सांझ के धुंधलके ने , तुम्हारे भीतर के भय ने तुम्हें भांति दे दी।

सारी भ्रांतियों ने मिलकर एक सांप निर्मित कर दिया। वह तुम्हारा सपना था। मृत्यु तुम्हारा सपना है। कभी घटा नहीं। घटता मालूम होता है। और इसलिए भ्रांति मजबूत बनी रहती है कि जो आदमी मरता है, वह तो विदा हो जाता है। वही जानता है कि' क्या है मृत्यु' जो मरता है।

तुम तो मर नहीं रहे ;केवल बाहर से खड़े देख रहे हो।एक डाक्टर कह सकता है कि मैंने सैकड़ों मृत्युएं देखी हैं। लेकिन ये गलत है। उसने सैकडों मरते हुए लोग देखे होंगे, लेकिन मरते हुए लोग देखने से क्या होता है।

तुम बाहर यही देख सकते हो कि सांस धीमी होती जाती है;  धड़कन डूबती जाती है। मगर यह मृत्यु थोड़े ही है। यह आदमी अब ठंडा हो गया, यही देखोगे। मगर इसके भीतर जो चेतना थी, कहां गयी?

उसने कहां पंख फैलाए? वह किस आकाश में उड गयी? वह किस द्वार से प्रविष्ट हो गयी? किस गर्भ में बैठ गयी? वह कहां गयी? क्या हुआ? उसका तो तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।

यह तो वही आदमी कह सकता है और मुर्दे कभी लौटते नहीं। जो मर गया, वह लौटता नहीं। और जो लौट आते हैं, उनकी तुम मानते नहीं। जैसे बुद्ध यही कह रहे हैं कि मैंने ध्यान में वह सारा देख लिया।

जो मौत में देखा जाता है। इसलिए तो ज्ञानी की कब्र को हम समाधि कहते हैं, क्योंकि वह समाधि को जानकर मरा। उसने ध्यान की परम दशा जानी। इसलिए हम संन्यासी को जलाते नहीं बल्कि गाड़ते हैं।

शायद तुमने सोचा ही न हो कि  'क्यों'? क्योंकि गृहस्थ को अभी फिर पैदा होना है। उसकी देह जल जाए, यह अच्छा हैं। क्योंकि देह के जलते ही उसकी आत्मा की आसक्ति इस देह में थी, वह मुक्त हो जाती है। 

जब जल ही गयी; खतम ही हो गयी, राख हो गयी—अब इसमें मोह रखने का क्या प्रयोजन है? वह उड़ जाता है। वह नए गर्भ में प्रवेश करने की तैयारी करने लगता है। पुराना घर जल गया, तो नया घर खोजता है।

संन्यासी तो जानकर ही मरा है। अब उसे कोई नया घर स्वीकार नहीं करना है। पुराने घर से मोह तो उसने मरने के पहले ही छोड़ दिया। अब जले-जलाए, मरे -मराए को जलाने से क्या सार।

इस आधार पर संन्यासी को हम जलाते नहीं, गाड़ते हैं। और उसकी कब्र को समाधि कहते हैं। इसीलिए कि वह ध्यान की परम अवस्था समाधि को पाकर गया है। वह मृत्यु को जीते जी जानकर गया है कि मृत्यु झूठ है।

जिस दिन मृत्यु झूठ हो जाती है, उसी दिन जीवन भी झूठ हो जाता है। क्योंकि वह मृत्यु और जीवन हमारे दोनों एक ही भांति के दो हिस्से हैं। जिस दिन मृत्यु झूठ हो गयी, उस दिन जीवन भी झूठ हो गया। 

उस दिन कुछ प्रगट होता है, जो मृत्यु और जीवन दोनों से अतीत है। उस अतीत का नाम ही परमात्मा है; जो न कभी पैदा होता, न कभी मरता, जो सदा है।मृत्यु कीमती चीज है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो संन्यास न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो धर्म न होता।

मृत्यु अपरिहार्य है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो परमात्मा का कोई स्मरण न होता, प्रार्थना न होती, पूजा न होती, आराधना न होती ; यह पृथ्वी दिव्य पुरुषों को तो जन्म ही न दे पाती, मनुष्यों को भी जन्म न दे पाती।

यह पृथ्वी पशुओं से भरी होती। मृत्यु ने ही झकझोरा। मृत्यु की बड़ी कृपा है, उसका बड़ा अनुग्रह है। बुद्ध को भी स्मरण आया था ..मृत्यु को ही देख कर। बुद्ध ने उसी रात घर छोड़ दिया,और क्रांति घट गई। 

जब मृत्यु होने ही वाली है, तो हो ही गई; तो जितने दिन हाथ में है.. इतने दिनों में हम उसको खोज लें जो अमृत है। दोस्तो विषय की भूमिका में ही लेख बन गया विषय का विस्तार नही कहा तो न्याय नही होगा।

तो हम इसको अगली कुछ पोस्टो में पूर्ण करते। क्रमशः

by Brijmohan sarda. 


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