Friday, 14 January 2022

युगाद्या शक्तिपीठ

 युगाद्या शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। 'देवीपुराण' में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। 


युगाद्या शक्तिपीठ बंगाल के पूर्वी रेलवे के वर्धमान जंक्शन से 39 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में तथा कटवा से 21 कि.मी दक्षिण-पश्चिम में महाकुमार-मंगलकोट थानांतर्गत 'क्षीरग्राम' में स्थित है- 'युगाद्या शक्तिपीठ'। इस शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी 'युगाद्या' तथा भैरव 'क्षीर कण्टक' हैं। तंत्र चूड़ामणि के अनुसार यहाँ माता सती के दाहिने चरण का अँगूठा गिरा था-

'भूतधात्रीमहामाया भैरव: क्षीरकंटक:। युगाद्यायां महादेवी दक्षिणागुंष्ठ: पदो मम।' 


यहाँ माता सती को "भूतधात्री" तथा भगवन शिव को "क्षीरकंटक" अर्थात "युगाध" कहा जाता है। इसे 'क्षीरग्राम शक्तिपीठ' भी कहा जाता है। इस मंदिर में एक यात्री निवास भी है तथा यहाँ वर्धमान से बस द्वारा भी पहुँचा जा सकता है। त्रेता युग में अहिरावण ने पाताल में जिस काली की उपासना की थी, वह युगाद्या ही थीं।


 कहा जाता है कि अहिरावण की कैद से छुड़ाकर राम-लक्ष्मण को पाताल से लेकर लौटते हुए हनुमान देवी को भी अपने साथ लाए तथा क्षीरग्राम में उन्हें स्थापित किया। क्षीरग्राम की भूतधात्री महामाया के साथ देवी युगाद्या की भद्रकाली मूर्ति एक हो गई और देवी का नाम 'योगाद्या' या 'युगाद्या' हो गया। बंगला के अनेक ग्रंथों के अलावा 'गंधर्वतंत्र', 'साधक चूड़ामणि', 'शिवचरित' तथा 'कृत्तिवासी रामायण' में इस देवी का वर्णन मिलता है।





Wednesday, 12 January 2022

भगवान श्री राम के मृत्यु का कारण

भगवान श्री राम के मृत्यु वरण में सबसे बड़ी बाधा उनके प्रिय भक्त हनुमान जी थे.... क्योंकि हनुमान जी के होते हुए यम की इतनी हिम्मत नहीं थी की वो प्रभु श्री राम के पास पहुँच सके इसलिए स्वयं श्रीराम जी ने इसका हल निकाला.....

एक दिन, श्रीराम जान गए कि उनकी मृत्यु का समय हो गया था। *वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना पड़ता है। “यम को मुझ तक आने दो। मेरे लिए वैकुंठ, मेरे स्वर्गिक धाम जाने का समय आ गया है”, उन्होंने कहा.....* लेकिन मृत्यु के देवता यम अयोध्या में घुसने से डर रहे थे क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान जी से भय लग रहा था....

*यम के प्रवेश के लिए हनुमान को हटाना जरुरी था। इसलिए राम ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा। हनुमान जी ने स्वंय का स्वरुप छोटा करते हुए बिलकुल भंवरे जैसा आकार बना लिया और केवल उस अंगूठी को ढूढंने के लिए छेद में प्रवेश कर गए, वह छेद केवल छेद नहीं था बल्कि एक सुरंग का रास्ता था जो सांपों के नगर नाग लोक तक जाता था। हनुमान जी नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया......*
वासुकी... हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए जहां अंगूठियों का पहाड़ जैसा ढेर लगा हुआ था.... *“यहां आपको राम की अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा। हनुमान जी सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे क्योंकि ये तो भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन सौभाग्य से, जो पहली अंगूठी उन्होंने उठाई वो राम जी की अंगूठी थी। आश्चर्यजनक रुप से, दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम की ही अंगूठी थी। वास्तव में वो सारी अंगूठी जो उस ढेर में थीं, सब एक ही जैसी थी। “इसका क्या मतलब है...?” वह सोच में पड़ गए। वासुकी जी मुस्कुराए और बाले, “जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं। दूसरे भाग या त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है और पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसलिए यह सैकड़ो हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं.... अंगूठियां गिरती रहीं और इनका ढेर बड़ा होता रहा। भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां काफी जगह है”.......*

हनुमान जी जान गए कि उनका नागलोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात, कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। *यह राम का उनको समझाने का मार्ग था कि मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकेगा....... 🚩 "राम मृत्यु को प्राप्त होंगे....." हमारा जीवन समाप्त होगा.. 🚩 लेकिन हमेशा की तरह, यह संसार चलता रहेगा और हम भी जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं और रामजी भी पुनः जन्म लेंगे और हम भी...........* 


जय जय श्री राम


मृत्यू

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किसी सदस्य ने हमे कहा कि मृत्यु क्या है कृपा इस पर लिखे तो हम प्रयास कर रहे कि मृत्यु को शब्द दे सके किन्तु हमारे विचार से मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक झूठ है ..जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। 

जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं और रूप की बदलाहट को तुम मृत्यु समझ लेते हो। तुम बच्चे थे, फिर तुम जवान हो गए। बच्चे का क्या हुआ? बच्चा मर गया? अब तो बच्चा कहीं दिखायी नहीं पड़ता।

जवान थे, अब बूढ़े हो गए। जवान का क्या हुआ? जवान मर गया?  जवान अब तो कहीं दिखायी नहीं पड़ता। सिर्फ रूप बदलते हैं.. बच्चा ही जवान हो गया; जवान ही बूढ़ा हो गया और कल जीवन ही मृत्यु हो जाएगा।

यह सिर्फ रूप की बदलाहट है। दिन में तुम जागे थे, रात सो जाओगे। दिन और रात एक ही चीज के रूपांतरण हैं। जो जागा था, वही सो गया। बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। 

जब तक बीज में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे; फिर जन्म होगा। और गर्भ में नहीं पड़ोगे, तो महाजन्म होगा, तो मोक्ष में विराजमान होते।

मरता कभी कुछ भी नहीं। विज्ञान भी इस बात से सहमत है। विज्ञान कहता है. किसी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान कहता है पदार्थ अविनाशी है। एक रेत के छोटे से कण को भी विज्ञान की सारी क्षमता के बावजूद हम नष्ट नहीं कर सकते।

पीस सकते हैं, नष्ट नहीं कर सकते। पीसने से तो रूप बदलेगा। रेत को पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। उसको और पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। हम उसका अणु विस्फोट भी कर ‘सकते हैं। 

लेकिन अणु (molecule)टूट जाएगा, तो परमाणु (Atom )होंगे। रेत और पतली हो गयी।BUNDLE OF Energy.. हम परमाणु को भी तोड़ सकते हैं, तो फिर इलेक्ट्रान, पाजिट्रान(पोजीटिव इलेक्ट्रोन),फोटॉन (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन)  रह जाएंगे। 

रेत और पतली हो गयी,मगर नष्ट कुछ नहीं हो रहा है; सिर्फ रूप बदल रहा है। परमाणु के केन्द्र में नाभिक (न्यूक्लिअस) होता है जिसके चारो ओर इलेक्ट्रॉन  (एक ऋणात्मक विद्युत आवेश,आकार बहुत छोटा तथा सबसे हल्का) चक्कर लगाते रहते हैं।

नाभिक--प्रोटॉन  (धनात्मक आवेश..  तथा इलेक्ट्रान के द्रव्यमान के 1,839 गुना ) एवं न्यूट्रानों (अनावेशित,न्यूट्रल जो इलेक्ट्रान के द्रव्यमान के 1,839 गुना है) से बना होता है।

एक परमाणु के नाभिक/न्यूक्लिअस में... इलेक्ट्रॉन्स प्रोटॉन की ओर आकर्षित होता है जबकि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन  एक दूसरे को आकर्षित करते है।

न्यूक्लिअसरूपी  परंब्रह्म  के चारो ओर इलेक्ट्रान क्लाउड या नेगेटिव एनर्जी चक्कर लगाती  रहती हैं।न्यूक्लिअसरूपी परंब्रह्म प्रोटॉनरूपी पॉजिटिव एनर्जी एवं न्यूट्रानरूपी  न्यूट्रल एनर्जी-साम्यावस्था से अधिक नज़दीक हैं।

नेगेटिव एनर्जी- पॉजिटिव एनर्जी की ओर आकर्षित होती  है ;जबकि पॉजिटिव एनर्जी एवं  न्यूट्रल एनर्जी-एक दूसरे को आकर्षित करते है।

विज्ञान ने पदार्थ की खोज की, इसलिए पदार्थ के अविनाशत्व को जान लिया। धर्म कहता है – चेतना अविनाशी है, क्योंकि धर्म ने चेतना की खोज की और चेतना के अविनाशत्व को जान लिया।

विज्ञान और धर्म दोनों राजी हैं कि जो है, वह अविनाशी है। मृत्यु है ही नहीं। तुम सदा थे; ओर सदा रहोगे और अगर तुम जाग जाओ, अगर तुम चैतन्य से भर जाओ, तो तुम्हें सब दिखायी पड़ जाएगा कि , कब क्या थे।

गौतम बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों की कितनी ही कथाएं कही हैं । कभी जानवर थे; कभी पौधा , कभी पशु ;कभी पक्षी, कभी राजा, कभी भिखारी, कभी स्त्री, तो कभी पुरुष। जो जाग जाता है, उसे सारा स्मरण आ जाता है।

मृत्यु तो होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ पर्दे का गिरना है। तुम नाटक देखने गए और पर्दा गिरा। अब फिर तैयारी कर रहे होंगे। मेकअप करेंगे और फिर पर्दा उठेगा। शायद तुम पहचान भी न पाओ कि जो सज्जन थोड़ी देर पहले कुछ और थे, अब वे कुछ और हो गए हैं! 

बस,यही हो रहा है। इसलिए संसार को नाटक मंच कहा गया है। यहां रूप बदलते रहते हैं। फिर लौट आते हैं, बार -बार लौट आते हैं। मृत्यु एक भ्रान्ति है , धोखा है। पहले भी सब ऐसा ही था। फिर और फिर ऐसा ही होगा। 

यह दुनिया मिट जाएगी, तो दूसरी दुनिया पैदा होगी। यह पृथ्वी उजड़ जाएगी, तो दूसरी पृथ्वी बस जाएगी। तुम इस देह को छोड़ोगे, तो दूसरी देह में प्रविष्ट हो जाओगे। तुम इस चित्तदशा को छोड़ोगे, तो नयी चित्तदशा मिलती।

तुम अज्ञान छोड़ोगे, तो ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाओगे; मगर मिटेगा कुछ भी नहीं। मिटना होता ही नहीं। सब यहां अविनाशी है। अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। मृत्यु है ही नहीं और जो है ही नहीं, उसकी व्याख्या कैसे करें?

उदाहरण के लिए ये ऐसा ही है, जैसे तुमने रास्ते पर पड़ी रस्सी में भय के कारण सांप देखा। भागे, घबडाए, फिर कोई मिल गया, जो जानता है कि रस्सी है। उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और कहा मत घबड़ाओ, रस्सी है। तुम्हें ले गया; पास जाकर दिखा दी कि रस्सी है।

फिर क्या तुम उससे पूछोगे सांप का क्या हुआ? बात खतम हो गयी,क्योकि सांप था ही नहीं। रस्सी के रूप -रंग ने , सांझ के धुंधलके ने , तुम्हारे भीतर के भय ने तुम्हें भांति दे दी।

सारी भ्रांतियों ने मिलकर एक सांप निर्मित कर दिया। वह तुम्हारा सपना था। मृत्यु तुम्हारा सपना है। कभी घटा नहीं। घटता मालूम होता है। और इसलिए भ्रांति मजबूत बनी रहती है कि जो आदमी मरता है, वह तो विदा हो जाता है। वही जानता है कि' क्या है मृत्यु' जो मरता है।

तुम तो मर नहीं रहे ;केवल बाहर से खड़े देख रहे हो।एक डाक्टर कह सकता है कि मैंने सैकड़ों मृत्युएं देखी हैं। लेकिन ये गलत है। उसने सैकडों मरते हुए लोग देखे होंगे, लेकिन मरते हुए लोग देखने से क्या होता है।

तुम बाहर यही देख सकते हो कि सांस धीमी होती जाती है;  धड़कन डूबती जाती है। मगर यह मृत्यु थोड़े ही है। यह आदमी अब ठंडा हो गया, यही देखोगे। मगर इसके भीतर जो चेतना थी, कहां गयी?

उसने कहां पंख फैलाए? वह किस आकाश में उड गयी? वह किस द्वार से प्रविष्ट हो गयी? किस गर्भ में बैठ गयी? वह कहां गयी? क्या हुआ? उसका तो तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।

यह तो वही आदमी कह सकता है और मुर्दे कभी लौटते नहीं। जो मर गया, वह लौटता नहीं। और जो लौट आते हैं, उनकी तुम मानते नहीं। जैसे बुद्ध यही कह रहे हैं कि मैंने ध्यान में वह सारा देख लिया।

जो मौत में देखा जाता है। इसलिए तो ज्ञानी की कब्र को हम समाधि कहते हैं, क्योंकि वह समाधि को जानकर मरा। उसने ध्यान की परम दशा जानी। इसलिए हम संन्यासी को जलाते नहीं बल्कि गाड़ते हैं।

शायद तुमने सोचा ही न हो कि  'क्यों'? क्योंकि गृहस्थ को अभी फिर पैदा होना है। उसकी देह जल जाए, यह अच्छा हैं। क्योंकि देह के जलते ही उसकी आत्मा की आसक्ति इस देह में थी, वह मुक्त हो जाती है। 

जब जल ही गयी; खतम ही हो गयी, राख हो गयी—अब इसमें मोह रखने का क्या प्रयोजन है? वह उड़ जाता है। वह नए गर्भ में प्रवेश करने की तैयारी करने लगता है। पुराना घर जल गया, तो नया घर खोजता है।

संन्यासी तो जानकर ही मरा है। अब उसे कोई नया घर स्वीकार नहीं करना है। पुराने घर से मोह तो उसने मरने के पहले ही छोड़ दिया। अब जले-जलाए, मरे -मराए को जलाने से क्या सार।

इस आधार पर संन्यासी को हम जलाते नहीं, गाड़ते हैं। और उसकी कब्र को समाधि कहते हैं। इसीलिए कि वह ध्यान की परम अवस्था समाधि को पाकर गया है। वह मृत्यु को जीते जी जानकर गया है कि मृत्यु झूठ है।

जिस दिन मृत्यु झूठ हो जाती है, उसी दिन जीवन भी झूठ हो जाता है। क्योंकि वह मृत्यु और जीवन हमारे दोनों एक ही भांति के दो हिस्से हैं। जिस दिन मृत्यु झूठ हो गयी, उस दिन जीवन भी झूठ हो गया। 

उस दिन कुछ प्रगट होता है, जो मृत्यु और जीवन दोनों से अतीत है। उस अतीत का नाम ही परमात्मा है; जो न कभी पैदा होता, न कभी मरता, जो सदा है।मृत्यु कीमती चीज है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो संन्यास न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो धर्म न होता।

मृत्यु अपरिहार्य है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो परमात्मा का कोई स्मरण न होता, प्रार्थना न होती, पूजा न होती, आराधना न होती ; यह पृथ्वी दिव्य पुरुषों को तो जन्म ही न दे पाती, मनुष्यों को भी जन्म न दे पाती।

यह पृथ्वी पशुओं से भरी होती। मृत्यु ने ही झकझोरा। मृत्यु की बड़ी कृपा है, उसका बड़ा अनुग्रह है। बुद्ध को भी स्मरण आया था ..मृत्यु को ही देख कर। बुद्ध ने उसी रात घर छोड़ दिया,और क्रांति घट गई। 

जब मृत्यु होने ही वाली है, तो हो ही गई; तो जितने दिन हाथ में है.. इतने दिनों में हम उसको खोज लें जो अमृत है। दोस्तो विषय की भूमिका में ही लेख बन गया विषय का विस्तार नही कहा तो न्याय नही होगा।

तो हम इसको अगली कुछ पोस्टो में पूर्ण करते। क्रमशः

by Brijmohan sarda. 


कैंसर के कारक ग्रह - अनिल सुधांशु

कैंसर के कारक ग्रह !

 मानव शरीर में कैंसर की उत्पत्ति में कोशिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कोशिकाओं में श्वेत एवं लाल रक्त कण होते हैं। ज्योतिष में श्वेत रक्त कण का कारक कर्क राशि का स्वामी चंद्र तथा लाल रक्त कण का सूचक मंगल है। कर्क राशि का अंग्रेजी नाम कैंसर (cancer)  है तथा इसका चिह्न केकड़ा है। केकड़े की प्रकृति होती है कि, वह जिस स्थान को अपने पंजों से जकड़ लेता है, उसे अपने साथ लेकर ही छोड़ता है।

 इसलिए ज्योतिष में कैंसर जैसे भयानक रोग के लिए कर्क राशि के स्वामी चंद्र का विशेष महत्व है। इसी प्रकार रक्त में लाल कण की कमी होने पर प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है।

जन्म कुंडली में पाप ग्रहों का प्रभाव:---

जन्म कुंडली में जब एक भाव पर ही अधिकतर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, विशेषकर शनि, राहु व मंगल से तब उस संबंधित भाव वाले अंग में कैंसर रोग के होने की संभावना अधिक होती है। कैंसर रोग जिस दशा में होता है, उसके बाद आने वाली दशाओं का आंकलन किया जाना चाहिए। यदि यह दशाएँ शुभ ग्रहों की है या अनुकूल ग्रह की है या योगकारक ग्रह की दशा आती है, तब रोग का पता आरंभ में ही चल जाता है और उपचार भी हो जाता है !

- राहु को विष माना गया है, यदि राहु का किसी भाव या भावेश से संबंध हो एवं इसका लग्न या रोग भाव से भी सम्बन्ध हो तो शरीर में विष की मात्रा बढ़ जाती है।

- षष्टेश लग्न, अष्टम या दशम भाव मे स्थित होकर राहु से दृष्ट हो तो कैंसर होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

- बारहवें भाव में शनि-मंगल या शनि-राहु, शनि-केतु की युति हो तो जातक को कैंसर रोग देती है।

- राहु की त्रिक भाव या त्रिकेश पर दृष्टि हो भी कैंसर रोग की संभावना बढ़ाती है।

- षष्टम भाव तथा षष्ठेश पीडि़त या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थित हो।

- बुध ग्रह त्वचा का कारक है अत: बुध अगर क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो तथा राहु से दृष्ट हो तो जातक को कैंसर रोग होता है।

- बुध ग्रह की पीडि़त या हीनबली या क्रूर ग्रह के नक्षत्र में स्थिति भी कैंसर को जन्म देती है। बृहत पाराशरहोरा शास्त्र के अनुसार षष्ठ पर क्रूर ग्रह का प्रभाव स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद होता है।

- सभी लग्नों में कर्क लग्न के लोगों को सबसे ज्यादा खतरा इस रोग का होता है।

- कर्क लग्न में बृहस्पति कैंसर का मुख्य कारक है, यदि बृहस्पति की युति मंगल और शनि के साथ छठे, आठवे, बारहवें या दूसरे भाव के स्वामियों के साथ हो जाये व्यक्ति की मृत्यु कैंसर के कारण होना लगभग तय है।

- शनि या मंगल किसी भी कुंडली में यदि छठे या आठवे स्थान में राहू या केतु के साथ हों तो कैंसर होने की प्रबल सम्भावना होती है !

 विशेष आग्रह:--किस ग्रह के कारण कैंसर हुआ है, इसके लिए अपनी कुंडली की विधिवत विशेषण कराने के बाद उपरोक्त ग्रह का उपाय करें, निश्चित रूप से आपको लाभ होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है, क्योंकि ऐसी जान लेवा बीमारी, हमारे पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों का परिणाम होता है !

अनिल सुधांशु 

श्री गोरक्षनाथ जी की आरती



ऊँ जय गोरक्ष देवा, श्री स्वामी जय गोरक्ष देवा।सुर-नर मुनि जन ध्यावें, सन्त करत सेवा॥
ऊँ गुरुजी योगयुक्ति कर जानत, मानत ब्रह्म ज्ञानी।सिद्ध शिरोमणि राजत, गोरक्ष गुणखानी ॥1॥ 
जय ऊँ गुरुजी ज्ञान ध्यान के धारी, सब के हितका...री।गो इन्द्रिन के स्वामी, राखत सुध सारी ॥2॥ 
जय ऊँ गुरुजी रमते राम सकल, युग मांही छाया है नाहीं।घट-घट गोरक्ष व्यापक, सो लख घट माहीं ॥3॥ 
जय ऊँ गुरुजी भष्मी लसत शरीरा,रजनी है संगी।योग विचारक जानत, योगी बहु रंगी ॥4॥
 जय ऊँ गुरुजी कण्ठ विराजत सींगी-सेली, जत मत सुख मेली।भगवाँ कन्था सोहत, ज्ञान रतन थैली ॥5॥
 जय ऊँ गुरुजी कानन कुण्डल राजत, साजत रविचन्दा।बाजत अनहद बाजा, भागत दुख-द्वन्द्वा ॥6॥ 
जय ऊँ गुरुजी निद्रा मारो,काल संहारो, संकट के बैरी।करो कृपा सन्तन पर, शरणागत थारी ॥7॥ 
जय ऊँ गुरुजी ऐसी गोरक्ष आरती, निशदिन जो गावै।वरणै राजा 'रामचन्द्र योगी', सुख सम्पत्ति पावै ॥8॥

गगन मंडल पर उँधा कुआ जहा अमृत का बासा।सुगरा होए तो भर भर पीवे नुगरा जाए प्यासा - नरेश नाथ

गगन मंडल पर उँधा कुआ जहा अमृत का बासा।
सुगरा होए तो भर भर पीवे नुगरा जाए प्यासा।।

मतलब की गगन मंडल पे उलटा कुआ अब ये कुआ उलटा हैं तो इस उलटे कुए का अमृत तो वही पी सकता हैं जो समर्थ रखता हो यह सत्य हैं
 की खेचरी मुद्रा के दुवारा इस अमृत को पान किया जाता हैं पर इस मुद्रा के पहले कई काम होते हैं 
की खेचरी मुद्रा !चाचरी निधि ! अगोचरी बुद्धि ज्ञान का बटुवा निरत की सैली और संतोष सूत वीवेक धागा ।गोरक्षनाथ जी ने शुक्ष्म वेद का निर्माण की ये चार वेद आप जानते हो पर सूक्ष्म वेद पाचवा वेद हैं इसी वेद में वो अमर कथा हैं जो शिव ने शक्ति सुनाई ।। 
इस वेद के माध्यम से चौरासी सिद्धो का विस्तार हुआ और अमर तत्व को पाया ।।
सब बाते शब्दों की महिमा हैं हम कहना तो नहीं चाहते थे पर एक सवाल छोड़ता हु की ये सबद कहा निकलता हैं जिसे आप बोलते हो ।।
 सिर्फ ॐ जपने से कुछ नहीं होता आपको शांति मिल जाएगी पर उस वचन का क्या जो गर्भ में उस परमात्मा को दिया । हम को पता हैं की आपको यह बाते समझ नहीं आएँगी क्युकी एक तो वाणी और एक नाथ की व्याख्या सब उलट पलट पर यह बाते परस्पर उस वाणी से जुडी हैं जिसे आपने लिखा हैं क्युकी सबद का ताला लगा हैं जैसा आप इसे पड़ कर सोचेंगे वेसा ही भरथरी बाबा ने गोरक्षनाथ जी शब्द सुनने के बाद सोचा था क्या ये पागल है बाबा। क्युकी

सबद ही कुची सबद ही ताला सबदे सबद घट में हो उजियाला। 
काटे बिन काटा नहीं निकले कुंजी बीन खुले नहीं ताला।।।

वेद पुराण मजल नहीं पुग्या नहीं पुग्या पंडित काजी ।।
साचा संत हरिजन पुग्या अमर नाम रोप बाजी। 

***************नरेश नाथ**************

Tuesday, 11 January 2022

16 सिद्धियाँ


1. वाक् सिद्धि : - 👇

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-👇

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

3. प्रज्ञा सिद्धि : -👇

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.

 4. दूरश्रवण सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.

 5. जलगमन सिद्धि:-👇

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.

 6. वायुगमन सिद्धि :-👇

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.

 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-👇

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.

 8. विषोका सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.

 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-👇

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.

10. कायाकल्प सिद्धि:-👇

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.

11. सम्मोहन सिद्धि :-👇

 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.

 12. गुरुत्व सिद्धि:-👇

 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.

 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-👇

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.

 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-👇

  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.

 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-👇

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.

16. अनुर्मि सिद्धि:-👇

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.

