Wednesday, 29 June 2022

बुध ग्रह

🌹🌹बुध ग्रह🌹🌹
बुध जिस भाव में बैठा होता है वहाँ से सिर्फ सातवें भाव को देखता है बुध कन्या में 15 डिग्री तक राशि में उच्च का होता है तथा मीन राशि में नीच का होता है किसी के जन्म कुंडली में यदि बुध उच्च का होता है यानि कन्या राशि में होता है तो वह 
बुद्धिमान,लेखक,प्रकाशन संबंधी कार्य करने वाला, राजा तुल्य सुख भोगने वाला,वंश वृद्धि करने वाला,प्रसन्न रहने वाला,गणित संबंधी कार्य करने वाला,व्यापार करने वाला,धन एवं जमीन बढ़ाने वाला,शत्रुनाशक और भौतिक 
सुख भोगने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति को अपनी पुत्री, बहन,साली,बुआ या किसी भी कन्या को कष्ट नहीं देना चाहिये,नहीं तो उसके उच्च ग्रह अपना शुभ फल देना छोड़ देते हैं। यदि बुध अपनी नीच राशि यानि मीन राशि में होता है तो इसके विपरीत फल प्राप्त होते हैं.
   🌹🌹हर हर महादेव 🌹🌹


- मनोज कुमार गुप्ता 

शाबर मंत्र

श्री गणेशाय नमः🙏
 | शाबर मंत्र

ग्रामीण शाबर मंत्र | शाबर मंत्र सिद्धी कैसे करे | रक्षा शाबर मंत्र | हनुमान जी का शाबर मंत्र | माँ काली शाबर मंत्र | डाकिनी साधना मंत्र | जगदंबा शाबर साधना मंत्र | हर तरह के रोग को ठीक करने का शाबर मंत्र
शाबर मंत्रों के बारे में आप सभी ने सुना तो होगा, परंतु इसके उपयोग का कभी मौका और विधि नहीं मिली होगी | शाबर मंत्रों के बारे में यह कहा जाता है की ये मंत्र स्वयं में सिद्ध होते हैं और तुरन्त फलदायी | शाबर मंत्रो को पढ़ना बहुत ही आसान होता है क्योंकि ये बहुत ही सरल भाषा में होते हैं। ये मंत्र अनेक भाषाओं में पाए जाते हैं इस नाते अब तक लोग इन्हें मुस्लिम सूफियों द्वारा तैयार किया मानते थे | शाबर मंत्र दो तरह के होते हैं- पहला वह जिनका अर्थ ही समझ में न आए। दूसरा वह जो अपना अर्थ स्वयं पढ़ने के बाद खोल देते हैं। यह मंत्र शास्त्रीय मंत्रों की भांति कठिन भी नहीं होते और इतने आसान कि, इसका जो चाहे लाभ उठा सकता है। शाबर मंत्रों से हर एक समस्या का निराकरण किया जा सकता है। यदि बताई गई विधि के अनुसार इसका सही-सही प्रयोग किया जाए।

शाबर मंत्रो मे सुधार की भी जरूरत नहीं होती, क्योंकि ये आमतौर पर ग्रामीण भाषाओं में होते हैं और अधिकतर मंत्रों में हनुमान या काली से ही इन शाबर मंत्रों के द्वारा कार्य सिद्ध किए जाने की प्रार्थना की जाती है।

आप नियमपूर्वक शुद्ध उच्चारण के द्वारा संयम पूर्वक रहकर यदि इन्हें सिद्ध करना चाहें तो बड़े आराम से कर सकते हैं। जिन्हें मंत्रों में रूचि हो, भगवान में विश्वास हो, तो वे इन्हें स्वयं सिद्ध कर इनका लाभ उठा सकते हैं और आनेवाली पीढ़ी को भी इससे अवगत करा सकते हैं, क्योंकि भावी पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता में रंगकर भारतीय संस्कृति का मजाक उड़ाने लगी है। सीता, सावित्री के बजाये मरियम और तुलसी, सूर, कबीर, कालिदास से बड़ा शैक्सपीयर को मानते हैं। 
शाबर मंत्र सिद्धी कैसे करे
शाबर मंत्र सदैव एक ही स्थान पर बैठकर सिद्ध करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है जहां मंत्र जपा जाये उस स्थान को दोष मुक्त कर अला-बला से भी मुक्त कर लिया जाये । साथ ही ऐसा करने से साधक की भी रक्षा होती है। इस तरह के जो शाबर मंत्र होते हैं उन्हें रक्षा मंत्र भी कहा जाता है |
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ॐ नमः शिवाय🙏🙏🌷🌷

- मनोज कुमार 

Tuesday, 28 June 2022

चंद्र ग्रह

कुंडली मे चंद्रमा का अहम भूमिका होती है चंद्रमा मन का कारक है चंद्रमा सूर्य के साथ बैठता है अमावस्या दोष बना देता है चंद्रमा राहु के साथ युक्ति होती है तो मातृ दोष का निर्माण होता है शनि के साथ युक्ति होती है विष दोष का निर्माण होता है चंद्रमा पीड़ित होता है कुंडली में बने हुए राजयोग जैसे गजकेसरी राजयोग, बुद्धादित्य राजयोग, लक्ष्मीनारायण राजयोग, इत्यादि राजयोग चंद्रमा के पीड़ित होने से अपना फल या प्रभाव देने में असमर्थ हो जाते हैं चंद्रमा मन का कारक है चंद्रमा पीड़ित होता है तो जातक का मन हमेशा विचलित रहता है ऐसे में कोई भी अपना डिसीजन लेने में असमर्थ हो जाता है ऐसे में जातक को कोई भी उपाय दिया जाए जब भी विश्वास नहीं करता है और उपाय भी सही ढंग से नहीं करता है 

- मनोज कुमार


प्रश्न: भाग्य बंधन क्या होता है ? क्या कोइ ईँसान अपनी तंत्र शक्ति से भाग्य बांध सकता हैं ?

प्रश्न: भाग्य बंधन क्या होता है ? क्या कोइ ईँसान अपनी तंत्र शक्ति से भाग्य बांध सकता हैं ?
उत्तर: बहुत अच्छा प्रश्न हे, यह. आजकल बहुत सारे लोग इसी समस्याओं से परेशान हे. भाग्यबंधन होना यानी इश्वर की और या प्रकृति के और से जो सहज लाभ इंसान को मिलने चाहिए वह लाभ मिलना बंद हो जाना. जो opportunities, जो सफ़लता, जो सन्मान, जो स्वास्थ्य और जो प्रेम सरल तरीके से मिलने चाहिए वह सब खूब मेहनत करने के बाद भी प्राप्त नहीं होना. यह सब भाग्य बंधन कहा जाता हे. इसी भाग्य बंधन को ज्योतिष लोग ग्रह दोष कहते हे, तांत्रिक लोग पितृ दोष और प्रेत बाधा कहते हे, वास्तु शास्त्री इसे वास्तु दोष और पंडित लोग इसे महा दशा का नाम देते हे. जब कि यह भाग्य बंधन ही हे, जो मनुष्य को उसके खुद के ही कर्मों के कारण प्राप्त होता हे, ज्यादातर लोग भाग्य बंधन का शिकार 30 साल के बाद होते हे उन्हें अपने 30 वर्ष का आचरण, विचरण और विचारों पर समीक्षा करनी चाहिए, उसी में से उन्हें अपने भाग्य बंधन के कर्म मिल जाएंगे. किन्तु जिनका भाग्य बंधन जन्म के साथ ही शुरू हो जाता हे, वे अपने पूर्ण जन्म के कर्म फल का ही परिणाम होता हे. 
  देखिए इश्वर किसी के भी पाप और पुण्य को स्वीकार नहीं करते हे. किसी के कर्म पर इश्वर का अधिकार नहीं और ना उसके कर्म फल पर इश्वर का अधिपत्य. इसलिए इश्वर के पास भी किसी के भाग्य को खोलने या बंधन का अधिकार नहीं फिर तांत्रिकों की क्या स्थिति है इस से आप सभी वाकिफ हे. फिर भी कुछ केस में ऐसा देखा गया हे कि किसी तांत्रिक ने अपने शक्ति सामर्थ्य से किसी के भाग्य को बाँध लिए. देखिए वास्तव मे ऐसा नहीं होता. जब पाप कर्म मनुष्य को दुख फल देने के लिए प्रवृत्त होता हे तो उसे भी किसी ना किसी माध्यम के द्वारा ही देना होता हे. ऐसे समय में जो तांत्रिक कुछ भी नहीं जानता वह भी कुछ विधि से पीड़ित व्यक्ती के भाग्य को बांधने का निर्मित बन जाता हे, इसी प्रकार जब पुण्य फल सुख देने वाला होता हे तब भी किसी भी ज्योतिष, पंडित या अन्य मार्गदर्शक को ही माध्यम बनाकर उन्हें उसका निर्मित बनाता हे. यह सीधा प्रोसेस हे. 
    कर्म पर सिर्फ और सिर्फ इंसान का खुद का ही अधिकार हे, इसलिए उस से प्राप्त होने वाले फल पर भी उसी kw अधिकार. इसमे किसी की नहीं चलती, इश्वर की भी नहीं. अहिल्या का भी जब बुरे कर्म का समय सीमा समाप्त हुआ तभी उसे श्री राम के चरण स्पर्श का लाभ मिला, इसी प्रकार केवट, शबरी, हनुमानजी, सुग्रीव, विभीषण सभी को प्रभु की कृपा उनके पुण्य फल के उदय के समय प्राप्त हुई.



जप के प्रकार

जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है जानिए
जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। 
जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 
 
1. नित्य जप
प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 
 
2. नैमित्तिक जप
किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।   
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 
 
3. काम्य जप
किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
 
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 
 
4. निषिद्ध जप
मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 
 
5. प्रायश्चित जप
अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
 
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।
 
6. अचल जप
यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
 
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 
 
7. चल जप
यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
 
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 

8. वा‍चिक जप
जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
 
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 
 
9. उपांशु उपाय
वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 
 
10. भ्रमर जप
भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 
 
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 
 
11. मानस जप 
यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
 
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 
 
12. अखंड जप 
यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 
 
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
 
13. अजपा जप 
यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 
 राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 
 
14. प्रदक्षिणा जप
इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है।

३ नाडिया ऑर ७ चक्र

मनुष्य के शरीर में
मुख्य तीन नाड़ियाँ होती हैं!
1) इड़ा नाड़ी
2) पिंगला नाड़ी
3) सुषुम्ना नाड़ी
ये तीनो नाड़ियाँ एक वक्र पथ में मेरूदंड से होकर जाती है और सात बार एक दूसरे को काटती हुई पार करती हैं! जहाँ पर नाड़ियाँ एक दूसरे को काटती है, उस स्थान को 'प्रतिच्छेदन बिंदु' कहते हैं! इन्ही प्रतिच्छेदन बिंदुओं पर, नाड़ियाँ ब्रह्मांड की किरणों के साथ मिलकर एक शक्तिशाली ऊर्जा का केंद्र बनाती है, जिसे 'चक्र' कहते है!

मनुष्य के शरीर में मूल रूप से 7 सात चक्र होते हैं!
1)मूलाधार चक्र
2)स्वाधिष्ठान चक्र
3)मणिपुर चक्र
4)अनाहत चक्र
5)विशुद्धि चक्र
6)आज्ञा चक्र व
7)सहस्त्रार या सहस्त्रदल या ब्रह्मचक्र
यह चक्र मानव शरीर के मेरूदंड में होते है, और इन्ही चक्रों को शरीर की समस्त दिव्य शक्तियों का केंद्र माना जाता है!

तो आज से हम क्रमशः इन्ही चक्रों के रहस्यों पर चर्चा शुरू करते है! जो कि मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र तक स्थूल रूप में ना ही दिखाई देते हैं और ना ही महसूस होते हैं, (जब तक कि इन चक्रो को जाग्रत ना कर लिया जाये) क्योकि शरीर में इनका निवास सूक्ष्म रूप में होता हैं!

हर चक्र के जागने से शरीर में एक विशेष दिव्य ऊर्जा का संचरण होता है! चक्र ध्यान करते समय जब ब्रह्मांड की किरणों से ऊर्जा निकल कर इन चक्र केंद्र पर पड़ती है, तब शरीर के भीतर इन चक्र केंद्रों से एक विशेष दिव्य ऊर्जा उत्पन्न होती हैं! जो मूलाधार चक्र से ऊपर की तरफ गति करती हुई, मध्य के विभिन्न चक्र केंद्रों को भेदती हुई सिर के शीर्षस्थान पर यानि सहस्रार चक्र तक पहुँचती है!

हर चक्र का एक अपना दिव्य प्रकाश पुञ्ज होता है! जो हर गहरी श्वास की गति के साथ,
1)मूलाधार चक्र में रक्तवर्णी
2)स्वाधिष्ठान चक्र में सिन्दूरीवर्ण
3)मणिपूर चक्र में पीतवर्ण
4)अनाहत चक्र में हरितवर्ण
5)विशुद्ध चक्र में हरित-नील (फिरोजी-वर्ण)
6)आज्ञा चक्र में नीलवर्ण व
7)सहस्रार चक्र में बैंगनी वर्ण का आलोक फैलाकर मनुष्य की दिव्य चेतना को समृद्धि करता है!

🙏🙏🙏

 - मनोज कुमार 

श्राद्ध न करनेसे हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः आद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठा...