किसी मन्त्र को सिद्ध करने के लिए उस मन्त्र का जब किसी निश्चित संख्यां तक मन्त्र को आत्म-सात करते हुए विशेष विधि-विधान के साथ 'जप' किया जाता है, तो उसे 'पुरश्चरण' कहते हैं।
गुरुदेव से दीक्षा द्वारा मन्त्र-प्राप्ति के बाद 'पुरश्चरण' करना आवश्यक है। जबतक पुरश्चरण नही किया जाता, तबतक मन्त्र उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार जीव से रहित देह अर्थात जैसे हम जीव-रहित शरीर से कोई काम नही ले सकते, वैसे ही बिना 'पुरश्चरण' किए हम गुरु-कृपा द्वारा प्राप्त मन्त्र से भी कोई काम नही ले सकते।
1- मन्त्र का जप, 2-हवन, 3-तर्पण, 4-अभिषेक (मार्जन) 5-ब्राह्मण-कुमारी भोजन --इस पन्चांग उपासना को 'पुरश्चरण' कहते हैं। 'जप' का दशांश हवन होता है, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्रह्म-कुमारी-भोजन ।
पुरश्चरण के दश अंग भी हैं। उपर पांच अंग उल्लिखित हैं। अन्य पांच अंग के नाम निम्नलिखित हैं।
1-पटल, 2- पद्धति, 3-कवच, 4-सहस्त्रानाम, और 5- स्त्रोत ।
इनमें से 'पटल' देवता का शिर, 'सहस्त्रानाम' देवता का मूख, 'कवच' देवता का शरीर 'पद्धति' देवता के हाथ हैं। 'पद्धति' का अर्थ 'पूजा-पद्धति' है। 'पद्धति' के स्थान पर मात्र पूजा होता, तो केवल पंचोपचारादि सामान्य पूजा का ही बौध होता और पुरश्चरण-कर्ता शीघ्रता के लिए पंचोपचार-पूजा मात्र कर लेता, किन्तु "पद्धति' शब्द से स्पष्ट है कि पद्धति-पुर्वक ही पूजा होनी चाहिए। 'स्त्रोत' (स्तुति) देवता के पैर हैं।
इस प्रकार दौनों पंचांग मिलाकर पुरश्चरण के दस अंग होते हैं। तात्पर्य यह है कि पुरश्चरण करनेवाला पहले वैदिक (तांत्रिक) सन्ध्या-वंदन करे। तब अपने इष्ट-देवता की पद्धति-पुर्वक पूजा कर सहस्त्रानाम आदि कवच, पटल और स्त्रोतों का पाठ करे। यह सब कर चूकने पर पुरश्चरण के अंग-भुत 'जप' के लिए बैठे।
पुरश्चरण में साधारण-तया जिस मन्त्र के जितने अक्षर हों, उस मन्त्र के उतने ही लक्ष 'जप' किए जाते हैं। जैसे पन्चाक्षरी मन्त्र हो, तो उसके पांच लाख और नवाक्षरी मन्त्र हो, तो उसके नौ लाख जप किए जाते हैं। पुरश्चरण करनेवाले साधक को फलाहार, शाकाहार या दुग्धाहार करना चाहिए। वह कन्द,मूल,दही, तथा हविष्यान्न ( घी,दुध,शक्कर के साथ पके हुए चावल) भी ले सकते हैं।
पवित्र नदी के तट पर, पहाड़ों के शिखर या गुहाओं में, पावन सघन वनों में, अश्वस्थ वृक्ष के नीचे तथा किसी भी तीर्थ-स्थान में पुरश्चरण करना अत्युत्तम है। यदि ऐसा स्थान न मिले तो साधक अपने घर में भी 'पुरश्चरण' कर सकता है। साधना के लिए समुचित स्थान का चयन करना पहला कर्तव्य है। साधना स्थान दो प्रकार के होते हैं-1 -प्राकृतिक 2- मानव निर्मित। जिस स्थान पर बैठने से मन को शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव हो, वह स्थान साधना के लिए सर्वोत्तम होता है ।प्राकृतिक स्थान- प्रकृति के खुले प्रदेश में साधना का उपयोगी स्थान यदि सुलभ हो तो वहाँ बैठकर साधना करने से सहज ही मन्त्र चैतन्य होता है। जो निम्नवत हैं--
1-पर्वत का शिखर-भाग, 2-पर्वत का तटीय प्रदेश ,(तराई) 3- पर्वत की गुफा, 4- पवित्र वन (तपोवन), 5- तुलसी-वन, 6-प्रशस्त वृक्ष (वट,बिल्व पिप्पल,आंवला आदि कुल वृक्ष के नीचे), 7-पवित्र नदी, सरोवर सागर का तट, 8- पवित्र निर्जन प्रदेश, 9- जल के मध्य में, 10, नदी-संगम प्रदेश, 11-तीर्थ-क्षेत्र।
प्राकृतिक 'स्थान' में बैठने से मन स्वाभाविक रुप से उल्लासित होता है। पर्वत, वन, नदी, निर्जन प्रदेश आदि स्थानों में शान्त वातावरण सहज ही सुलभ रहता है, जिससे बिना किसी विघ्न-बाधा के शान्ति के साथ साधना संपन्न होती है। विभिन्न 'तीर्थ-स्थानों ' में ऐसे स्थान अधिकता से दृष्टिगत होती हैं, जहां प्राचीन काल से आजतक लोग साधना कर सफलता प्राप्त करते आ रहे हैं। इसी से शास्त्रोक्ति है कि-- वाराणसी में 'जप' करने से उसका पुरा फल मिलता है। पुरुषोत्तम-क्षेत्र में उससे दूना फल, द्वारका में उससे दूना, विन्ध्य, प्रयाग और पुष्कर में उससे सौ गुणा करतोया नदी के जल में इन सब की अपेक्षा चार गूना, नंदी कुण्ड में उसका चार गूना, सिद्धेश्वरी-महामूद्रा में उसका दूना, ब्रह्म-पुत्र नदि में उसका चार गूना, काम-रुप के जल -स्थल में उसी के समान, नीलांचल पर्वत के शिखर पर उसका दूना और कामाख्या-महामूद्रा-पीठ में उसका सौ गूना फल होता है।
उक्त तीर्थों के उत्तरोत्तर गुण-वर्णन का आशय यही है कि साधना में 'स्थान' का विशेष महत्व है। उपर वर्णित तीर्थ-क्षेत्र सबको उपलब्ध (सुलभ) नही हो सकते, इसी से अन्य प्रकार के स्थानों का उल्लेख शास्त्रों में ऋषियों द्वारा किया गया है। इन उल्लिखित स्थानों में से किसी भी स्थान का उपयोग करके पुरश्चरण में अभीष्ट फल पाई जा सकती है।
2-मानव-द्वारा निर्मित स्थान- 1- शून्य गृह, 2-गुरु-देव का गृह, 3- उपवन (उद्यान), 4-गौ-शाला, 5-एक-लिंग शिवालय ( जिस शिव-मन्दिर के पांच कोस-दस मील तक दुसरा शिव-लिंग न हो) , 6-वृष -शून्य शिव-स्थान(मन्दिर), 7- देवी-मन्दिर, देवालय या शक्ति-पीठ, 8- चतुष्पथ, 9- भू-गर्भ ( पृथ्वी के नीचे बना कमरा, ढंकी हुई गुफा आदि), 10-राज-महल, 11- छिद्र-रहित मण्डप के नीचे, 12- पंच-वटी, 13-श्मशान।
त्याज्य स्थान- जहां दुष्ट लोग और हिंसक पशु, सर्पादि का निवास हो, उस स्थान पर पुरश्चरण साधना न करें। जहां लोगों का आवागमन अधिक हो, धर्म-कर्म की निन्दा होती हो, दुर्भिक्ष की अवस्था अर्थात खाने-पीने की वस्तुओं का अभाव हो , उपद्रव अर्थात झगडे-झंझट आदि होते रहते हों, शासकीय वर्ग अर्थात मन्त्री, अधिकारी, प्रभाव-शाली लोग आते-जाते हों, वहाँ पुरश्चरण साधना का स्थान न चुनें, जीर्ण (टूटे-फुटे) देवालय, जीर्ण उद्यान-गृह, जीर्ण वृक्ष के नीचे, जीर्ण नदी-तट, जीर्ण गुफा या जीर्ण भू-गर्भस्त कक्ष आदि स्थानों को छोड़ दें ।पुरश्चरण में कुर्म-चक्र या दीप-स्थान का भी विचार वृहद है। आसन का भी वृहद वर्णन है। आसन में सजीव और निर्जीव आसन का भी वृहद वर्णन है।मन्त्र देव-देवी के अनुसार पुष्प का भी वृहद वर्णन है। जप माला का भी देवी-देवता के अनुसार वृहद वर्णन है। जप में मातृका वर्ण-मयी माला का जप का विशेष महत्व है। माला के शौधन, मन्त्र के संस्कार, वर्णोषधि तथा दिव्यौषधि का भी वृहद वर्णन है। न्यास का भी वृहद वर्णन है। संकल्प भी अत्यंत जरुरी है। तिथि के ध्यान पुजनादि का भी महत्व है। भुत-शुद्धि भी जरुरी है। प्राणायामविधि भी जरुरी है। आशय ये है की साधना की सभी पद्धति नियम आचार का विधिवत पालन पुरश्चरण काल में आत्यावश्यक है। साधना की सभी अंगों को "पुरश्चरण" अपने में पुर्णत: समाहित किए है ,अब ये कितने भागों में पुर्ण होगी इसकी अन्दाजा लगाना कठिन है , विद्वजन अपनी अमुल्य राय निश्चित प्रदान करें।
पेस्ट कापी - निरंजनानन्द नाथ ।
बहुत सुन्दर ..उपयोगी है लेकिन आजकल इसका अभाब दिखता है
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