योग

आज का मनुष्य मानसिक तनावों से जर्जर होता हुआ  संतोष और आनन्द  की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, शांति  का अहसास महसूस करने के लिए उतावला हो रहा है, वह अपनी जीवन बगिया के आसपास से स्वार्थ, क्रोध, कटुता, इर्षा, घृणा के काँटों को दूर कर देना चाहता है, उसे अपने इस जीवन रूपी उद्यान में सुगंध लानी है।

उसे उस मार्ग की तलाश है जो उसे शरीर से दृढ़ और बलवान बनाये, बुध्दि से प्रखर और पुरुषार्थी बनाये, भौतिक लक्ष्यों की पूर्ति करते हुए उसे आत्मवान बनाये, निश्चित रूप से ऐसा मार्ग है, इसे भारत के एक महर्षि पतंजली ने योगदर्शन का नाम दिया है, योगदर्शन एक मानवतावादी सार्वभौम संपूर्ण जीवन दर्शन है, भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है।

इस भौतिकवादी , क्लेशमय जीवन में योग की सबसे अधिक आवश्कता है, थोड़ा-सा नियमित आसन और प्राणायाम हमें निरोगी तथा स्वस्थ रख सकता है, यम-नियमों के पालन से हमारा जीवन अनुशासन से प्रेरित हो चरित्र में अकल्पनीय परिवर्तन आ सकता है, धारणा एवं ध्यान के अभ्यास से वह न केवल तनावरहित होगा वरन कार्य-कुशलता में पारंगत भी हो पायेगा।

हम अपने उत्थान के साथ-साथ समाज तथा राष्ट्र के उत्थान में भी सहभागी हो सकेंगे, सज्जनों! बाबा रामदेवजी का कहना कितना सही है, ”जो रोज करेगा योग, उसे नहीं होगा कोई रोग“ योग न केवल शारीरिक क्रियाओं  को  सही करता है, वरन् आपके आध्यात्मिक विकास में भी सहायक होता है, जिसके चलते हम किसी भी बात पर अपना ध्यान केन्द्रित करना सिख जाते हैं, इस कारण हमारी साँस लेने की प्रक्रिया भी सही हो जाती है।

हमारे जीवन में काफ़ी स्थिरता, ठहराव तथा समज-शक्ति का अनायश ही उद्भव होता दिखाई देता है, हमारा शरीर दिन-प्रतिदिन सुडौल और स्फूर्तिदायी बनता जाता है, आलस हम से कोसों दूर भाग जाता है, एक नई उमंग, नया जोश हमारे अंदर उभरने लगता है, ये ही वजह रही होगी इस महामुल्य वाक्यों की जो स्वामी विवेकानंदजी ने कहे थे।

स्वामी विवेकानंदजी ने कहा था- मानव जाती को विनाश से बचाने के लिए और विश्वास की और अग्रसर करने के लिये यह अत्यावश्यक है कि प्राचीन संस्कृति भारत में फिर से स्थापित की जाये जो अनायास ही फिर सारी दुनिया में प्रचलित होगी, यह उपनिषद और वेदांत पर आधारित संस्कृति ही आंतर-राष्ट्रिय स्तर पर एक मजबूत नींव बनकर उभरेगी 

आज हम देख भी रहे हैं कि दूरदर्शन एवं शिबिर-केन्द्रों के माध्यमों से सारी दुनिया योग की दिवानी बनी दिखाई दे रही है, योग ही तो है जिसने हमे भीतरी और बाहरी प्रकृति को वश में करना सिखाया, आज हम जान गये हैं कि खुद हृष्ट-पृष्ट रहना है तथा दूसरों को भी  हृष्ट-पृष्ट बने रहना सिखाना है, यों देखा जाये तो हमारी भगवत-गीता भी तो अपने आप में योग की एक परम पाठ्य पुस्तक ही तो है।

मुल्त: भगवान् श्री कृष्णा द्वारा अर्जुन को सांख्ययोग  तथा कर्मयोग के बारे में ज्ञान देना क्या योग नहीं है? भगवत-गीता का हर आध्याय कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, त्यागयोग, ध्यानयोग का ही तो परिचायक रहा है, इन्हीं सिध्धान्तिक योगों  के माध्यम से ही तो अर्जुन अपने  शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, भावनात्मक एवम् आध्यात्मिक पहलुओं को पहचान पाये थे, सफलता और विफलता का पथ देख पाये थे, विषम मन: स्तिथि में अपना संतुलन बना पाये थे।

सुबह सूर्यनमस्कार करने का जो हमारे शास्त्रों में कहा गया है, वह सभी आसनों का पर्याय ही तो है, हर धर्म पुस्तक में मन की शांति के लिए योग का कहीं न कहीं उपयोग देखा ही जाता है, आधुनिक युग में योग का महत्व और भी बढ़ गया है, क्योंकि?  हमारी व्यस्तता और भागदौड़ भरी ज़िदगी ने हमे रोगों से घेर दिया है, आज हम देख रहें हैं कि मधुमेह, रक्तचाप, सिर-दर्द, छोटी उम्र में बालों का सफेद होना जैसे आम रोग देखे जा सकते हैं।

अत्यधिक तनाव, प्रदुषण, कमाने की चिंता इत्यादि ने इन्सान को रोगग्रस्त बना दिया है, आज युवाओं में कम महेनत में ज्यादा पाने की होड़ ने उन्हें अविवेकी बना दिया है और इसी के चलते नौकरी प्रतिस्पर्धा का दूषण बन कर रह गई है जो बेवजह ही युवाओं में एक कुंठा को जन्म दे रही है, उन्हें कम उम्र में ही तनावग्रस्त कर रही है, हर व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है, ऊँचाइयों को छुना चाहता है, वैभवी बनना चाहता है 

ये सब पाने के लिए उसे आंतरिक उर्जा चाहिए और इसका एक ही सशक्त मार्ग है योग, योग व्यायम नहीं है, योग सम्पूर्ण विज्ञान है, हमारे  पूर्वजों ने शरीर को एक मन्दिर मानकर उसकी नियमित पूजा कैसे की जाये उसका पूरा-पूरा विधान बताया है, योग का अर्थ ही जोड़ना होता है, हमारा शरीर पाँच इन्द्रियों के समन्वय से ही कार्य करता है, कान, त्वचा, आँख, जीभ व नाक क्रमश: एक दूजे के पूरक हैं।

अगर नाक द्वारा शुद्ध हवा को सही तरीके से ली जाये तो शरीर की और सारी इन्द्रियां जुड़ कर अपना-अपना कार्य व्यवस्थित करने लगती है, शरीर को पूर्ण मात्र में उर्जा प्रदान करती है; कितना सरल उपाय है, ये जो साँस की रिधम है, उसी को “प्राणायाम” कहते हैं, प्राणायाम योग की एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसको आपना कर हम बिना पैसे खर्च किये अपने आप को निरोगी रख सकते हैं।

"हिंग लगे न फटकरी, रंग चढ़े चौखा" बस अपने आप को इसके लिए तैयार करने भर की जरूरत है, ये नियम आप को रोगों से तो बचायेगा ही साथ ही आपके आत्म-विश्वास को भी बढ़ायेगा, भाई-बहनों, आखिर में मैं यह कहना चाहूंगा कि योग एक ऐसी अमूल्य औषधि है जो बिना मूल्य आप को स्वस्थता प्रदान कर सकती है, आप को शक्तिवर्धक बना सकती है, आप का आत्मविश्वास बढ़ा सकती है।

प्रात: जल्दी उठें और  योग करें, योग के महत्व को समझे, और जीवन में उसे अपनायें, योग से आपको कभी डाॅक्टर के पास नहीं जाना पड़ेगा, योग और प्राणायाम करने से आपको कभी दवाई नहीं खानी पड़ेगी, इसलिये प्रतिदिन प्रात: एक घंटा तक नियमित योग करों और फिर पूरे दिन कर्म योग करों, आज रविवार के पावन दिवस की पावन सुप्रभात आप सभी को मंगलमय् हों।

योग है जीवन की धारा, जिसने जाना, उसने माना, 
सबका योग ने जीवन तारा, रोगों से हों मुक्त सभी,
ये बिनती मेरी आपसे अभी, करो योग रहो निरोग!


चेतना की सात अवस्थाएँ


1. जागृति ---- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता। यह एक प्रकार का स्वप्न-लोक ही है। जब हम अतीत की किसी यद् में खोए हुए रहते हैं, तो हम स्मृति-लोक में होते हैं। यह भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है।
तो, वर्तमान में रहना ही, ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।
2. स्वप्न------ स्वप्न की चेतना एक घाल-मेली चेतना है।
जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था, थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से। अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है।
3. सुषुप्ति----- सुषुप्ति की चेतना निष्क्रिय अवस्था है
चेतना की यह अवस्था हमारी इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। इस अवस्था में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को रोक कर विश्राम में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना।
4. तुरीय----- तुरीय का अर्थ होता है "चौथी"।
चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। इसका कोई गुण नहीं होने के कारण इसका कोई नाम नहीं है। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसकी संख्या से संबोधित कर लेते हैं। नाम होगा, तो गुण होगा नाम होगा तो रूप भी होगा। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है न ही कोई रूप।यह निर्गुण है, निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक यात्रा।
5. तुरीयातीत--------चेतना की पाँचवी अवस्था : तुरीय के बाद वाली
यह अवस्था जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म इसी अवस्था में संभव हो पाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था "योगस्थः कुरु कर्मणि" योग में स्थित हो कर कर्म करो! इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों? अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि "कर्म तो होगा परन्तु संस्कार नहीं बनेगा।" इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए न जीवन रहते जीवन-मुक्त। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।
6. भगवत चेतना------- बस मैं और तुम वाली चेतना।
चेतना की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है। भक्त को सारा संसार भगवन-मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने कहा था "जित देखौं तित श्याम-मई है"। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।
7. ब्राह्मी-चेतना------- एकत्व की चेतना
चेतना की इस अवस्था में भक्त और भगवन का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का लोप हो जाता है। अवस्था में साधक कहता है "अहम् ब्रह्मास्मि" मैं ही ब्रह्म हूँ।

अन्नपूर्णेचे महत्त्व

अन्नपूर्णेचे महत्त्व.


 अन्नपूर्णा या देवतेला एक अनन्यसाधारण असे महत्त्व आहे. विशेषतः मी दत्तसंप्रदायात असल्यामुळे जेव्हा श्रीदत्ताला नैवेद्य दाखवला जातो ,त्यानंतर लगेच अन्नपूर्णेलाही दाखवला जातो. मला हे नेहमी कोडं पडायचे की अन्नपूर्णेला एवढे महत्त्व का दिले जाते.शेवटी मी अन्नपूर्णे संबंधी जेवढी माहिती मिळेल ती सर्व मिळवण्याचा प्रयत्न केला. यासंबंधी शंकर पार्वतीची कथा प्रसिद्ध आहे. अन्नाचे एवढे महत्त्व श्री शंकराला ही मान्य नव्हते. दोघांचा वाद झाला आणि पार्वती रुसून निघून गेली. पार्वती म्हणजे प्रत्यक्ष अन्नपुर्णाच. तीच निघून गेल्यामुळे जगात सर्वत्र हाहा:कार माजला. अन्न नसल्यामुळे लोकांचे हाल सुरू झाले शेवटी पार्वतीलाच दया आली आणि ती अन्नपूर्णेच्या स्वरूपात काशीला अवतीर्ण झाली. तिने अन्नदान सुरू केले. भगवान श्रीशंकरालाही मधली सगळी परिस्थिती अनुभवाला आल्यामुळे अन्नाचे महत्त्व समजले आणि ते स्वतः कटोरा घेऊन पार्वतीकडे भिक्षा मागायला आले. अन्नपूर्णेचे पहिले मंदिर त्यामुळेच काशीला आहे.

               जीवनात अन्नाला अनन्यसाधारण महत्त्व आहे. समस्त प्राणीमात्र अन्नाशिवाय जगू शकत नाहीत. अन्न शरीराला शक्ती पुरवते आणि जीवनाची नवी उमेद सतत देत राहते. अन्न खाल्ले की शरीराला एक प्रकारचे समाधान मिळते .म्हणूनच अन्नदानाला अनन्यसाधारण महत्त्व दिले गेले आहे. ते अन्न सुग्रास असले पाहिजे. अन्न  बनवणाऱ्याची मनस्थिती समाधानी असली पाहिजे. त्यांनी ते अन्न समाधानानी बनवले असले पाहिजे. तेच पदार्थ घेऊन वेगवेगळ्या लोकांनी बनवलेल्या अन्नाची चव वेगवेगळी असते. याचे कारणच हे की अन्न बनवणाऱ्याच्या वासना आणि मनस्थिती त्या अन्नात उतरत असते. म्हणून घरच्या अन्नपूर्णेला नेहमी समाधानात ठेवले गेले पाहिजे. तिने शुचिर्भूत होऊन अन्न शिजवले पाहिजे.आपल्याकडे मुलीला सासरी जाताना अन्नपूर्णेची मूर्ती त्यासाठीच दिली जाते. तिने अन्नपूर्णेची सेवा , उपासना करून, उत्तम अन्न कुटुंबियांना खायला घालून कुटुंब सुखी करावे अशी अपेक्षा त्यामागे असते.
               मध्यंतरीच्या काळामध्ये मी मुद्दाम अन्नपूर्णेची उपासना केली आणि मग लक्षात आले की नुसती उपासना उपयोगी नाही .तिची प्रत्यक्ष सेवा केली पाहिजे. म्हणून मी स्वतः वेगवेगळे पदार्थ बनवण्यास सुरुवात केली आणि कोणताही पूर्वानुभव नसताना सुद्धा ह्या सर्व पाककृती अतिशय छान सराईतासारख्या केल्या गेल्या.जणू अन्नपूर्णादेवीच माझ्या हातातून काम करत होती.
            
               आपल्या अनेक वासना या अन्नाद्वारे पूर्ण होत असतात .मी पुष्कळ संन्याशीहि असे पाहिले आहेत की ज्यांच्या वासना अन्नात अडकून बसलेल्या असतात. खाण्याच्या अनेक इच्छा अपूर्ण असतात. शरीर आहे तिथे वासना असणारच. त्या पूर्ण झाल्याशिवाय संपत नाहीत. मित्रमंडळ जमा करून चिवड्याचा ढीगच्या ढीग फस्त करताना कसा आनंद मिळतो हे अनेकांनी अनुभवले असेल. शेवटी जीवन हे आनंद निर्मिती साठीच आहे .छोट्या छोट्या गोष्टीत सुद्धा खूप आनंद भरला आहे, परंतु आपल्याला त्याची कल्पनाच नसल्यामुळे तो आनंद आपण घेत नाही.
               अन्नामुळे शरीरात चैतन्य उत्पन्न होते .अगदी शरीर सोडल्यानंतर सुद्धा या चैतन्याची आवश्यकता लिंग देहाला असते. उत्तम अन्न हे शरीराला समाधान प्राप्त करून देते. शुचिर्भूत होऊन आनंदी वृत्तीने स्वयंपाक करण्याची आवश्यकता आहे आणि ते वातावरण घरातल्या सर्व लोकांनी निर्माण करून द्यावे. त्या अन्नात प्रेम असते. म्हणूनच आईच्या हातचे अन्न आपल्याला सगळ्यात गोड वाटते. केलेला स्वयंपाक हा आपण प्रत्यक्ष परमेश्वरासाठी करतो ही भावना करून जर केला तर तो अतिशय उत्तम होतो.म्हणूनच नैवेद्याचे अन्न हे अतिशय चविष्ट असते .उत्तम संसार करून सर्व प्रकारच्या वासना भोगून पूर्ण केल्या पाहिजेत. तेव्हाच माणूस परमेश्वर चिंतनाकडे वळू शकतो. असमाधानी माणूस ध्यानधारणा करू शकत नाही. आपले सर्व ऋषी-मुनी हे विवाहित दाखवले आहेत आणि सर्व प्रकारचे भोग भोगून वासनाक्षय करूनच ते पूर्णत्वाला पोहोचले आहेत. 
म्हणूनच शंकराचार्य 
म्हणतात--
'अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राण वल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं
भिक्षांदैहि च पार्वती।।
 *सर्व अन्नपूर्णाना  समर्पित*  

              🙏🕉️🙏

Monday, 10 January 2022

52 शक्तिपीठ



52 शक्तिपीठ

ये देश भर में स्थित देवी के वो मंदिर है जहाँ देवी के शरीर क़े अंग या आभूषण गीरे थे। सबसे ज्यादा शक्ति पीठ बंगाल में है। शक्तिपीठों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी आप हमारे पिछले लेख 51 शक्ति पीठ पर प्राप्त कर सकते है।

बंगाल के शक्तिपीठ
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1. काली मंदिर – कोलकाता
2. युगाद्या- वर्धमान (बर्दमान)
3. त्रिस्त्रोता- जलपाइगुड़ी
4. बहुला- केतुग्राम
5. वक्त्रेश्वर- दुब्राजपुर
6. नलहटी- नलहटी
7. नन्दीपुर- नन्दीपुर
8. अट्टहास- लाबपुर
9. किरीट- बड़नगर
10. विभाष- मिदनापुर

मध्यप्रदेश के शक्तिपीठ
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12. हरसिद्धि- उज्जैन
13. शारदा मंदिर- मेहर
14. ताराचंडी मंदिर- अमरकंटक

तमिलनाडु के शक्तिपीठ
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15. शुचि- कन्याकुमारी
16. रत्नावली- अज्ञात
17. भद्रकाली मंदिर- संगमस्थल
18. कामाक्षीदेवी- शिवकांची

बिहार के शक्तिपीठ
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19. मिथिला- भारत-नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट 
20. वैद्यनाथ- बी. देवघर
21. पटनेश्वरी देवी- पटना
22.सर्वानन्दकरी-मगध

उत्तरप्रदेश के शक्तिपीठ
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23. चामुण्डा माता- मथुरा
24. विशालाक्षी- मीरघाट
25. ललितादेवी मंदिर- प्रयाग

राजस्थान के शक्तिपीठ
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26. सावित्रीदेवी- पुष्कर
27. वैराट- जयपुर

गुजरात के शक्तिपीठ
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28. अम्बिक देवी मंदिर- गिरनार
28. भैरव पर्वत- गिरनार

आंध्रप्रदेश के शक्तिपीठ
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29. गोदावरीतट- गोदावरी स्टेशन
30. भ्रमराम्बादेवी- श्रीशैल

महाराष्ट्र के शक्तिपीठ
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31. करवीर- कोल्हापुर
32. भद्रकाली- नासिक

कश्मीर के शक्तिपीठ
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33. श्रीपर्वत- लद्दाख
34. पार्वतीपीठ- अमरनाथ गुफा

पंजाब के शक्तिपीठ
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35. विश्वमुखी मंदिर- जालंधर

उड़ीसा के शक्तिपीठ
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36. विरजादेवी- पुरी

हिमाचल प्रदेश के शक्तिपीठ
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37. ज्वालामुखी शक्तिपीठ- कांगड़ा

असम के शक्तिपीठ
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38. कामाख्यादेवी- गुवाहाटी

मेघालय के शक्तिपीठ
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39. जयंती- शिलांग

त्रिपुरा के शक्तिपीठ
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40. राजराजेश्वरी त्रिपुरासुंदरी- राधाकिशोरपुर

हरियाणा के शक्तिपीठ
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41. कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ- कुरुक्षेत्र

42. कालमाधव शक्तिपीठ- अज्ञात

नेपाल के शक्तिपीठ
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43. गण्डकी- गण्डकी

44. भगवती गुहेश्वरी- पशुपतिनाथ

पाकिस्तान के शक्तिपीठ
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45. हिंगलाजदेवी- हिंगलाज

श्रीलंका के शक्तिपीठ
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46. लंका शक्तिपीठ- त्रिंकोमाली

तिब्बत के शक्तिपीठ
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47. मानस शक्तिपीठ- मानसरोवर

बांगलादेश के शक्तिपीठ
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48. यशोर- जैशौर

49. भवानी मंदिर- चटगांव

50. करतोयातट- भवानीपुर

51. उग्रतारा देवी- बारीसाल

52 वीं पंचसागर शक्तिपीठ है। 
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12 ज्योतिर्लिंग, 7 सप्तपुरी और 4 धाम

12 ज्योतिर्लिंग, 
7 सप्तपुरी और 
4 धाम

हमारा देश भारत में यूँ तो अनेकों तीर्थ है पर इनमें जो सबसे प्रमुख माने जाते है वो है  बारह ज्योतिर्लिंग, सात सप्तपुरी और चार धाम।

पुराणों के अनुसार इन्हीं 12 जगहों पर भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए।

1. सोमनाथ
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यह शिवलिंग गुजरात के सौराष्ट्र में स्थापित है।

2. श्री शैल मल्लिकार्जुन
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मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग।

3. महाकाल
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उज्जैन में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था।

4. ओंकारेश्वर ममलेश्वर
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मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदान देने यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।

5. नागेश्वर
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गुजरात के दारूका वन के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।

6. बैद्यनाथ
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झारखंड के देवघर में बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग।

7. भीमाशंकर
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महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग।

8. त्र्यंम्बकेश्वर
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नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।

9. घुष्मेश्वर
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महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग।

10. केदारनाथ
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हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। उत्तराखंड में स्थित है।

11. विश्वनाथ
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बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग।

12. रामेश्वरम्‌
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त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग।

7 सप्तपुरी
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सनातन धर्म सात नगरों को बहुत पवित्र मानता है जिन्हें सप्तपुरी कहा जाता है।

1. अयोध्या,
2. मथुरा,
3. हरिद्वार,
4. काशी,
5. कांची,
6. उज्जैन
7. द्वारका

चारधाम
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चारधाम की स्थापना आद्य शंकराचार्य ने की। उद्देश्य था उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चार दिशाओं में स्थित इन धामों की यात्रा कर मनुष्य भारत की सांस्कृतिक विरासत को जाने-समझें।

1. बदरीनाथ धाम
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कहां है- उत्तर दिशा में हिमालय पर अलकनंदा नदी के पास
प्रतिमा- विष्णु की शालिग्राम शिला से बनी चतुर्भुज मूर्ति। इसके आसपास बाईं ओर उद्धवजी तथा दाईं ओर कुबेर की प्रतिमा।

2. द्वारका धाम
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कहां है- पश्चिम दिशा में गुजरात के जामनगर के पास समुद्र तट पर।
प्रतिमा- भगवान श्रीकृष्ण।

3. रामेश्वरम
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कहां है- दक्षिण दिशा में तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में समुद्र के बीच रामेश्वर द्वीप।
प्रतिमा- शिवलिंग

4. जगन्नाथपुरी
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कहां है- पूर्व दिशा में उड़ीसा राज्य के पुरी में।
प्रतिमा- विष्णु की नीलमाधव प्रतिमा जो जगन्नाथ कहलाती है। सुभद्रा और बलभद्र की प्रतिमाएं भी।


रुद्राक्ष के लाभ

पांच मुखी रुद्राक्ष सभी रुद्राक्षों में से सबसे लोकप्रिय रुद्राक्ष है। यह रुद्राक्ष समृद्धि और जीवन में सफलता का प्रतीक है। सभी रुद्राक्षों में से 5 मुखी रुद्राक्ष सबसे ज्यादा पैदा होता है। नेपाल में सबसे अच्छी गुणवत्ता का रुदाक्ष पाया जाता है। यह भगवान शिव के काल अग्नि रुद्र रुप से शासित है। यह व्यक्ति को जीवन के सभी प्रकार के अवांछित बंधनों से मुक्त करने के लिए और समय के साथ पहनने वाले की इच्छांओं पूरा करता है। यह पहनने वाले के आसपास की सभी नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर देता क्योंकि यह भगवान शिव की शक्ति से ओत-प्रोत है।
पांच मुखी रुद्राक्ष व्यक्ति को अ-समय मृत्यु से बचाता है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष व्यक्ति को निडर बनाता है। 

इसके अलावा यह रुद्राक्ष पहनने वाला व्यक्ति आलस और अनिद्रा के चंगुल से दूर होता है। 

बृहस्पति के क्रूर प्रभाव को कम करने के लिए पंचमुखी रुद्राक्ष सहायक साबित होता है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष को धारण करने से व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष व्यक्ति को तनाव मुक्त बनाता है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष व्यक्ति के जीवन में नकारात्मकता को दूर कर सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष पहनने से व्यक्ति की बुद्धि प्रखर होती है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष विद्वानों, लेखकों, पत्रकारों और ऐसे व्यवसाय से संबंधित लोगों के लिए बेहद ही उपयोगी साबित होता है। 

पांच मुखी रुद्राक्ष को धारण करने से एकाग्रता और याददाश्त अच्छी होती है। 

राजा जनमेजय का नाग यज्ञ


जनमेजय अर्जुन के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे। जनमेजय की पत्नी वपुष्टमा थी, जो काशीराज की पुत्री थी। बड़े होने पर जब जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का कारण सर्पदंश जाना तो उसने तक्षक से बदला लेने का उपाय सोचा। जनमेजय ने सर्पों के संहार के लिए सर्पसत्र नामक महान यज्ञ का आयोजन किया। नागों को इस यज्ञ में भस्म होने का शाप उनकी मां कद्रू ने दिया था।

 नागगण अत्यंत त्रस्त थे। समुद्र मंथन में रस्सी के रूप में काम करने के उपरान्त वासुकी ने सुअवसर पाकर अपने त्रास की गाथा ब्रह्मा से कही। उन्होंने कहा कि ऋषि जरत्कारू का पुत्र धर्मात्मा आस्तीक सर्पों की रक्षा करेगा, दुरात्मा सर्पों का नाश उस यज्ञ में अवश्यंभावी है। अत: वासुकि ने एलायत्र नामक नाग की प्रेरणा से अपनी वहन जरत्कारू का विवाह ब्राह्मण जरत्कारू से कर दिया था। उनके पुत्र का नाम 'आस्तीक' रखा गया।

ब्राह्मण काल के अंत में उत्पन्न कुरु वंश के राजा जनमेजय को अनेक अश्वों का स्वामी बताया गया है। आसंदीवत्र उसकी राजधानी थी। पापमुक्त होने के लिए उसके पौत्रों ने अश्वमेध यज्ञ किया था। शौनक ऋषि इस यज्ञ के पुरोहित थे।

वैदिक साहित्य में अनेक जनमेजयों का उल्लेख मिलता है। इनमें प्रमुख जनमेजय कुरु वंश का राजा था। महाभारत युद्ध में अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जिस समय मारा गया, उसकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भ में राजा परीक्षित का जन्म हुआ जो युद्ध के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठा। जनमेजय इसी परीक्षित का पुत्र था।

 उपलब्ध विवरण के अनुसार एक बार परीक्षित ने शिकार खेलते समय एक मौन ध्यानस्थ ऋषि शमीक से पानी मांगा। मौन साधना के कारण कोई उत्तर न पाकर क्रुद्ध राजा ने उन्हें ढोंगी समझा और एक मरा हुआ सर्प उनके गले में डाल दिया। ऋषि शमीक के पुत्र श्रृंगी ऋषि को इसका पता चला तो उसने शाप दे दिया जिससे सातवें दिन तक्षक सर्प के काटने से राजा परीक्षित की मृत्यु हो गई। इसी का बदला लेने के लिए जनमेजय ने पहले तक्षशिला को जीता, फिर नाग-यज्ञ किया जिसमें सर्प यज्ञकुंड में पड़ कर मरने लगे।

राजा परिक्षित् एक बार शिकार खेलने जाकर एक ऋषि का अपराध कर बैठे। इसके फल-स्वरूप उन्हें साँप से डसे जाकर मरने का शाप मिला। शाप का हाल सुनकर काश्यप नामक एक सर्प-विष-चिकित्सक (ओझा) राजा से मिलने को चला। उसने सोचा कि राजा को साँप के डँसते ही, मैं मंत्र और ओषधि के द्वारा चंगा करके मालामाल हो जाऊँगा। 

रास्ते में उससे तक्षक की भेंट हो गई। उसने ओझा के मंत्र की परीक्षा की और उसे ठीक पाया। तब उसने काश्यप से कहा कि राजा का विष उतारने के झगड़े में तुम क्यों पड़ते हो। तुम्हें सम्पदा चाहिए सो मैं यहीं दिये देता हूँ। तक्षक ने बहुत-सी सम्पत्ति देकर काश्यप को लौटा दिया और जाकर राजा को डँस लिया।

जनमेजय को ऋषि के शाप से किसी प्रकार की कुढ़न न थी। उन्हें दुख इस बात का था कि दुष्ट तक्षक ने काश्यप को रास्ते से ही क्यों लौटा दिया। उसके इस अपराध से चिढ़कर जनमेजय ने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने के लिए सर्पयज्ञ अनुष्ठान ठान दिया। अब क्या था, लगातार सर्प आ-आकर हवन-कुण्ड में गिरने लगे। अपराधी तक्षक डर के मारे इन्द्र की शरण में पहुँचा। अंत में अपनी रक्षा न देख इन्द्र ने भी उसका साथ छोड़ दिया।

 इधर वासुकी ने जब अपने भानजे, जरत्कारु मुनि के पुत्र, आस्तीक से नाना के वंश की रक्षा करने का अनुरोध किया तब वे जनमेजय के यज्ञस्थल में जाकर यज्ञ की बेहद प्रशंसा करने लगे। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उनको मुँहमाँगी वस्तु देने का वचन दिया। इस पर आस्तीक ने प्रार्थना की कि अब आप इस यज्ञ को यहीं समाप्त कर दें। ऐसा होने पर सर्पों की रक्षा हुई। राजा जनमेजय की रानी का नाम वसुष्टमा था। यह काशिराज सुवर्णवर्मा की राजकुमारी थी।

वास्तव में अपराधी तक्षक नाग था, उसी को दण्ड देना राजा जनमेजय का कर्तव्य था। किंतु क्रोध में आकर उन्होंने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने का बीड़ा उठाया जो अनुचित था। एक के अपराध के लिए बहुतों को दण्ड देना ठीक नहीं। जिसने अपराध किया था और जिस दण्ड देने के लिए इतनी तैयारियाँ की गई थीं वह तक्षक अंत में बेदाग़ बच गया। यह आश्चर्य की बात है।

जनमेजय ने सर्पसत्र प्रारंभ किया। अनेक सर्प आह्वान करने पर अग्नि में गिरने प्रारंभ हो गये, तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण ग्रहण की। वह इन्द्रपुरी में रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल भी पहुंचा तथा भांति-भांति से यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की। इन्द्र तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां तक आये। 

यज्ञ का विराट रूप देखकर वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में चले गये। विद्वान ब्राह्मण बालक, आस्तीक, से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा, अत: तक्षक बच गया क्योंकि उसने अभी अग्नि में प्रवेश नहीं किया था। नागों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वर दिया कि जो भी इस कथा का स्मरण करेगा- सर्प कभी भी उसका दंशन नहीं करेंगे।

जनमेजय को अनजाने में ही ब्रह्म-हत्या का दोष लग गया था। उसका सभी ने तिरस्कार किया। वह राज्य छोड़कर वन में चला गया। वहां उसका साक्षात्कार इन्द्रोत मुनि से हुआ। उन्होंने भी उसे बहुत फटकारा। जनमेजय ने अत्यंत शांत रहते हुए विनीत भाव से उनसे पूछा कि अनजाने में किये उसके पाप का निराकरण क्या हो सकता है तथा उसे सभी ने वंश सहित नष्ट हो जाने के लिए कहा है, उसका निराकरण कैसे होगा? इन्द्रोत मुनि ने शांत होकर उसे शांतिपूर्वक प्रायश्चित्त करने के लिए कहा। उसे ब्राह्मणों की सेवा तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए कहा। जनमेजय ने वैसा ही किया तथा निष्पाप, परम् उज्ज्वल हो गया। 

परीक्षित-पुत्र जनमेजय सुयोग्य शासक था। बड़े होने पर उसे उत्तंक मुनि से ज्ञात हुआ कि तक्षक ने किस प्रकार परीक्षित को मारा था जिस प्रकार रूरू ने अपनी भावी पत्नी को आधी आयु दी थी वैसे परीक्षित को भी बचाया जा सकता था। मन्त्रवेत्ताकश्यप कर्पंदंशन का निराकरण कर सकते थे पर तक्षक ने राजा को बचाने जाते हुए मुनि को रोककर उनका परिचय पूछा। उनके जाने का निमित्त जानकर तक्षक ने अपना परिचय देकर उन्हें परीक्षा देने के लिए कहा। तक्षक ने न्यग्रोध (बड़) के वृक्ष को डंस लिया।

 कश्यप ने जल छिड़ककर वृक्ष को पुन: हरा-भरा कर दिया। तक्षक ने कश्यप को पर्याप्त धन दिया तथा जाने का अनुरोध किया। कश्यप ने योगबल से जाना कि राजा की आयु समाप्त हो चुकी है, अत: वे धन लेकर लौट गये। यह सब जानकर जनमेजय क्रुद्ध हो उठा तथा उत्तंक की प्रेरणा से उसने सर्पसत्र नामक यज्ञ किया जिससे समस्त सर्पों का नाश करने की योजना थी। 

तक्षक इन्द्र की शरण में गया। उत्तंक ने इन्द्र सहित तक्षक का आवाहन किया। जरत्कारू के धर्मात्मा पुत्र आस्तीक ने राजा का सत्कार ग्रहण कर मनवांक्षित फल मांगा, फलत: राजा को सर्पसत्र नामक यज्ञ को समाप्त करना पड़ा। राजा ने उसे तो संतुष्ट किया किंतु स्वयं अशांत चित्त हो गया। व्यास से उसने समस्त महाभारत सुनी तथा जाना कि आस्तीक ने सर्पों की रक्षा क्यों की।

आजमगढ़ के अविन्तिकापुरी का ऐतिहासिक महत्व है, जो हजारों साल पूर्व का है। यह एक बड़ा तीर्थ स्थल है, जहां सर्प विनाश के लिए त्रेता युग में राजा जनमेजय ने यज्ञ किया था। इस क्षेत्र में किसी को सर्प नही काटता है, यदि किसी को काट लिया तो वह व्यक्ति यदि इस सरोवर में स्नान कर लेता है तो उसे विष नही चढ़ता है। यही नही यदि कोई विषैला सर्प रास्ते में आते-जाते किसी व्यक्ति को मिल जाता है तो वह सिर्फ राजा जनमेजय का नाम ले लेता है तो वह विषैला सर्प रास्ता बदल देता है। 

इसी लिए लोग यहां साल में एक बार आकर सरोवर में स्नान कर लेते है जिससे उनका पूरा साल हर प्रकार के दुखों से दूर रहता है। जानकार बताते है कि सभी तीर्थ करने के पहले यहां का तीर्थ करना जरूरी होता है और लोग साल में एक बार यहां जरूर आते है। यहां का सरोवर 84 बीघे में फैला हुआ है. पूर्वकाल में यह यज्ञ स्थल था, जिसमें राजा जनमेजय ने सर्प विनाश के लिए एक विशाल यज्ञ कराया था। 

यहां पर आते ही शांति की अनुभूति होती है और कुछ नया करने की ललक महसूस होती है। यहां कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु पूरे देश से आते है। यह टीला जिस पर मंदिर स्थापित है पूर्वकाल में यह राजा जनमेजय का किला था, जो धीरे-धीरे टीले का रूप धारण कर लिया है. इस टीले के चारों तरफ घनघोर जंगल है। इस सरोवर में स्नान करने से चर्म सम्बन्धी रोग दूर होता है।जब महाराजा जनमेजय ने यज्ञ की अंतिम आहूति दी तो वह सर्प भी इन्द्र के साथ यज्ञ कुण्ड के पास आ गया।

अपने पुत्र का प्राण जाता देख उसकी माता जरत्कारू ने यज्ञकर्ताओं से निवेदन किया कि अब मेरे पुत्रों में से यह तक्षक (सर्प) ही अकेले बचा है इसका विनाश न किया जाए। यज्ञकर्ताओं ने कहा कि तक्षक यह वचन दे कि भविष्य में राजा जनमेजय का नाम सुनते ही यह किसी व्यक्ति या जीव को न काटे और यदि भूलवश किसी को काट भी ले तो उसे न विष का असर होगा और न उसकी मृत्यु होगी। 

प्राण जाता देख तक्षक ने राजा जनमेजय को यह वचन दिया कि जो भी व्यक्ति जनमेजय का नाम लेगा उन्हें देख सर्प मार्ग बदल देंगे और किन्ही भी स्थितियों में उन्हें नही काटेंगे, यदि काट भी लिया तो सरोवर में स्नान करने पर विष का असर उस पर नही होगा। 

सर्प द्वारा यह वचन देते ही राजा ने तक्षक को मुक्त कर दिया। प्रत्येक साल सावन मास के पूर्णमासी के दिन यहां विशाल मेला लगता है. लोग यहां देवी-देवताओं का दर्शन व पूजा-पाठ करते है। यहां 84 बीघे में राजा जनमेजय का यज्ञ कुण्ड था जो अब सरोवर का रूप ले चुका है । यह विश्व के प्राचीनतम स्थलों में से है।

प्रतिकूल ग्रहों को अनुकूल बनाने के उपाय - अनिल सुधांशु

 

सूर्य :---- सूर्य की प्रतिकूलता दूर करने के लिए रविवार का उपवास रखें। भोजन नमक रहित करें। रविवार को सायंकाल सूर्य संबंधी वस्तुओं-गुड़, गेहूं या तांबे का दान करें। अगर चाहें तो गाय या बछड़े को गुड़-गेहूं खिलाएं। अपने पिताजी की सेवा करें। यह नहीं कर सकें तो प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करें।

चंद्रमा :-----अगर जन्मपत्रिका में चंद्रमा प्रतिकूल चल रहा हो तो सोमवार का उपवास प्रारंभ कर दें। अपनी मां की सेवा करें। सोमवार की शाम किसी युवती को शंख, सफेद वस्त्र, दूध, चावल व चांदी का दान करें। सफेद गाय को सोमवार को सना हुआ आटा खिलाएं या पके हुए चावल में खांड मिलाकर कौओं को खिलाएं। चंद्रमा अगर अशुभ हो तो दूध का प्रयोग न करें।

मंगल : ----मांगलिक कुंडलियों में दो प्रकार के उपाय मिलते हैं: पहला स्वयं की मांगलिक जन्मपत्रिका में शुभ ग्रहों का केन्द्र में होना, शुक्र द्वितीय भाव में, गुरु मंगल साथ में हों या मंगल पर गुरु की दृष्टि से मांगलिक दोष का परिहार हो जाता है।

दूसरे वर-कन्या की जन्मपत्रिका में आपस में मांगलिक दोष की काट-एक के मांगलिक स्थान में मंगल हो और दूसरे के इन्हीं स्थानों में सूर्य, शनि, राहू, केतु में से कोई एक ग्रह हो तो दोष नष्ट हो जाता है।

ज्योतिष का सिद्धांत है कि पूर्ववर्ती कारिका से बाद वाली कारिका बलवान होती है। मांगलिक दोष के विषय में परवर्ती कारिका ही परिहार है। अत: मांगलिक विचार का निर्णय सूक्ष्मता से करें तथा परिहार मिलता हो तो विवाह संबंध तय करें।

जिस वर या कन्या की जन्मपत्रिका में लग्न से या चंद्र लग्न से तथा वर के शुक्र से ही मांगलिक स्थान 1, 4, 7, 8, 12 भावों में मंगल हो तो ऐसी जन्मपत्रिका मांगलिक कहलाती है। अगर कन्या की पत्रिका में मांगलिक भावों में मंगल हो और वर के उपरोक्त भवनों में मंगल के बदले शनि, सूर्य, राहू-केतु हो तो मंगल का दोष स्वयं ही दूर हो जाता है। पापक्रांत शुक्र तथा सप्तम भावपति की नेष्ट स्थिति को भी मंगलतुल्य ही समझें।

मंगल दोष परिहार के कुछ शास्त्र वचन निम्र प्रकार हैं- इनका अगर किन्हीं पत्रिकाओं में परिहार हो रहा हो तो मांगलिक दोष भंग हो जाता है। जातक का दाम्पत्य जीवन सुख एवं प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत होता है।

मंगल की प्रतिकूलता से सुरक्षा के लिए मंगलवार का उपवास रखें। अपने छोटे भाई-बहन का विशेष ध्यान रखें। मंगल की वस्तुएं-लाल कपड़ा, गुड़, मसूर की दाल, स्वर्ण, तांबा, तंदूर पर बनी मीठी रोटी का दान करते रहें। आवेश पर सदैव नियंत्रण रखने का प्रयास करें। हिंसक कार्यों से दूर रहें। बहते जल में गुड़ की रेवड़ियां बहाना भी एक अच्छा उपाय है।

बुध :---- बुध दोष निवारणार्थ बुधवार का उपवास करें। इस दिन उबले हुए मूंग गरीब व्यक्ति को खिलाएं। गणेश जी की पूजा दूर्वा से करें। हरे वस्त्र, मूंग की दाल का दान बुधवार मध्याह्न करें। बुध के दोष दूर करने के लिए अपने भार के बराबर हरी घास गायों को खिलाएं। बहन-बेटियों का सदैव सम्मान करें। तांबे का सिक्का छेद करके बहते पानी में प्रवाहित करें।

बृहस्पति :---- देवगुरु बृहस्पति अगर दशावश या गोचरवश प्रतिकूल परिणाम दे रहे हों, तो गुरुवार का उपवास करें। केले की पूजा, पीपल में जल चढ़ाना, गुरुजनों व विद्वान व्यक्तियों का सम्मान करने से भी गुरु की अशुभता दूर होती है।

शुक्र :--- शुक्र की प्रतिकूलता दूर करने के लिए शुक्रवार का उपवास किसी शुक्ल पक्ष से प्रारंभ करें। फैशन संबंधी वस्तुओं, इत्र, फुलैल, डियोडरैंट इत्यादि का प्रयोग न करें। रेशमी वस्त्र, इत्र, चीनी, देसी कर्पूर, चंदन, सुगंधित तेल इत्यादि का दान किसी ब्राह्मण
युवती को दें।

शनि :---- शनि के नाम से ही लोग भयभीत हो जाते हैं। पौराणिक कथाओं में भी शनि ग्रह का प्रभाव अनेक राजा-महाराजाओं पर मिलता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सभी की सेवा चाकरी और सदैव आज्ञा पालन करने के लिए बैठा रहने वाला एकमात्र गृह यही है। यह जातक को उसके कर्मों के अनुसार दंड या वैभव प्रदान करता है।

सूर्य की पत्नी का नाम संज्ञा है। इन्हीं की प्रतिछाया से शनि का जन्म हुआ। भगवान शिव ने शनि को कर्मानुसार दंड प्रदान करने का अधिकार दिया।

शनि की गति अत्यंत धीमी है। आकाश के गोलक पर यह ग्रह बहुत धीमी गति से चलता है। इसलिए इसे शनैश्चर नाम दिया था-‘शनै: शनै: चरत इति शनिश्चर।’ बाद में इसी शनिश्चर का अपभ्रंश शनिचर बन गया। यह धीमी गति से क्यों चलते हैं। इसका कारण इनका ‘लंगड़ा’  होना भी है।

शनि 12 राशियों में से 6 राशियों को प्रभावित करता है। शनि की महादशा 19 वर्ष की होती है। जिस राशि में शनि होता है उस राशि से पहले की और अगली राशि वाले साढ़ेसाती से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार अपनी राशि से शनि चतुर्थ एवं अष्टम होने पर शनि की ढैया कहलाती है। यह मार्गी और वक्री होता है, साढ़ेसाती और ढैया को वृहत्कल्याणी तथा लघु कल्याणी कहा जाता है। बुध, शुक्र, राहू, केतु, शनि से नैसर्गिक मित्र राशि है और गुरु बृहस्पति सम तथा सूर्य मंगल तथा चंद्रमा से शत्रु भाव रखता है।

शनि को काल पुरुष का दुख माना गया है। यह दुख और आधि-व्याधि के कारक हैं। ग्रहों में इन्हें सेवक का पद प्राप्त है। एक राशि से दूसरी राशि भ्रमण में शनि को 30 माह का समय लगता है। तीस वर्ष में यह सम्पूर्ण राशि चक्र का भ्रमण पूर्ण करते हैं। मकर और कुंभ राशि की स्वयं की राशियां हैं। मेष में शनि नीच का तथा तुला राशि में उच्च का होता है। शनि की पूर्ण दृष्टि तीसरी, सातवीं और दसवीं होती है।

शनि ग्रह के शमन के लिए कच्ची घानी के सरसों के तेल में अपना प्रतिबिम्ब देखें और उसे दान कर दें। बदन पर सरसों के तेल की मालिश करें।

शनि राहू-केतु मुख्यतया जप-तप की बजाय दान-दक्षिणा से अधिक प्रसन्न होते हैं। इनके द्वारा प्रदत्त दोष निवारणार्थ शनिवार का उपवास रखें। सुबह पीपल को जल से सीचें व सायंकाल शुद्ध देसी घी का दीपक जलाएं। काले वस्त्र व काली उड़द, लौह, तिल, सरसों का तेल, गाय आदि का दान करें।

राहू के लिए :--- तुला का दान दें या कच्चा कोयला दरिया में बहाएं।

केतु के लिए : ---- कुत्ते को रोटी खिलाएं।

नोट : ज्योतिष के उपाय किसी योग्य विद्वान ज्योतिषी का परामर्श लेकर एवं उपाय करने की पूर्ण विधि जानकर ही करें। सभी उपाय दिन के समय ही करें।
अनिल सुधांशु
ज्योतिषाचार्य 94580 64249

तिलक - राज_सिंह



#तिलक का अर्थ है भारत में पूजा के बाद माथे पर लगाया जानेवाला निशान। तिलक  नहीँ लगाने से विनाश सुनिश्चित है। 

शास्त्रानुसार यदि द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) तिलक नहीं लगाते हैं तो उन्हें "चाण्डाल" कहते हैं। तिलक हमेंशा दोनों भौहों के बीच "आज्ञाचक्र" पर भ्रुकुटी पर किया जाता है। इसे चेतना केंद्र भी कहते हैं।

पर्वताग्रे नदीतीरे रामक्षेत्रे विशेषतः| सिन्धुतिरे च वल्मिके तुलसीमूलमाश्रीताः||
मृदएतास्तु संपाद्या वर्जयेदन्यमृत्तिका| द्वारवत्युद्भवाद्गोपी चंदनादुर्धपुण्ड्रकम्||

चंदन हमेशा पर्वत के नोक का, नदी तट की मिट्टी का, पुण्य तीर्थ का, सिंधु नदी के तट का, चिंटी की बाँबी व तुलसी के मूल की मिट्टी का या चंदन वही उत्तम चंदन है। तिलक हमेंशा चंदन या कुमकुम का ही करना चाहिए। कुमकुम हल्दी से बना हो तो उत्तम होता हैं।

★#मूल★
स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृकर्म च|
तत्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं विना|| तिलक के बीना ही यदि तिर्थ स्नान, जप कर्म, दानकर्म, यग्य होमादि, पितर हेतु श्राध्धादि कर्म तथा देवो का पुजनार्चन कर्म ये सभी कर्म तिलक न करने से कर्म निष्फल होता है |

पुरुष को चंदन व स्त्री को कुंकुंम भाल में लगाना मंगल कारक होता है|

तिलक स्थान पर धन्नजय प्राण का रहता है| उसको जागृत करने तिलक लगाना ही चाहीए | जो हमें आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढाता है|

नित्य तिलक करने वालो को शिर पीडा नही होती...व ब्राह्मणो में तिलक के विना लिए शुकुन को भी अशुभ मानते हैै..| शिखा, धोती, भस्म, तिलकादि चिजों में भी भारत की गरीमा विद्यमान है…||

●#तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
शैव- शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।

●#शाक्त- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।

●#वैष्णव- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं-
●#लालश्री_तिलक- इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।

●#विष्णुस्वामी_तिलक- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।

●#रामानंद_तिलक- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।

●#श्यामश्री_तिलक- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।

●#अन्य_तिलक- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।

●#चंदन_का_तिलक : चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं। चंदन का तिलक ताजगी लाता है और ज्ञान तंतुओं की क्रियाशीलता बढ़ाता है। चन्दन के प्रकार : हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।  
 
●#कुमकुम_का_तिलक:- कुमकुम का तिलक तेजस्विता प्रदान करता है।
 
●#मिट्टी_का_तिलक:- विशुद्ध मिट्टी के तिलक से बुद्धि-वृद्धि और पुण्य फल की प्राप्ति होती है।

 
●#केसर_का_तिलक:-  केसर का तिलक लगाने से सात्विक गुणों और सदाचार की भावना बढ़ती है। इससे बृहस्पति ग्रह का बल भी बढ़ जाता है और भाग्यवृद्धि होती है।
 
●#हल्दी_का_तिलक:- हल्दी से युक्त तिलक लगाने से त्वचा शुद्ध होती है।
 
●#दही_का_तिलक:- दही का तिलक लगाने से चंद्र बल बढ़ता है और मन-मस्तिष्क में शीतलता प्रदान होती है।
 
●#इत्र_का_तिलक:- इत्र कई प्रकार के होते हैं। अलग अलग इत्र के अलग अलग फायदे होते हैं। इत्र का तिलक लगाने से शुक्र बल बढ़ता हैं और व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में शांति और प्रसन्नता रहती है।
 
●#तिलकों_का_मिश्रण:- अष्टगन्ध में आठ पदार्थ होते हैं- कुंकुम, अगर, कस्तुरी, चन्द्रभाग, त्रिपुरा, गोरोचन, तमाल, जल आदि। पंचगंध में गोरोचन, चंदन, केसर, कस्तूरी और देशी कपूर मिलाया जाता है। गंधत्रय में सिंदूर, हल्दी और कुमकुम मिलाया जाता है। यक्षकर्दम में अगर, केसर, कपूर, कस्तूरी, चंदन, गोरोचन, हिंगुल, रतांजनी, अम्बर, स्वर्णपत्र, मिर्च और कंकोल सम्मिलित होते हैं।
 
●#गोरोचन:- गोरोचन आज के जमाने में एक दुर्लभ वस्तु हो गई है। गोरोचन गाय के शरीर से प्राप्त होता है। कुछ विद्वान का मत है कि यह गाय के मस्तक में पाया जाता है, किंतु वस्तुतः इसका नाम 'गोपित्त' है, यानी कि गाय का पित्त। हल्की लालिमायुक्त पीले रंग का यह एक अति सुगंधित पदार्थ है, जो मोम की तरह जमा हुआ सा होता है। अनेक औषधियों में इसका प्रयोग होता है। यंत्र लेखन, तंत्र साधना तथा सामान्य पूजा में भी अष्टगंध-चंदन निर्माण में गोरोचन की अहम भूमिका है। गोरोचन का नियमित तिलक लगाने से समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं के लिए गारोचन बहुत लाभदायी है।

---राज_सिंह---

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में अंतर



ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में  अंतर :-

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों का बहुत महत्त्व रहा है। ऋषि मुनि समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे और वे अपने ज्ञान और साधना से हमेशा ही लोगों और समाज का कल्याण करते आये हैं। आज भी वनों में या किसी तीर्थ स्थल पर हमें कई साधु देखने को मिल जाते हैं। धर्म कर्म में हमेशा लीन रहने वाले इस समाज के लोगों को ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी आदि नामों से पुकारते हैं। ये हमेशा तपस्या, साधना, मनन के द्वारा अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं। ये प्रायः भौतिक सुखों का त्याग करते हैं हालाँकि कुछ ऋषियों ने गृहस्थ जीवन भी बिताया है। आईये आज के इस पोस्ट में देखते हैं ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में कौन होते हैं और इनमे क्या अंतर है ?

ऋषि कौन होते हैं

भारत हमेशा से ही ऋषियों का देश रहा है। हमारे समाज में ऋषि परंपरा का विशेष महत्त्व रहा है। आज भी हमारे समाज और परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज माने जाते हैं। 

ऋषि वैदिक परंपरा से लिया गया शब्द है जिसे श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है वैसे व्यक्ति जो अपने विशिष्ट और विलक्षण एकाग्रता के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किये और विलक्षण शब्दों के दर्शन किये और उनके गूढ़ अर्थों को जाना और प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान को लिखकर प्रकट किये ऋषि कहलाये। ऋषियों के लिए इसी लिए कहा गया है "ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार : अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। हालाँकि कुछ स्थानों पर ऋषियों को वैदिक ऋचाओं की रचना करने वाले के रूप में भी व्यक्त किया गया है। 

ऋषि शब्द का अर्थ

ऋषि शब्द "ऋष" मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। इसके अतिरिक्त ऋषियों के प्रकाशित कृत्य को आर्ष कहा जाता है जो इसी मूल शब्द की उत्पत्ति है। दृष्टि यानि नज़र भी ऋष से ही उत्पन्न हुआ है। प्राचीन ऋषियों को युग द्रष्टा माना जाता था और माना जाता था कि वे अपने आत्मज्ञान का दर्शन कर लिए हैं। ऋषियों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि वे अपने योग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते थे और जड़ के साथ साथ चैतन्य को भी देखने में समर्थ होते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम होते थे। 

ऋषियों के प्रकार

ऋषि वैदिक संस्कृत भाषा से उत्पन्न शब्द माना जाता है। अतः यह शब्द वैदिक परंपरा का बोध कराता है जिसमे एक ऋषि को सर्वोच्च माना जाता है अर्थात ऋषि का स्थान तपस्वी और योगी से श्रेष्ठ होता है। अमरसिंहा द्वारा संकलित प्रसिद्ध संस्कृत समानार्थी शब्दकोष के अनुसार ऋषि सात प्रकार के होते हैं ब्रह्मऋषि, देवर्षि, महर्षि, परमऋषि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि और राजर्षि। 

सप्त ऋषि

पुराणों में सप्त ऋषियों का केतु, पुलह, पुलत्स्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ और भृगु का वर्णन है। इसी तरह अन्य स्थान पर सप्त ऋषियों की एक अन्य सूचि मिलती है जिसमे अत्रि, भृगु, कौत्स, वशिष्ठ, गौतम, कश्यप और अंगिरस तथा दूसरी में कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज को सप्त ऋषि कहा गया है। 

मुनि किसे कहते हैं

मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। 

मुनि शब्द मौनी यानि शांत या न बोलने वाले से निकला है। ऐसे ऋषि जो एक विशेष अवधि के लिए मौन या बहुत कम बोलने का शपथ लेते थे उन्हीं मुनि कहा जाता था। प्राचीन काल में मौन को एक साधना या तपस्या के रूप में माना गया है। बहुत से ऋषि इस साधना को करते थे और मौन रहते थे। ऐसे ऋषियों के लिए ही मुनि शब्द का प्रयोग होता है। कई बार बहुत कम बोलने वाले ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग होता था। कुछ ऐसे ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग हुआ है जो हमेशा ईश्वर का जाप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे जैसे नारद मुनि। 

मुनि शब्द का चित्र,मन और तन से गहरा नाता है। ये तीनों ही शब्द मंत्र और तंत्र से सम्बन्ध रखते हैं। ऋग्वेद में चित्र शब्द आश्चर्य से देखने के लिए प्रयोग में लाया गया है। वे सभी चीज़ें जो उज्जवल है, आकर्षक है और आश्चर्यजनक है वे चित्र हैं। अर्थात संसार की लगभग सभी चीज़ें चित्र शब्द के अंतर्गत आती हैं। मन कई अर्थों के साथ साथ बौद्धिक चिंतन और मनन से भी सम्बन्ध रखता है। अर्थात मनन करने वाले ही मुनि हैं। मन्त्र शब्द मन से ही निकला माना जाता है और इसलिए मन्त्रों के रचयिता और मनन करने वाले मनीषी या मुनि कहलाये। इसी तरह तंत्र शब्द तन से सम्बंधित है। तन को सक्रीय या जागृत रखने वाले योगियों को मुनि कहा जाता था।

जैन ग्रंथों में भी मुनियों की चर्चा की गयी है। वैसे व्यक्ति जिनकी आत्मा संयम से स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से रहित है, जीवों के प्रति रक्षा का भाव रखते हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ईर्या (यात्रा में सावधानी ), भाषा, एषणा(आहार शुद्धि ) आदणिक्षेप(धार्मिक उपकरणव्यवहार में शुद्धि ) प्रतिष्ठापना(मल मूत्र त्याग में सावधानी )का पालन करने वाले, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायतसर्ग करने वाले तथा केशलोच करने वाले, नग्न रहने वाले, स्नान और दातुन नहीं करने वाले, पृथ्वी पर सोने वाले, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले और दिन में केवल एक बार भोजन करने वाले आदि 28 गुणों से युक्त महर्षि ही मुनि कहलाते हैं। 

मुनि ऋषि परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु वे मन्त्रों का मनन करने वाले और अपने चिंतन से ज्ञान के व्यापक भंडार की उत्पति करने वाले होते हैं। मुनि शास्त्रों का लेखन भी करने वाले होते हैं 

साधु कौन होते हैं 

किसी विषय की साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति समाज से हट कर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया। 

कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण है कि सकारात्मक साधना करने वाला व्यक्ति हमेशा सरल, सीधा और लोगों की भलाई करने वाला होता है। आम बोलचाल में साध का अर्थ सीधा और दुष्टता से हीन होता है। संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "साध्नोति परकार्यमिति साधु : अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छह विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है। 

साधु के लिए यह भी कहा गया है "आत्मदशा साधे " अर्थात संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा को साधने वाले साधु कहलाते हैं। वर्तमान में वैसे व्यक्ति जो संन्यास दीक्षा लेकर गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं और जिनका मूल उद्द्येश्य समाज का पथ प्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलते हुए मोक्ष को प्राप्त करते हैं, साधु कहलाते हैं। 

संन्यासी किसे कहते हैं

सन्न्यासी धर्म की परम्परा प्राचीन हिन्दू धर्म से जुडी नहीं है। वैदिक काल में किसी संन्यासी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सन्न्यासी या सन्न्यास की अवधारणा संभवतः जैन और बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद की है जिसमे सन्न्यास की अपनी मान्यता है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य को महान सन्न्यासी माना गया है। 

सन्न्यासी शब्द सन्न्यास से निकला हुआ है जिसका अर्थ त्याग करना होता है। अतः त्याग करने वाले को ही सन्न्यासी कहा जाता है। सन्न्यासी संपत्ति का त्याग करता है, गृहस्थ जीवन का त्याग करता है या अविवाहित रहता है, समाज और सांसारिक जीवन का त्याग करता है और योग ध्यान का अभ्यास करते हुए अपने आराध्य की भक्ति में लीन हो जाता है। 

हिन्दू धर्म में तीन तरह के सन्न्यासियों का वर्णन है

परिव्राजकः सन्न्यासी : भ्रमण करने वाले सन्न्यासियों को परिव्राजकः की श्रेणी में रखा जाता है। आदि शंकराचार्य और रामनुजनाचार्य परिव्राजकः सन्यासी ही थे। 

परमहंस सन्न्यासी : यह सन्न्यासियों की उच्चत्तम श्रेणी है। 

यति : सन्यासी : उद्द्येश्य की सहजता के साथ प्रयास करने वाले सन्यासी इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। 

वास्तव में संन्यासी वैसे व्यक्ति को कह सकते हैं जिसका आतंरिक स्थिति स्थिर है और जो किसी भी परिस्थिति या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता है और हर हाल में स्थिर रहता है। उसे न तो ख़ुशी से प्रसन्नता मिलती है और न ही दुःख से अवसाद। इस प्रकार निरपेक्ष व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से विरक्त अलौकिक और आत्मज्ञान की तलाश करता हो संन्यासी कहलाता है। 

उपसंहार

ऋषि, मुनि, साधु या फिर संन्यासी सभी धर्म के प्रति समर्पित जन होते हैं जो सांसारिक मोह के बंधन से दूर समाज कल्याण हेतु निरंतर अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हैं और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु तपस्या, साधना, मनन आदि करते हैं।

पुरश्चरण - निरंजनानन्द नाथ

किसी मन्त्र को सिद्ध करने के लिए उस मन्त्र का जब किसी निश्चित संख्यां तक मन्त्र को आत्म-सात करते हुए विशेष विधि-विधान के साथ 'जप' किया जाता है, तो उसे 'पुरश्चरण' कहते हैं।
गुरुदेव से दीक्षा द्वारा मन्त्र-प्राप्ति के बाद 'पुरश्चरण' करना आवश्यक है। जबतक पुरश्चरण नही किया जाता, तबतक मन्त्र उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार जीव से रहित देह अर्थात  जैसे हम जीव-रहित शरीर से कोई काम नही ले सकते, वैसे ही बिना 'पुरश्चरण' किए हम गुरु-कृपा द्वारा प्राप्त मन्त्र से भी कोई काम नही ले सकते।
1- मन्त्र का जप, 2-हवन, 3-तर्पण, 4-अभिषेक (मार्जन) 5-ब्राह्मण-कुमारी भोजन --इस पन्चांग उपासना को 'पुरश्चरण' कहते हैं। 'जप' का दशांश हवन होता है, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्रह्म-कुमारी-भोजन ।
पुरश्चरण के दश अंग भी हैं। उपर पांच अंग उल्लिखित हैं। अन्य पांच अंग के नाम निम्नलिखित हैं।
1-पटल, 2- पद्धति, 3-कवच, 4-सहस्त्रानाम, और 5- स्त्रोत ।
इनमें से 'पटल' देवता का शिर, 'सहस्त्रानाम' देवता का मूख, 'कवच' देवता का शरीर  'पद्धति' देवता के हाथ हैं। 'पद्धति' का अर्थ 'पूजा-पद्धति' है। 'पद्धति' के स्थान पर मात्र पूजा होता, तो केवल पंचोपचारादि सामान्य पूजा का ही बौध होता और पुरश्चरण-कर्ता शीघ्रता के लिए पंचोपचार-पूजा मात्र कर लेता, किन्तु "पद्धति' शब्द से स्पष्ट है कि पद्धति-पुर्वक ही पूजा होनी चाहिए। 'स्त्रोत' (स्तुति) देवता के पैर हैं।
इस प्रकार दौनों पंचांग मिलाकर पुरश्चरण के दस अंग होते हैं। तात्पर्य यह है कि पुरश्चरण करनेवाला पहले वैदिक (तांत्रिक) सन्ध्या-वंदन करे। तब अपने इष्ट-देवता की पद्धति-पुर्वक पूजा कर सहस्त्रानाम आदि कवच, पटल और स्त्रोतों का पाठ करे। यह सब कर चूकने पर पुरश्चरण के अंग-भुत 'जप' के लिए बैठे।
पुरश्चरण में साधारण-तया जिस मन्त्र के जितने अक्षर हों, उस मन्त्र के उतने ही लक्ष 'जप' किए जाते हैं। जैसे पन्चाक्षरी मन्त्र हो, तो उसके पांच लाख और नवाक्षरी मन्त्र हो, तो उसके नौ लाख जप किए जाते हैं। पुरश्चरण करनेवाले साधक को फलाहार, शाकाहार या दुग्धाहार करना चाहिए। वह कन्द,मूल,दही, तथा हविष्यान्न ( घी,दुध,शक्कर के साथ पके हुए चावल) भी ले सकते हैं। 
पवित्र नदी के तट पर, पहाड़ों के शिखर या गुहाओं में, पावन सघन वनों में, अश्वस्थ वृक्ष के नीचे तथा किसी भी तीर्थ-स्थान में पुरश्चरण करना अत्युत्तम है। यदि ऐसा स्थान न मिले  तो साधक अपने घर में भी 'पुरश्चरण' कर सकता है। साधना  के लिए समुचित स्थान का चयन करना पहला कर्तव्य है। साधना स्थान दो प्रकार के होते हैं-1 -प्राकृतिक 2- मानव निर्मित। जिस स्थान पर बैठने से मन को शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव हो, वह स्थान साधना के लिए सर्वोत्तम होता है ।प्राकृतिक स्थान- प्रकृति के खुले प्रदेश में साधना का उपयोगी स्थान यदि सुलभ हो  तो वहाँ बैठकर साधना करने से सहज ही मन्त्र चैतन्य होता है। जो निम्नवत हैं--
1-पर्वत का शिखर-भाग, 2-पर्वत का तटीय प्रदेश ,(तराई) 3- पर्वत की गुफा, 4- पवित्र वन (तपोवन), 5- तुलसी-वन, 6-प्रशस्त वृक्ष (वट,बिल्व पिप्पल,आंवला आदि कुल वृक्ष के नीचे), 7-पवित्र नदी, सरोवर सागर का तट, 8- पवित्र निर्जन प्रदेश, 9- जल के मध्य में, 10, नदी-संगम प्रदेश, 11-तीर्थ-क्षेत्र।
प्राकृतिक 'स्थान' में बैठने से मन स्वाभाविक रुप से उल्लासित होता है। पर्वत,  वन, नदी, निर्जन प्रदेश आदि स्थानों में शान्त वातावरण सहज ही सुलभ रहता है, जिससे बिना किसी विघ्न-बाधा के शान्ति के साथ साधना संपन्न होती है। विभिन्न 'तीर्थ-स्थानों ' में ऐसे स्थान अधिकता से दृष्टिगत होती हैं, जहां प्राचीन काल से आजतक लोग साधना कर सफलता प्राप्त करते आ रहे हैं। इसी से शास्त्रोक्ति है कि-- वाराणसी में  'जप' करने से उसका पुरा फल मिलता है। पुरुषोत्तम-क्षेत्र में उससे दूना फल, द्वारका में उससे दूना, विन्ध्य, प्रयाग और पुष्कर में उससे सौ गुणा  करतोया नदी के जल में इन सब की अपेक्षा चार गूना, नंदी कुण्ड में उसका चार गूना, सिद्धेश्वरी-महामूद्रा में उसका दूना, ब्रह्म-पुत्र नदि में उसका चार गूना, काम-रुप के जल -स्थल में उसी के समान, नीलांचल पर्वत के शिखर पर उसका दूना और कामाख्या-महामूद्रा-पीठ में उसका सौ गूना फल होता है। 
उक्त तीर्थों के उत्तरोत्तर गुण-वर्णन का आशय यही है कि साधना में 'स्थान' का विशेष महत्व है। उपर वर्णित तीर्थ-क्षेत्र सबको उपलब्ध (सुलभ) नही हो सकते, इसी से अन्य प्रकार के स्थानों का उल्लेख शास्त्रों में ऋषियों द्वारा किया गया है। इन उल्लिखित स्थानों में से किसी भी स्थान का उपयोग करके पुरश्चरण में अभीष्ट फल पाई जा सकती है।
2-मानव-द्वारा निर्मित स्थान- 1- शून्य गृह, 2-गुरु-देव का गृह, 3- उपवन (उद्यान), 4-गौ-शाला, 5-एक-लिंग शिवालय ( जिस शिव-मन्दिर के पांच कोस-दस मील तक दुसरा शिव-लिंग न हो) , 6-वृष -शून्य शिव-स्थान(मन्दिर), 7- देवी-मन्दिर, देवालय या शक्ति-पीठ, 8- चतुष्पथ, 9- भू-गर्भ ( पृथ्वी के नीचे बना कमरा, ढंकी हुई गुफा आदि), 10-राज-महल, 11- छिद्र-रहित मण्डप के नीचे, 12- पंच-वटी, 13-श्मशान।
त्याज्य स्थान- जहां दुष्ट लोग और हिंसक पशु, सर्पादि का निवास हो, उस स्थान पर पुरश्चरण साधना न करें। जहां लोगों का आवागमन अधिक हो, धर्म-कर्म की निन्दा होती हो, दुर्भिक्ष की अवस्था अर्थात खाने-पीने की वस्तुओं का अभाव हो , उपद्रव अर्थात झगडे-झंझट आदि होते रहते हों, शासकीय वर्ग अर्थात मन्त्री, अधिकारी, प्रभाव-शाली लोग आते-जाते हों, वहाँ पुरश्चरण साधना का स्थान न चुनें, जीर्ण (टूटे-फुटे) देवालय, जीर्ण उद्यान-गृह, जीर्ण वृक्ष के नीचे, जीर्ण नदी-तट, जीर्ण गुफा या जीर्ण भू-गर्भस्त कक्ष आदि स्थानों को छोड़ दें ।पुरश्चरण में कुर्म-चक्र या दीप-स्थान का भी विचार वृहद है। आसन का भी वृहद वर्णन है। आसन में सजीव और निर्जीव आसन का भी वृहद वर्णन है।मन्त्र देव-देवी के अनुसार पुष्प का भी वृहद वर्णन है। जप माला का भी देवी-देवता के अनुसार वृहद वर्णन है। जप में मातृका वर्ण-मयी माला का जप का विशेष महत्व है। माला के शौधन, मन्त्र के संस्कार, वर्णोषधि तथा दिव्यौषधि का भी वृहद वर्णन है। न्यास का भी वृहद वर्णन है। संकल्प भी अत्यंत जरुरी है। तिथि के ध्यान पुजनादि का भी महत्व है। भुत-शुद्धि भी जरुरी है। प्राणायामविधि भी जरुरी है। आशय ये है की साधना की सभी पद्धति नियम आचार का विधिवत पालन पुरश्चरण काल में आत्यावश्यक है। साधना की सभी अंगों को "पुरश्चरण" अपने में पुर्णत: समाहित किए है ,अब ये कितने भागों में पुर्ण होगी इसकी अन्दाजा लगाना कठिन है , विद्वजन अपनी अमुल्य राय निश्चित प्रदान करें।

पेस्ट कापी - निरंजनानन्द नाथ ।

वराह का अवतार

 भगवान विष्णु के 10 अवतारों में से एक भगवान वराह का अवतार है जिन्हें विष्णु के अवतारों में तीसरा माना जाता है। पद्मपुराण में बताया गया है कि वरूथिनी एकादशी के दिन भगवान के वराह अवतार की पूजा की जानी चाहिए। इस वर्ष 30 अप्रैल को वरूथिनी एकादशी है। इसे वरूथिनी ग्यारस भी कहा जाता है। इस एकादशी के दिन भगवान वराह के अवतार की कथा पढना और सुनना भी शुभ और पुण्यदायक माना गया है।

द्वारपालों के शाप की है गाथा
पौराणिक कथा के अनुसार, बैकुंठ लोक के द्वारपाल जय और विजय ने बैकुंठ लोक जाते हुए सप्त ऋषियों को द्वार पर रोका था जिस कारण उन्हें शाप मिला कि दोनों को तीन जन्मों तक पृथ्वी पर दैत्य बनकर रहना पड़ेगा। पहले जन्म में दोनों ने कश्यप और दिति के पुत्रों के रूप में जन्म लिया और हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष कहलाए। दोनों ने पृथ्वीवासियों को परेशान करना शुरू कर दिया। धरती पर हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का अत्याचार बढ़ता जा रहा था। हिरण्याक्ष ने यज्ञ आदि कर्म करने पर लोगों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया।
ऐसे प्रकट हुए भगवान वराह
हिरण्याक्ष एक दिन घूमते हुए वरुण की नगरी में जा पहुंचा। पाताल लोक में जाकर हिरण्याक्ष ने वरुण देव को युद्ध के लिए ललकारा। वरुण देव बोले कि ‘अब मुझमें लड़ने का चाव नहीं रहा है तुम जैसे बलशाली वीर से लड़ने के योग्य अब मैं नहीं हूं तुम्हें विष्णु जी से युद्ध करना चाहिए।’ तब देवतओं ने ब्रह्माजी और विष्णुजी से हिरण्याक्ष से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए नासिका से वराह नारायण को जन्म दिया। इस तरह हरि के वराह अवतार का जन्म हुआ।
वराह अवतार ने किया दानव का अंत
वरुणदेव की बात सुनकर हिरण्याक्ष ने देवर्षि नारद से नारायण का पता पूछा। देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि नारायण इस समय वराह का रूप धारण करके पृथ्वी को समुद्र से निकालने के लिए गए हुए हैं। हिरण्याक्ष तुरंत उसी स्थान के लिए प्रस्थान कर गया क्योंकि उसी ने ही पृथ्वी को समुद्र में रखा था। पहुंचने पर हिरण्याक्ष ने देखा कि भगवान हरि वराह अवतार में पृथ्वी को ले जा रहे हैं। हिरण्याक्ष ने भगवान वराह को युद्ध के लिए ललकारा और महायुद्ध आरंभ हो गया। भगवान विष्णु ने अपने दांतों और जबड़ों से हिरण्याक्ष का पेट फाड़ दिया और पृथ्वी को फिर से अपने स्थान पर स्थापित कर दिया।

गोरक्ष वाणी

 आदि ॐ सत नमो आदेश।आदि ॐ गुरुजी को आदेश।आदि ॐ शिव गोरक्ष योगी आदेश।सभी भक्त तथा नाथ सेवक को कोटि कोटि आदेश।

मेरे सृष्टि तथा पर्यावरण का इंसानों बहुत नुकसान हानि पहुंचाई है । इसी कारण मैंने आपको सीख देने हेतु जगत कल्याण कारण यह सब निसर्गिक बदलाव कर रहा हूं।
आप इंसान अभी भी सिर्फ खुद के ही बारे सोच रहे हैं।मैंने जो ब्रह्मांड निर्माण किया है ,सिर्फ आपके लिए नही है,और भी सजीव निर्जीव निर्माण किए हैं।हर एक का कोई न कोई कार्य हेतु उत्तप्ती करवाई है, उसिके के वजसे हर तरफ समतोल बनाया है,मगर आप लोगों ने ख़ुद के स्वार्थ हेतु बहुत बड़ी गलतियां कर रहे है।
यह जो भी बीमारियां आ रही हैं,वह मैंने है , लाई है।
***** गोरक्ष वाणी *****
पवन ही जोग पवन है , पवन ही भोग , पवन ही हरे , छत्तीसौ रोग,या पवन कोई जाने भव, सो आपे करता आपे देव । ग्यान सरिखा गुरू ना मिलाया चित्त सरीखा चेला ,मन सरीखा मेलू ना मिलाया , ताथै गोरख फिरे अकेला । कायागढ भीतर देव देहुरा कासी , सहज सुभाई मिले अवनासी । बन्दत गोरखनाथ सुनै नर लोई कायागढ जीतेगा बिरला नर कोई।
अर्थ : जो हवा है,वो सिर्फ मेरे ही नियंत्रण में है, हवा है, जोग है, क्योंकि हवा है , किसी मै भी समा जाती हैं,जीवन मरण पवन के बिना असंभव है,हवा के बिना खाने का कोई मतलब नहीं है,हवा ही है,हर जगह अस्तित्व रखती हैं,हवा ही है, जो हर रोगों को नियंत्रण कर सकती हैं, हवा ही है, जो हर जगह भय पैदा कर सकती है,तभी हमारे शरीर बैठे ,परमात्मा जागृत होते हैं, ग्यान चित्त मन को जागृत कर ने का काम भी प्राणायमसे ही हवा करती हैं,तभी आपका शरीर पे नियंत्रण ही के आत्मा , जीवात्मा और परमात्मा मै प्रवेश कर पाती हैं,तभी सच्चा साधक परम गति पाकर मोक्ष प्राप्त कर परम धाम प्रवेश कर पता है।
आदि ॐ अलख निरंजन सब दुःख भजन आदेश। शुभम भवतु ।
खुद मे बदलाव पा लो तो ही आगे चल कर सही पाओगे।

श्राद्ध न करनेसे हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः आद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठा...