Monday, 20 September 2021

पितृ साधना

 पितृ साधना 



साधना सामग्री ...

1) दाभ , घास कि लकडी कुशा  

2) जौ , (अक्षत)गेहूँ का अंश जो गेहूं मे पाया जाता है

3) काले तिल

4) गोपीचंदन

5) तुलसी

6) फुल (सफेद रंग के)  

7) बिना नमक उबले हूय चावल

8) धूप  

9) दीप

(सात तरह के अनाज को पिसकर बनाया गया आटा )

से बनाय गये गोले को पिंड कहते है 

दिपक तिन तरहके जलाये

 

1) घी का दीपक == सफेद फूल

 

2) तिल  ==पिला फूल

3) सरसो   ==   लाल फूल   

अगर पितृदोष बहुत ही प्रखर हो तो साल की बारह अमावस्या को पितृपक्ष सहित करना अनीवार्य है  

पितृ को पूजन के लिये आवाहन करने का समय ..       10.34 से 12.30 बाद भोजन  

रात मे भोजन निशिद्ध 

पिंड बनाने की विधि 

1) अमावस्या के1दिन का अमरुद के फल जीतना बडा पिंड याने गोला बनाए

2) वर्ष श्राद्ध के दिन नारीयल जीतना बडा गोला बनाए

3) हर अमावस्या के दिन चिकू फल जीतना छोटा 

पुष्प  

1)सफेद

2)मालती

3)जुई

4)चंपा

5)कमल

6)धतुरा 

श्राद्ध के लिये निषिद्ध

उपवास रखना चाहिए

प्रवास वर्जित

परिश्रम

बाहर कीसी के घरका भोजन  

रात मे भोजन

हवन ना करें 

सप्तधान 

1)जवस (आलसी)  

2)गेहूं

3)ज्वार

4)तिल

5)मुंग

6)चना

7)चावल 

 

संकल्प -  ॐ विष्णु र्विष्णु र्विष्णु: नम: परमात्मने पुरुषोत्तमाय ॐ तत्सत अदैतस्य विष्णोराज्ञया जगत्सुष्टिकर्मणि प्रवर्तमानस्य ब्राम्हणों द्वितीय परार्द्धे श्रीश्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविशतितमे कलियुगे तत्प्रथमचरने जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखंडे *क्षेत्रे बौद्धावतारे *सवत्सरे उत्तरायंणे     / दक्षिणायने *ॠृतो *मासे *पक्षे * तिथो *वासरे *गोत्र:----शर्मा / वर्मा गुप्तोऽहम **गोत्रस्य अस्मत्पितु: क्षुधापिपासानिवृत्तिपूर्वकमक्षयतृप्तिसम्पादनाथॅँ ब्राम्हणभोजनात्मक सकल्पिक  श्राद्धं पञ्चबलिकर्म च करिष्ये | संकल्पजल छोड़ दे | 

 

बीज माला (मन्त्र)   

सत नमो आदेश | गुरुजी को आदेश | ॐ गुरुजी | ॐ अंगुष्ट प्रमाणे तीसरा नेत्र त्रिकुटी मै ठहराया सिद्धो काया न माया धूप न छाया बजर कुवारी तीन लोक की माया , जहा ठहराई मारग मार्ग आवे मार्ग कि छाया , अमार्ग का पुत्र बाला काह्लाया जब  सिद्धो गोरक्षनाथजी ने गोरक्षबाला कह्लाया | ॐ सोह हमारी माया , एता बीज बाला जाप सम्पूर्ण भया अनन्त कोट सिद्धो मै श्री शंभूजती गुरु गोरक्षनाथजी ने कहा | ॐ नमो आदेश | सत गुरुजी को ,  ॐ निरंन्जन निराकार अवगत पुरुष ततसार ततसार मध्ये ज्योत , ज्योत मध्ये परम ज्योत , परम ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भू शिव गायत्री विश्वनी विश्वमूर्ती पाताले ग्रहणी चतुर्वेदी मुखो दृष्टवा गंगा जमना देखे चन्द्रमा इति देवता ललाटे नक्षत्र मेष कि माला दृष्ट श्रृडग मेरू मेखला हिर्दे तैतीस करोड देवता कुक्षौ सप्त समुद्र सागरा रोमावली ते अठ्ठारा भार वनस्पती के चार खाणी , चार बाणी चन्द्र सुर्ज पवन पाणी धर्ती आकाश पंच तत पिंड प्राण ले किया निवास सून निरालम्ब दिया निवास ,  यती निरालम्ब जी के चरण कमल पादका को नमस्कार नमाम्यहम अं निरालम्ब निराकार अवगत पुरुष तत सार तत सार मध्ये जोत जोत मध्ये परम जोत मध्ये परम जोत परम जोत मध्ये उत्पन्न भई माता शंभु  अजपा नाम गायत्री अभेद मण्डल भिदन्ति अछेद पाप अक्षय पोष करन्ती अपीर नीर पिवन्ति गंगा जमना मध्ये जलन्ति बचने बचने रूद्र ॠषिवर की वाचा प्रति पालयन्ति ॐ सप्त मैं पाताल खरी , क्षेचरी , मंचरी, भूचरी , सिद्द्धा आपसे थापी सोहं हंती महंती जति निरालम्ब जी के चरण कमल पादका को नमस्ते नामम्यहम ॐ प्रभाते उत्पन्न भई माता शम्भू शिव गायत्री , रक्त वर्णीवृष वाहिनी रूद्र देवता की पोषनी ॠद्ध सिद्ध वर दायिनी , ॐ मध्याने उत्पन्न भई माता शम्भू शिव गायत्री स्वेत वर्णी हंस वाहिनी ब्राम्हदेवता को पोषणी  ॠद्ध सिद्ध वर दायिनी , ॐ संध्या उत्पन्न भई माताशम्भू शिव गायत्रीश्यामवर्णी गरुड वाहिनी शंख चक्र गदा पद्म ले विष्णू देवता को पोषणी ॠद्ध सिद्ध वर दायिनी फुरो तां ॠद्ध फुरो तांसिद्ध ईश्वरो वाचा जो जोगनी अजरन्त जो जोगनी बजरन्त षट सरस बरस कि रक्षा उद्धारन्त , होमी शिव होमी शक्त होमी घटे शिव होमी चतुर्मुख ब्रम्हा बोलिये , हिर्दे ते स्थान मुँह भूज शंखिनीदेवी विष्णू देवता को पोषणी ॠद्ध सिद्ध वर दायिनी ,ॐ जल , जल पर थल, थल पर भौर नदी , भौर नदी पर भौर गुफा , भौर गुफा पर शिवपुरी , शिवपुरी पर  शिवताजपुरी , शिवताजपुरी पर ब्रह्मकमल , ब्रह्मकमल पर निरन्जन कमळ , निरंजन कमळ मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भू शिव गायत्री अभेद मण्डल भिदन्ति |

ॐकार करन्ती आवे इकोतर सौ पुरुषा ले अमरापुर जावे सोहंकार करन्ति आवे लख चौरासी जीया जून को ले अहार चोगा पानी पिलावे क्षिर निरनू पंच बस करनी आवे जपंत ब्रम्हा विष्णु जल पवन पानी षट दर्शन मध्ये गुरु खड़ा हाथ खड्ग त्रिधारा क्या करेगा रूठा जगत हमारा चार चरण पंजवा मुख अन्न महिश्वर जोगी अनन्त कोट सिद्धा को पार ले उतरेगी माता शम्भू शिव गायत्री श्री नाथजी को चरण कमल पादका को नमस्ते नमस्कारम: ॐ  चार वेद ब्रम्हा पढ़े दस हज़ार योजन सुमेरु धरती मै गड़े साठ कोस लौ पौड़ी लोह की जा: बैठीरा: क्रेत की चौकी क्या चीज बिना भेद वस्त्री, साठ कोस लग रगड जस्त की क्या जमना जी मै रुख वृक्ष डाल कड़ी बांस की क्या दाता ने ऐसी बनाई बासठ कोस धारा तांबे की ताके उपर ले काने खड़े गौरी पुत्र गणेश , हाथ मै लई छड़ी साठ कोस रुपे सों जड़ी ताके उपर ले काने खड़े सप्तपुरी सोने सों जड़ी सोलह लाख बहत्तर हज़ार हीरे लाल जड़ी जवाहर जा: पंच तत्व तीनो गुण न्यारो न्यारो छै: दर्शन छानवै  पखंड नौग्रह त्रय सध्यया चौबीस गायत्री , एते  प्रमाने किस विधि जागो ससमाले चक्र ताणे दरवाजे ध्रुव की चौकी बठाने तिसके निचे ले काने लाय तारे चन्द सुर्ज दो बने खिलारे जहा आठ कुण्ड बिसो न्यारे न्यारे जा मै कीड़े फिर रहे काग करे फटकारे केती आवे केती जावे केती भरीयम के द्वारे , यम द्वारे यम राणी बैठी , ब्रम्हा विष्णु महेश्वर ली एती इस पर्वत गब्बे सिद्धो अमृत कुण्ड भरिया भर भर आवे बदल मपडे इन्द्र के आघाय मृत लोक से पौचे मुहडा दिन सू  रात पुतला दस महीने दौड़े इति सुमेरू पाद का मन्त्र सम्पूर्ण भया | श्री नाथजी गुरूजी को आदेश | आदेश || आदेश | 

      ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ 

 

संजीवनी बाला

जीस तिथि को मृत्यु हुआ है उस तिथि पर पितृपक्ष मे उपरोक्त मन्त्र का 51 बार जाप करें

पितृपक्ष मे 7 पिंड बनाकर उसे मन्त्रोपचार से तर्पन किजिय पितृ कि मुक्ति होगी ।। 

 

आदेश आदेश श्री नाथजी गुरुजी कु आदेश ।।

 

मन्त्र    

 सत नमो आदेश | गुरुजी को आदेश | ॐ गुरुजी | ॐ शून्य आकाश , शून्य धरती , शून्य ज्योती प्रकाश | ओं सोहम संजिवन काया बिच जम यम का फास | गुरु अविनाशी खेल रचाया | तंतर संजोगी संजिवन बाला | फुरो मन्तर जती गोरख बाला | हिर्दे हिले गिद चालन देखो सिद्धो चले पुतला | कहा से आया कहा को जाना कौन पुरुष ने दिनी छाया | अगम आया निगम को जाना, गुरु अविनाशी ने दिनी छाया , घटे आकाश घटे पाताल गत गंगा भरपूर चन्दसुर दो साख भरे सिद्ध के मुख से बरसे नूर , आओ अवधू शंख ढरे  शिव पुजिये प्राणी पावे मोक्ष द्वार | ॐ मृत्युंजयाय विद्महे संजीवनबालाय धी मही तन्नो संजिवनी प्रचोदयात 

 

 

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ 

मोक्ष गायत्री - /n/n

 

यह मन्त्र पितृ पक्ष अमवस्या के दिन अपने पूर्वजो के नाम सप्त अनाज आटे के पिण्ड बनाकर उतने की घी ज्योत लगाये , पूजन करे , मिटटी के मटके में गंगा जल पंचामृत सन्मुख रखे ? इस मन्त्र का १५१ बार प्रात: जप करे और शंख द्वारा पिण्डो को ५-५ बार जल चढ़ाये ? उन्हें खीर , हलवा, पुड़ी , इत्यादी पंचपकवान का भोग लगाये | कौवो ,यजमान या साधू-को भोग वस्त्र देवे | वस्त्र दान करे | पितृ घर , मकान को छोड़कर मुक्ति को जायेंगे तथा पितृ दोष नही रहेगा | 

 

मन्त्र -   

सत नमो आदेश | गुरूजी को आदेश | ॐ गुरूजी | ॐ सों का सकल पसारा , अक्षय योगी सबसे न्यारा | सद्राला तोड़ चौदह चौकी यम की तोड़ हंसा ल्याऊ मोड़ हंसा तो ला कहा धरे अलष पुरुष की सीम  , हंस तो  निर्भय भया काल गया सिर फोड़ निराकार के जोत मै रती न खणड़ी हो , कौन कौन साधू भया ब्रम्हा विष्णु महेश , वे साधू ऐसे भये यम ने पकडे केश , मोक्ष गायत्री जाप सम्पूर्ण भया | श्री नाथजी गुरूजी को आदेश | आदेश | आदेश | 

शंख सिद्ध करने का मंत्र


शंख मंत्र

 

शंखनाद उपजी धरती पर मधुर गीत सुनाए आलोकिक श्रृंखला ध्वनि पर मुकुट सजा 

शिव का देख देव गुस्करय लीला सारी शंख की ध्वनि में समाये शिव जी पृथ्वी लोक पर 

आये पार्वती का संगीत सुन आये पृथ्वी लोक के नर नारी शुभम हो जाय शंख की ध्वनि

उपज मधुर गीत सुनाये धरती माता की मधुर वाणी से गर्भ  धारण हो जाय शंखनाद 

उपजी धरती मधुर गीत सुनाये।

Wednesday, 28 April 2021

अहं

मी, माझं हे शब्द म्हणजे या मार्गतले काटे आहेत. आज बरेच साधक या भ्रमात आहेत की मी हे केलं मी ते केलं किंवा माझ्यात ही शक्ती आहे माझ्यात ती शक्ती आहे.. हा मीपणा जो आहे तोच या मार्गावर चालणाऱ्यांसाठी एका अडथळ्याचं काम करतो. 

या जगात मी अस कोणी नाही, कर्ता करविता हा भगवंत आहे. जेव्हा तुम्हाला गुरूंदीक्षा मिळते तेव्हा तुम्ही तुमचे सर्व गुरूला समर्पित करता, थोडक्यात तुमच्या गाडीची चावी तुम्ही त्यांना देता. म्हणजे सर्व काही भगवंताकडून सद्गुरूच्या हाती देता. मग जर आपण सर्व त्यांना देतो तर मी करतो हा विषयच उरत नाही. 


 गुरू ब्रह्म दोन्ही समान हेही उपमा किंचित न्यून, गुरुवाक्ये ब्रह्मा ब्रह्मपण इतकी गुरूंची महती आहे. आपले जीवन विधिलिखित आहे आणि याचा लेखक म्हणजे विधाता सुद्धा गुरू शब्दापुढे जाऊ शकत नाही. 

जर तुमच्या अस्तित्वावरच तुमचा अधिकार नाही तर तुमच्या कृतीवर तुम्ही हक्क का सांगता? जे आहे ते विधीलिखित किंवा गुरू यांच्या हाती आहे. पण त्यातही गुरू हे काहीही झालं तरी आपल्या भोग कमी व्हावेत म्हणून शक्य ते सर्व करतात. भोगाची दाहकता कमी करतात. पूर्वजन्मसंचित पुण्याच्या फळाची गोडी वाढवतात तर पापाची तीव्रता कमी करतात. 

एकदा का साधक व्हायला सुरुवात झाली की आपोआप या माणसाला या गोष्टी समजायला लागतात. गुरू शिष्य नात हे विश्वासाच नात आहे. एकदम सोप्या शब्दात सांगायचे झाले तर आपले संचित, भोग व गुरू हे नातं चहा आणि त्याची गाळणी सारख असत. ज्याप्रमाणे गाळल्यावर फक्त चहाच कपात येतो जर आलाच तर थोडासा संचित जे आपलाच भाग असत तेवढंच आपल्याला सहन करायचं असत. बाकी तर सर्व दुःख आणि भोग तर गाळून आलेले असतात. त्यातसुद्धा आपण मी आणि माझं करत असू तर ते जास्त हास्यास्पद आहे.

आपल्या गुरुप्रति असलेलं आपलं समर्पण हेच फक्त आपल्या हाती आहे ते जो जबाबदारीने करतो तोच सर्वांगीण प्रगती करतो म्हणजे गुरू त्याच्याकडून करून घेतात.. आपण या जगात काहीही घेऊन आलो नाही आणि काही घेऊन जाणार नाही. मग आपले भाव सुद्धा योग्य ठिकाणी वापरणे हेच जीवन. 



आदेश
प्रसन्न संध्या प्रदीप कुलकर्णी 

Tuesday, 27 April 2021

श्री महामारी स्तोत्रम्



 महाकालीमहन्नौमि महामारीस्वरूपिणीम्। रक्ष रक्ष जगन्मातस्त्वामेव शरणङ्गत:।।१।। त्वमेव शत्रुसंहन्त्री त्वमेव प्रलयेश्वरी। त्वामेव जगतां त्रात्रीं महामारीं नमाम्यहम्।।२।। त्वदर्भकस्त्वया त्रस्तस्त्वयैव रक्षितो मुहु:। दुष्ट दैत्य निहित्वं त्वां महामारीं नमाम्यहम्।।३।। यदा त्वं कुपिता मातस्तदा को रक्षको भवेत्। कारुण्यरूपिणीं देवीं महामारीं नमाम्यहम्।।४।। त्वमेवाम्ब महामाया त्वमेवासि क्षुधा तृषा। त्वमेव तुष्टि: पुष्टिस्त्वां महामारीं नमाम्यहम्।।५।। महामारीस्तोत्ररत्नं गङ्गाधरविनिर्मितम्। य: पठेच्छ्रद्धया नित्यं गृहे तस्य शुभं भवेत्।।६इति


संयम


कोणतीही गोष्ट असो, संयम महत्वाचा. आपली सेवा ही संयम वर आधारित असते. याच्या अनेक परीक्षा घेतल्या जातात.. अध्यात्मिक क्षेत्रात सर्वात जास्त घेतली जाणारी परीक्षा म्हणजे संयमाची असते. 

आपल्याला साधना सुरू केल्याकेल्या अनुभव यावेत आणि साधना सफल होऊन कार्यप्राप्ती व्हावी असे मनापासून वाटते पण ही अशक्य अशी गोष्ट आहे. बीज पेरल्यावर ते उगवायला वेळ लागतो त्याची योग्य काळजी घ्यावी लागते मग त्याचे फळ मिळते पण फळ मिळेपर्यंत ठेवावा लागतो तो संयम आणि विश्वास. साधनरुपी बीजाचे फळ मिळेपर्यंत आपण त्याचे नियमपालन करून काळजी घ्यावी मग मिळालेल्या सफलतेचा आनंद घ्यावा. जरी आपल्याला यश लवकर मिळाले तरी सद्गुरूंनी सांगितल्याशिवाय साधना थांबवू नये. 

संयम साधकाला परिपूर्ण बनवतो. आपल्याला हवी असलेली गोष्ट मिळणे व ती मिळून पण साधना पूर्ण करणे म्हणजे आपण योग्य मार्गावर आहोत असा आहे. *सगळ्याच गोष्टी आपल्या मनासारख्या घडत नसतात कधीकधी नशीब आपल्यासाठी अजून चांगलं काहीतरी लिहीत असते फक्त ते येईपर्यंत आपल्याकडे संयम हवा.*
त्यामुळेच एखादी गोष्ट प्रयत्न करून नाही मिळाली म्हणजे आपले प्रयत्न वाया गेलेत अस न समजता ती मिळवण्यासाठी पुन्हा पुन्हा प्रयत्न करणे व संयम बाळगणे गरजेचे असते. आपण इथे आहोत याचा अर्थ आपल्या हातून काही महत्त्वाचे विधिलिखित घडणार आहे मग ती गोष्ट लहान असो की मोठी पण घडणार असतेच. पण त्याचा आपण त्रास करून न घेता  आपल्या साधनेवर लक्ष केंद्रित करावे. जे होईल ते होईल व जेव्हा होईल तेव्हा होईल. पण याचा अर्थ आळस करणे असा नाही तर प्रयत्न करणे असा घ्यावा. 
साधना दैवत प्रसन्न झाल्याचे संकेत मिळताच सद्गुरुंशी चर्चा करावी व आहे तशी ती सुरू ठेवावी. संयम हा कृतीतून दिसतो. भल्याभल्या अशक्यप्राय गोष्टी केवळ संयम ठेवल्याने साध्य होतात. त्याला प्रामाणिक प्रयत्नांची व विश्वासाची जोड हवी..
परिपूर्ण व परिपक्व साधक होण्यासाठी संयमची आवश्यकता असते. ज्या व्यक्तीजवळ  संयम समाधान व सहनशीलता असते त्या व्यक्तीमध्ये कोणत्याही परिस्थितीवर मात करण्याची क्षमता असते...!

प्रसन्न संध्या प्रदीप कुलकर्णी

Saturday, 24 April 2021

निराकार

गुरू हा निराकार असतो असे आपण म्हणतो,  म्हणजे काय हो ? तर निर म्हणजे पाणी म्हणजे गुरुचे स्थान हे पाण्यासारखे असते. म्हणजे कसे तर...

ज्याप्रमाणे तहान लागल्यावर पाण्याची गरज असते ज्ञानासाठी तहानलेल्या माणसाची तहान गुरुच भागवू शकतो.. 


ज्याप्रमाणे पाणी हे मार्गतले खड्डे किंवा अडथळे भरून पुढे जाते जाते त्याप्रमाणे गुरू सुद्धा आपल्या जीवनातील असंख्य अडथळे दूर करून आपला जीवनप्रवास सुखकर करतात.


पाण्याचे वाहणे हे मुक्त असते.. तसेच गुरुचे आपल्या आयुष्यातले स्थान असते.. त्याला सर्व गोष्टी व सर्व शिष्य समान असतात. फक्त मोकळेपणाने देणे हाच गुण त्यांच्या ठायी असतो.. गुरू वेळोवेळी मार्गदर्शन करून प्रसंगी  आपल्याला रागावून आपल्या कडून आपल्यातले दोष सांगून किंवा दाखवून आपल्यातले दोष निवारण करतात ,आणि हे सर्व करत असतांना आपल्याला काय वाटेल त्याकडे ही त्यांचे लक्ष नसते

पाणी प्यायल्यावर जसे ते आपल्या शरीरात सामावून जाते तसेच गुरू आपल्यात सामावून आपल्यातले दोष निवारण करतात व बदल्यात त्यांना कसलीच अपेक्षा नसते केवळ आपल्या अडचणी दूर होऊन आपली ज्ञानाची तृष्णा भागवणे हेच त्यांचे कार्य.. 

जितके पाणी शुद्ध असते तितके ते चांगले असते तसेच आपला गुरू हा जितका शुद्ध विचारांचा असतो तितकेच आपले कर्तृत्व उजळ होत जाते. 

जल है तो कल है तसच गुरू आहेत तरच आपल्याला भविष्य आहे. अन्यथा जन्म वाया गेला अस समजावं.

ज्याप्रमाणे पृथ्वीवरचे सर्व प्यायचे ठरवले तर आपल्याला अनेक जन्म घ्यावे लागतील तसेच गुरुकडील सर्व विद्या शिकायला पण अनेक जन्म घेण्याशिवाय इतर उपाय नाही. 

पाणी म्हणजे निर प्रमाणेच गुरूंचे अवर्णनीय असेल अनेक गुण व आकार आहेत म्हणून गुरूंना निराकार असे म्हणतात.

आदेश

प्रसन्न संध्या प्रदीप कुलकर्णी

मी काय करू?

एकदा का अध्यात्मिक मार्गाला लागलो की माणसाला अनेकानेक रस्ते दिसू लागतात. इथे प्रत्येक गोष्टीला किंवा प्रश्नाला उत्तर आहे याची त्याला जाणीव होते. मग त्याला समजते की या मार्गात जेवढे करू तितके ते थोडे आहे. 
प्रत्येक साधनेचा वेगवेगळा अनुभव व परिणाम जीवनावर होत असतो. या मार्गात करोडो शुद्ध व सिद्ध मंत्र आहेत. अगदी मार्गतले अडचणी दूर करण्यापासून विविध सिद्धी मिळवण्यासाठी अनेक प्रकारचे मंत्र आहेत. 
पण मग कोणत्या वेळी कोणती साधना करणे आवश्यक आहे ते काही केल्या समजत नाही. यासाठी सद्गुरू मार्गदर्शन आवश्यक असते. आपल्या भूत व भविष्यात होणाऱ्या गोष्टींना अनुरूप तेच आपल्याला साधना देऊ शकतात.
 
बरेचदा आपल्याला वाटते की मला ही साधना काही कामाची नाही किंवा यापेक्षा मी दुसरी साधना करतो म्हणजे माझी आताची गरज भागेल पण जर आपल्या साधनेला सद्गुरूंचा पाठिंबा नसेल तर आपली सद्गुरुप्रति शरणागती कमी आहे असे समजावे. अशा प्रकारे केली गेलेली साधना ही वाया तर जातेच पण त्यासोबत आपले भविष्यातील संकट जास्त गडद करून जाते. 

सद्गुरू शब्द प्रमाण मानून साधना करणे हेच या अध्यात्मिक मार्गातील यशाचे गमक राहिले आहे. तुम्हाला काय हवे आहे ते पाहून कदाचित सद्गुरू साधना नाही सांगणार पण तुमच्यासाठी काय योग्य आहे ते सदगुरु 100% सांगतील आणि हा विश्वास जोपर्यंत तुमच्यात रुजत नाही तोपर्यंत या अध्यात्मिक साधनेच्या समुद्रात आपण किनाऱ्यावरच आहोत असं समजावे. 
सरतेशेवटी मी काय करू हा स्वतःला विचारलेला विषयच या मार्गात चुकीचा आहे कारण या मार्गात कर्ता करविता सद्गुरु असतो. हा प्रश्न या मार्गात कधीच स्वतःला विचारू नका तो कायम सद्गुरू आणि आराध्य यांना विचारा आणि मग बघा यश व सुख कायम तुमच्या घरी नांदेल. 

आदेश
Pkul

Friday, 23 April 2021

स्पंदन - भाग ३

*प्रश्न* - घरांतील स्पंदने जर अशुद्ध असतील, तर ते कसे ओळखावे ?

*उत्तर* - ज्या घरात अशुद्ध स्पंदने आहेत. त्या घरातील माणसांमध्ये वर वर्णन केलेले सर्व किंवा त्याहून अधिक दोष असतात. १) घरात शांती रहात नाही.  २) बरकत म्हणजे पुरवठा होत नाही. ३) घरातील लोक किरकिऱ्या - चिरचीऱ्या स्वभावाचे असतात. ४) घरातील माणसांची मने नेहमी अस्वस्थ व अशांत रहातात. ५) लहान मुलांना नेहमी आजारपण येते. ६) मुले चांगल्या स्वभावाची होत नाहीत. ७) घरातील प्रमुख जर या वातावरणाच्या पूर्ण अधीन गेलेला असेल म्हणजे त्याची स्पंदने जर पूर्णतः अशुद्ध झालेली असतील तर गृहप्रमुख व्यसनी, क्रोधी, अहंकारी व दुष्ट स्वभावाचा असतो. ८) एखादा सज्जन अशा घरात गेला तर, त्याला तत्काळ अस्वस्थता वाटू लागते. ही सारी गृह अशुद्ध असल्याची म्हणजे अशुद्ध वास्तूची लक्षणे आहेत. पुष्कळवेळा असेही पहावयास मिळते की वास्तू अशुद्ध आहे, गृहातील माणसे अशुद्ध स्पंदनलहरींची आहेत; पण त्यांच्यातीलच एखादी व्यक्ती फारच पवित्र आहे; पण याची कारणे वेगळी असतात. पुष्कळवेळा असेही दिसून येते की *वास्तु शुद्ध आहे* घरातील *एक* व्यक्ती अतिशय शुद्ध आहे पण बाकीचे अशुद्ध आहेत. याचे कारण ती एकच व्यक्ती साधनेने शुद्ध झालेली असते व  वास्तूमध्ये तिचा प्रभाव दिसून येतो; पण घरातील इतरांना याची कल्पनाच नसते. ते स्वतःच्या अशुद्धतेतच मस्त असतात. पण आशा घरातील ही पुण्यवान व्यक्ती निधन पावल्यावर काही दिवसातच वास्तू अशुद्ध होते. 

*प्रश्न -*  एखाद्या व्यक्तीने सोवळे किंवा स्पंदने अशुद्ध होऊ नयेत म्हणून काळजी केव्हापासून घ्यावी? व किती दिवस घ्यावी?

*उत्तर -* सर्व सामान्य माणसाने आचारविचार उच्च ठेवावेत. परमेश्वराची नम्रतेने भक्ती करीत राहावे. परोपकार दान-धर्म  करीत रहावे. प्रेमाने वागावे. 

वरील सर्व गोष्टी करीत असताना एकवेळ अशी येते की तुमची स्पंदने जास्त शुद्ध होतात. त्यावेळी अपवित्र माणसाचा स्पर्श किंवा दूर सहवासही तुम्हाला सहन होत नाही. अपवित्र स्पंदने तुम्हाला आपोआप कळू लागतात. प्रत्येक वास्तूमधील स्पंदनांचे ज्ञान तुम्हाला होऊ लागते. आपोआपच तुम्ही अपवित्र किंवा अशुद्ध स्पंदनलहरी असलेल्या गोष्टींपासून दूर जाऊ लागता. येथूनच तुम्ही सोवळे पाळण्यास सुरुवात केलेली असते. सोवळे पाळणे हे ढोंग नसून ती एक अवस्था आहे. या अवस्थेला तत्वज्ञानाच्या भाषेत *विशिष्टाद्वैत* म्हणतात. एकूण अवस्था तीन आहेत. मानवी मन आपोआपच या तीन अवस्था पार करते. 

*१) द्वैत अवस्था-* द्वैत म्हणजे अज्ञानाची, मूढपणाची अवस्था. या अवस्थेत चांगले वाईट काहीच कळत नाही. अहंकाराने मी (फक्त) चांगला, इतर दूषित इत्यादी प्रवृत्ती स्वभावात असतात. देव, मनुष्य व संत यातील फरक कळत नाही. ही अज्ञानरुपी द्वैत अवस्था. याची खूण डोळे मिटल्यावर दिसणारा अंधार.

*२) विशिष्टाद्वैत अवस्था-* परमेश्वरकृपेने मनुष्य ही द्वैतावस्था पार करून विशिष्टाद्वैत अवस्थेत प्रवेश करतो. यावेळी मनुष्याला चांगले काय व वाईट काय याचे ज्ञान होते. द्वैतअवस्थेतील अहंकार येथे बराच कमी झालेला असतो. स्पंदने अतिशय पवित्र व शुद्ध झालेली असतात. अशा व्यक्तीला जो भेद दिसतो तो चांगले वाईट यातला. आपले पावित्र्य सांभाळण्यासाठी तो नेहमी चांगल्या लोकांच्या सहवासात रहातो. वाईट म्हणजे अशुद्ध स्पंदने असलेल्या व्यक्तींच्या सहवासात राहत नाही. तसेच अशुद्ध विचारांची गोष्ट करीत नाही. अशुद्ध वास्तु, अशुद्ध व्यक्ती, अशुद्ध विहार व अशुद्ध विचार, तो करीत नाही. या सर्वांपासून तो दूर रहातो; यालाच *विशिष्टाद्वैत* म्हणतात किंवा सोवळे पाळणे असे म्हणतात. 

हे सर्व कायमचे करायचे नसते तर पुढील प्रगती साध्य व्हावी त्यात अडथळे निर्माण होऊ नयेत यासाठी करायचे असते; म्हणून सोवळ्याचा अभिमान म्हणजे "माझे सोवळे फारच कडक" वगैरे भावना मनात आणू नयेत, उलट हे लक्षात घ्यावे की या सर्व गोष्टी आपल्याला पथ्य म्हणून पाळावयाच्या आहेत किंवा उच्च कोटीची शुद्धावस्था प्राप्त करायची म्हणूनच पाळावयाच्या आहेत.

*३) अद्वैत अवस्था-* एकदा उच्चकोटीची शुद्धावस्था म्हणजे *अद्वैतावस्था* प्राप्त झाली की शुध्द व अशुद्ध हा भेद, चांगले वाईट हा भेद, पवित्र अपवित्र हा भेद, काहीच रहात नाही. *अद्वैतावस्था-* या अवस्थेत कसलाही भेदभाव रहात नाही. भक्त ईश्वरमय होतो. पवित्र- अपवित्र, चांगले - वाईट, सारे काही सम झालेले असते. तो चालता बोलता देव झालेला असतो. चराचरात त्याला परमेश्वरच दिसत असतो. कुणीही स्पर्श केला तरी तो अपवित्र होत नाही. स्त्री, पुरुष , चांगले - वाईट भक्त व निंदक, सारे काही त्याला सारखे झालेले असते.  तो सर्वातीत झालेला असतो. मित्र व शत्रू त्याला रहात नाहीत. 

मानवाचा परमार्थातील प्रवास ही अद्वैतावस्था प्राप्त करण्यासाठीच सुरू असतो. द्वैताकडून अद्वैताकडे जाताना वाटेतील महत्वाचा टप्पा  *विशिष्टाद्वैत* हा असतो.  द्वैत, विशिष्टाद्वैत अद्वैत या पायऱ्या किंवा अवस्था अनुभवीत अंती तो शून्यात किंवा चैतन्यात मिसळून जातो. सर्वत्र वास करणारे चैतन्य तो स्वतःच होतो. अर्थात आपण येथे द्वैत-अद्वैत या दोन्ही अवस्था सोडून फक्त विशिष्टाद्वैत म्हणजे चांगले घेऊन वाईट टाकायचे या अवस्थेचाच विचार करीत आहोत. 

विशिष्टाद्वैत अवस्थेत म्हणजे तुमच्या स्पंदनलहरी शुद्ध होऊ लागल्या की द्वैतावस्थेत असताना डोळे मिटल्यावर जो अज्ञान अंधकार दिसत होता तो दिसणे बंद होते. त्या ऐवजी प्रकाशाचे किरण दिसू लागतात. पुढे पुढे प्रकाशाच्या किरणात देवता व सिद्ध यांची स्पष्ट दर्शने होतात; म्हणजे आपण चित्ताकाशात प्रवेश केला, विशिष्टाद्वैत अवस्थेत प्रवेश केला हे समजावे, आपली स्पंदने बऱ्याच अंशी शुद्ध झालेली आहेत असे समजावे. स्पंदने अशुद्ध होऊ नयेत म्हणून काळजी घ्यावयास सुरुवात करावी. जसजशी आपली स्पंदने शुद्ध होत जातात, तसतशी प्रसन्नता, सदगुण, सद् विचार यांची प्राप्ती होते. सद्गुण वाढू लागतात. जोपर्यंत स्पंदने अशुद्ध आहेत तोपर्यंत मन अस्वस्थ, अशांत व तर्क, वितर्क, कुतर्क करीत रहाते.  क्रोध, अहंकार, दुराग्रहिपणा, कुबुद्धी, मत्सर, द्वेष, वासना, दांभिकता व लोभ इत्यादी दुर्गुण हे अशुद्ध स्पंदनांमुळे निर्माण होतात.

Tuesday, 20 April 2021

तन

सद्गुरूंना शरण तन मन धन या तिन्ही ने जावे असे म्हणतात.  यातील तन हा विषय म्हणजे आपले शरीर व त्याची कृती.. तन मन व धन या व्यतिरिक्त कोणतेच साधन अस्तित्वात नाही.. 

तन हे दृश्य वा अदृश्य असे कृती करण्याचे साधन आहे.. त्याची क्षमता बरेचदा मर्यादित असते.. पण खूप महत्त्वाची असते.. तनाने साथ दिल्यास असंभव सुद्धा संभव होऊ शकते.. एखादी साधना करायची म्हणाल्यास बैठक घेण्यासाठी तन हे प्राथमिक साधन आहे. खूप श्रम केलेले असल्यास तन साथ नाही देत.. थकवा आल्यास आपण अपेक्षित वेळ बैठक नाही घेऊ शकत.. त्यामुळे आपल्या तनाला तसे तयार करावे लागते.. उदा. लहान मुलाला चालण्यासाठी स्वतःच्या तनाला म्हणजे पायाला तयार करावे लागते मग एक एक पाऊल टाकायला तो शिकतो मग पळायला शिकतो तसेच आपण आपल्या शरीराला एखाद्या गोष्टीची सवय लावायला सुरुवात केल्यास ते त्याप्रमाणे तयार होते..   एखाद्या नवीन अध्यात्मिक क्षेत्रात आलेल्या माणसाला बैठक ही हळूहळू वाढवावी लागते पहिल्याच प्रयत्नात साडेतीन तास बैठक अशक्य आहे (सद्गुरू किंवा आराध्य कृपा नसल्यास अशक्य आहे असं).

 याचे अजून एक खूप सुंदर उदाहरण म्हणजे स्वामी विवेकानंद. ते एका वाचनालयात जात असत व मोठं मोठी पुस्तके एका दिवसात वाचून नवीन पुस्तके घेऊन जात असत. एकदा वाचनालयातल्या माणसाने त्यांना त्यांच्या वाचनाबद्दल विचारले तर त्यांनी अगदी पान क्रमांक सकट त्यांनी नेलेल्या पुस्तकातील मजकूर त्यांनी सांगितला.. म्हणजे आपण अशक्य सुद्धा सवयीने शक्य करू शकतो तसे आपल्याला आपल्या शरीराला प्रशिक्षित करता येते. 

जितेंद्रिय म्हणजे ज्याने आपली इंद्रिये जिंकली आहेत तो काहीही करू शकतो. व्यायाम शाळेत लोक जातात तर ते आपल्या तनाची शक्ती वाढवायलाच ना? 

तनाची साथ असल्यास साधना करण्यास अडचण येत नाही.. झोप येत नाही, तहान लागत नाही, भूक लागत नाही माणूस त्या साधनेत लवकर प्रगती करतो. श्वासोच्छ्वास हे तनाचे कार्य आहे त्याद्वारे अजपाजप होणे हे सुद्धा साधनेचा प्रकार आहे.

आपली तनाची शक्ती आपणच मर्यादित ठेवतो. आज जे विश्वात नाव कमावणारे खेळाडू आहेत ते केवळ तनावार अमर्याद मेहनत घेऊन पुढे गेले आहेत. 

तनाची योग्य काळजी घेणे सुद्धा एक गरज आहे. आपण स्वतःला जपल्यास इतरांना आपला त्रास कमी होतो. प्रत्येकाचे शरीर वेगवेगळे असते व ते जास्तीतजास्त कार्य करण्यालायक बनवणे आपल्या हातात आहे. सर सलामत तो पगडी पचास यानुसार राहावे. स्वतः सोबत आपल्या माणसांनाही जपावे. 

अध्यात्मिक दृष्ट्या जर आपण तनाने सद्गुरूंना शरण गेलो तर आपल्या प्रत्येक कृतीवर त्यांचे लक्ष राहते व येणारे भोग सहन करण्याची व त्याचा त्रास कमी करण्याची आपली शक्ती वाढते. साधना उत्तम होतात, प्रारब्धात नसलेल्या चांगल्या गोष्टी घडतात इ. अनेक फायदे होतात. मुळातच प्रत्येक जण इथे जाण्यासाठी आला आहे. मग मृत्यूचे वृथा भय कमी होते. मृत्यू हे अंतिम सत्य आहे पण तत्पूर्वी आपण आयुष्य जगणे व मोक्षप्राप्तीसाठी मेहनत घेणे हे कार्य शरीराने साथ दिल्यास व सद्गुरू मार्गदर्शनने उत्तम रित्या करता येते.  

Pkul

मनातले विचार आणि त्यांचा प्रभाव

मनाचे काम हे विचार करणे आहे. आपण केलेला विचार आणि त्याचा आपल्यावर प्रभाव याचा नक्कीच खूप जवळचा संबंध आहे... जसा आपण विचार करतो तसे आपल्याभोवती स्पंदने निर्माण होतात.. 

उदा. एखाद्या धार्मिक कार्यक्रमाच्या वेळी आपले मन तसा विचार करत असल्याने तशी स्पंदने निर्माण होऊन आपल्याला त्याची अनुभूती सुद्धा येते.

आपले विचार हे आपल्या भोवती स्पंदने निर्माण करण्याची शक्ति ठेवतात.. म्हणून आपल्याला कायम सांगितले जाते की अवघड परिस्थिती आली तरी सकारात्मक विचार करा.. तशी सकारात्मक स्पंदने ही परिस्थिती बदलण्यासाठी उपयुक्त ठरू शकतात. 

याउलट नकारात्मक विचार हे विपरीत शक्तींना आमंत्रित करत असल्याने त्यातून काही चांगल्या गोष्टी घडण्याचे प्रमाण कमी असते.. 

सकारात्मक विचार हे कोणालाही जीवनात यशस्वी करण्या कामी सहाय्य करतात. अवघड गोष्टीं साठी प्रयत्न करण्याची ऊर्जा देतात.. जितकेपण वैज्ञानिक शोध झालेत ते सकारात्मक प्रयत्न आणि सकारात्मक विचार करून कार्यप्राप्ती साठी कष्ट केल्याने झालेत.. अध्यात्मात जी जी साधना आपण करतो त्यातील मंत्र हे त्या दैवताचा विचार करण्यासाठी असतात.. त्यातून ती आपल्यासाठी कार्य करते.. म्हणून आपल्याला सांगितले जाते की  सकारात्मक विचार करा.. आपले मन हे सर्व प्रकारची विचार निर्मिती करते.. त्यामुळे आपल्याला सांगितले जाते की आपले मन हे आराध्याला अर्पण करा.. म्हणजे त्यातून आपले विचार कमी होतील व केवळ आराध्य निर्मित निर्मळ स्पंदने आपल्या भोवती तयार होतील.. सद्गुरुंचे निरंतर सान्निध्य पासून  ब्रह्मांड भेदन पर्यंत अनेक गोष्टी या मन व त्यातील विचार सद्गुरूंना दान केल्याने शक्य आहेत. पण याचा सुद्धा फार थोडा अभ्यास केला गेला आहे. 

वाईट बुद्धीचे तांत्रिक लोक हे बरेचदा आपले विचार ताब्यात घेण्याची क्षमता ठेवतात व त्यातील चांगली स्पंदने आकर्षित करून त्याची शक्ती त्यांच्या कामी वापरतात.. विचार हे एक शस्त्र आहे असं समजले तरी काही हरकत नाही तसेच विचार ही एक ढाल सुद्धा आहे.. मग ते आपण कसे वापरावे ते आपल्या हातात आहे. मनी वसे ते स्वप्नी दिसे.. काही स्वप्ने ही संकेत म्हणून पण येतात तर हे चक्र मनात तयार होते व सत्यात सुद्धा अवतरते. मन तारक असते तसेच मारक सुद्धा असते.. 

विचारपूर्वक विचार करा म्हणजे कृतीत दिसेल.


Pkul

धन


तन व मन यांच्या मुळे धन निर्माण होते म्हणून या साखळीत ते सर्वात शेवटी आहे.. धन हे कोणत्याही स्वरूपाचे असू शकते. व ते दान करण्यासारखे असते..

द्रव्य असो किंवा अध्यात्मिक संपत्ती असो धन हा विचार आणि कृती यांचे अंतिम स्वरूप (साधन) आहे. आपण कमावलेले नाव, साधनेत प्रसन्न झालेले दैवत हे सुद्धा तर धनच आहे. 

काहीही केले तरी काय कमावले यास महत्त्व आहे. त्यातून आपली मेहनत दिसते. 

धनाचा वापर करणे सुद्धा योग्य प्रकारे होणे गरजेचे आहे.

उदा. महिन्याला आपण जे द्रव्य कमावतो ते आधी आपल्या अत्यावश्यक गरजांना वापरणे व त्यानंतर थोडी बचत व त्यातून काही उरल्यास चैन करायला खर्च करणे महत्वाचे आहे.. आपण चैन करायला पाहिले सुरुवात केली तर आपल्या मुख्य गरजा दुर्लक्षित राहतील. 

धन हे संपण्यासाठीच असते. आपल्याला मिळालेले आयुष्य हे सुद्धा धन आहे. जे खर्च होते आहे..  मग त्याचा वापर कसा करायचा ते आपल्या हातात आहे. योग्य तन व मन चा वापर केल्यास या आयुष्याला योग्य आकार येतो. जन्माला आला आणि पाणी वाहून मेला अशी आपली गत होण्यापेक्षा विधायक कार्यात आपले आयुष्यरूपी धन वापरले तर तेवढिच पुण्यप्राप्ती होऊन मोक्षप्राप्ती साठी वाट सुकर होईल. योग्य सद्गुरू मार्गदर्शन हे यासाठीच महत्वाचे असते.  

आपले आयुष्य हे खूप गुंतागुंतीच विशाल चक्र आहे. सुख दुःख व भावना हे मनाचे खेळ आहेत. पण आपले आयुष्यच आपलं सर्वात मोठं धन आहे. व त्याचा योग्य वापर करावा हेच महत्वाचे. 

प्रसन्न संध्या प्रदीप कुलकर्णी

Sunday, 4 April 2021

नैवेद्य



साधना असो आरती असो किंवा सेवा असो नैवेद्य हे देवाला देण्यामागे फार छान असे शास्त्र आहे. फार कमी अशा गोष्टी आहेत को ज्या आपण देवाला देऊ शकतो त्यातली नैवेद्य ही गोष्ट अतिशय सोपी आणि खास आहे. 

साधना करतेवेळी नैवेद्य दाखवताना काही गोष्टी ध्यानात ठेवणे गरजेचे असते. 
१. आपण दाखवलेला नैवेद्य हा आपण खाऊ शकू असा असावा.. 
२. शिळा नसावा
३. दैवताला आवडणाऱ्या नैवेद्याची माहिती आधी करून घेणे हितावह असते.
४. कुलदैवत व आराध्य याना दाखवलेला नैवेद्य सोडला तर बाकी कोणत्याही साधनेचा नैवेद्य खाऊ नये. 
५. गायीला खायला द्यावा किंवा त्या त्या दैवतेचे जे कोणी प्रतीक असेल त्यास खाऊ घालावा.
६. नैवेद्य हा थोडाच दाखवावा. उगीच वाया जाईल असे काही करू नये.

नैवेद्य दाखवताना आपण त्या दैवताला खाऊ घालत असल्याची भावना मनात असावी. शक्य तितक्या कोमल भावनेने नैवेद्य अर्पण करावा. नैवेद्य दाखवल्यावर ५ मिनिट थांबून मनात ते दैवत आपण दाखवलेला नैवेद्य ग्रहण करत असल्याची भावना ठेवावी. 

साधना झाली की लगेचच नैवेद्य उचलून घ्यावा. आपण देऊ शकतो अशा फार कमी गोष्टी आहेत त्यात नैवेद्य हा अग्रभागी आहे. आपल्या हाकेला धावणाऱ्या दैवताप्रति आपण केलेल्या सेवेव्यतिरिक्त नैवेद्य हीच गोष्ट थेट जाते. नैवेद्य दाखवताना आपल्या इच्छा त्या दैवताला सांगू नयेत. त्या सांगायला संकल्प पुरेसा असतो. केवळ आणि केवळ देण्याच्या भावनेने नैवेद्य अर्पण करावा. नैवेद्यसोबत थोडे पाणी सुद्धा ठेवावे व नन्तर ते झाडाला टाकावे. 
*टीप- या सर्व गोष्टी फक्त साधना करताना दाखविल्या जाणाऱ्या नैवेद्य पुरत्याच मर्यादित आहेत.*

प्रसन्न संध्या प्रदीप कुलकर्णी

Thursday, 1 April 2021

स्थान

साधनेसाठी बसताना आपले स्थान खूप महत्वाचे असते. कारण तिथे आपण आपल्या साधना दैवत सोबतच आराध्य दैवत सुद्धा आमंत्रित करतो. ती जागा जितकी शुद्ध व चांगली असेल तितक्या वेळ साधना दैवत आपल्या सोबत थांबते. यात सुद्धा निर्माण होणारी स्पंदने ही लवकर तयार होतात. एखाद्या मंदिरात केलेली साधना ही जास्त लवकर फलदायी होते कारण तिथे आधीच्या साधकांनी केलेली साधना व पूजा यामुळे ती स्पंदने आधीपासूनच असतात.. व लवकरच ती आकर्षित होतात.
उदा. जर गणपती मंदिरात आपण गणपती साधना केली तर तेथील आधीच्या साधकांनी केलेल्या साधनेची स्पंदने व आपल्या साधनेतील तरंग एकत्र होऊन एक वेगळी प्रभावी शक्ती तयार होते. व साधनेचे इच्छित फलित लवकर प्राप्त होते किंवा साधना लवकर साध्य होते.

आता काही साधकांना सिद्धी प्राप्त असते व ते कोणत्याही जागी बसून साधना करताना सिद्धी द्वारे साधना दैवत आहे तिथे जाऊ शकतात. 


पण सर्वांना हे शक्य नसते अशा वेळी आपण आपले साधनेचे ठिकाण हे कसे शुद्ध असावे किंवा आपल्या साधना दैवतच्या जास्तीत जास्त कसे जवळ असावे हे पाहणे महत्वाचे आहे. साधनेची जागा ही कशी असावी ही सुद्धा फार महत्वाची गोष्ट आहे.. 
 आपले देवघर आपण जास्तीत जास्त स्वच्छ ठेवणे, नित्यनेमाने फुले इतर गोष्टी बदलणे तसेच दाखवलेला नैवेद्य इ गोष्टी यांची नन्तर साफसफाई करणे यातून त्या स्थानाची स्पंदने निर्माण करण्याची शक्ती वाढते. आपण बसल्यावर लावलेला धुपचा सुगंध तसेच दीप सुद्धा स्पंदन निर्माण करण्याची ऊर्जा देतो. थोडक्यात साधना ही स्पंदननिर्मिती आहे व ती करताना जास्तीत जास्त प्रभावी होण्यासाठी स्थान व इतर वातावरणचा होणारा परिणाम खूप महत्वाचा आहे. 

साधनेचे खूप प्रकार आहेत त्यात
१. एकांत साधना
२. समूह साधना
३. गुरुपरिवारासोबत साधना
४. सदगुरूसह केलेली साधना
५. विशिष्ट कार्यप्राप्ती साठी केलेली साधना इ.

तांत्रिक लोक हे गुप्त ठिकाणी साधना करतात कारण त्या ठराविक स्थानी त्यांना ती स्पंदने मिळाली असतात व साधना कित्येक पटीत फलदायी होते. 
पण या सर्वात सद्गुरू मार्गदर्शन खाली निवडलेल साधना स्थान हे सर्वोत्तम असते. त्यांच्या सांगण्यावरून केलेली साधना ही कुठेही फलदायी असतेच. त्या साधना दैवतला आपल्या साधना स्थळी यावच लागत.  कारण गुरुस्पंदने ही सर्वोच्च स्पंदने आहेत (हीच शिवशक्ती स्पंदने आहेत).. ती जेव्हा साधनेत मिसळतात तेव्हा साधना दैवतच काय तर संपूर्ण विश्वातील शक्ती त्वरित तेथे येते. 
त्यामुळे सद्गुरू सांगतील तेथे निःशंक मनाने व निडरतेने साधना करावी. 
याऊलट तुम्हाला लाख सिद्धी प्राप्त झाली आणि सद्गुरूंनी एखाद्या ठिकाणी साधना करू नये असं सांगितलं तर तेथे साधना करू नये कारण भले साधना दैवतच काय तर मूळ शक्ती जरी तिथे समोर जरी आली तरी ती साधना फलद्रूप होत नाही..

 
आदेश🙏🏻

Saturday, 27 March 2021

श्री दत्त वज्र पन्जर कवचम्


श्री दत्त वज्र पन्जर कवचम्

विनियोगः ॐ अस्य श्रीदत्तात्रेय वज्रपन्जर कवच स्तोत्र कवच मंत्रस्य श्री किरातरूपी महारुद्र ऋषिः, अनुष्टुप छंदः, श्री दत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजं, आं शक्तिः, क्रौं कीलकं, ॐ आत्मने नमः। ॐ द्रीं मनसे नमः। ॐ आं द्रीं श्रीं सौः ॐ क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं क्लः। श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः
श्री किरातरूपी महारुद्र ऋषये नमः शिरसि।
अनुष्टुप छंदसे नमः मुखे।
श्री दत्तत्रेयो देवतायै नमः ह्रदि।
द्रां बीजाय नमः गुह्ये।
आं शक्तये नमः नाभौ।
क्रौं कीलकाय नमः पादयोः।
श्री दत्तात्रेय प्रसाद सिद्ध्यर्थे समस्त श्रीगुरुमण्डल प्रीति द्वारा मम सम्पूर्ण रक्षणार्थे, स्वकृतेन आत्म मंत्रयंत्रतंत्र रक्षणार्थे च पारायणे विनियोगाय नमः अंजलौ।

करन्यासः                             ह्र्दयादिन्यासः
ॐ द्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः।                ॐ द्रां ह्रदयाय नमः।
ॐ द्रीं तर्जनीभ्यां नमः।                 ॐ द्रीं शिरसे स्वाहा।
ॐ द्रूं मध्यमाभ्यां नमः।                ॐ द्रूं शिखायै वषट्।
ॐ द्रैं अनामिकाभ्यां नमः।               ॐ द्रैं कवचाय हुं।
ॐ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।             ॐ द्रौं नेत्रत्रयाय वौषट।
ॐ द्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।          ॐ द्रः अस्त्राय फट्।
ॐ भूर्भुवः स्वरोम इति दिग्बन्धः।

ध्यानम्ः
जगदंकुरकन्दाय सच्चिदानन्द मूर्तये। दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने॥
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्नः पिशाचवत्। दत्तात्रेयो हरिः साक्षाद् भुक्तिमुक्ति प्रदायकः॥
वाराणसीपुर स्नायी कोल्हापुर जपादरः। माहुरीपुर भिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बरः॥
इन्द्रनील समाकारः चन्द्रकान्तसम द्युतिः। वैडूर्यसदृश स्फूर्तिः चलत्किंचित जटाधरः॥
स्निग्धधावल्य युक्ताक्षो अत्यन्त नीलकनीनिकः। भ्रूवक्षः श्मश्रु नीलांकः शशांक  सदृशाननः॥
हासनिर्जित नीहारः कण्ठनिर्जित कम्बुकः। मांसलांसो दीर्घबाहुः पाणिनिर्जित पल्लवः॥
विशाल पीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दलोदरः। पृथुल श्रोणि ललितो विशाल जघनस्थलः॥
रम्भास्तम्भोपमानः ऊरूर्जानु पूर्वैकजंघकः। गूढ़गुल्फः कूर्मपृष्ठो लसत् पादोपरिस्थलः॥
रक्तारविन्द सदृश रमणीय पदाधरः। चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे॥
ज्ञानोपदेश निरतो विपद हरणदीक्षितः। सिद्धासन समासीन ऋजुकायो हसन्मुखः॥
वामहस्तेन वरदो दक्षिणेन् अभयं करः। बालोन्मत्त पिशाचीभिः क्वचिद् युक्तः परीक्षितः॥
त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरंजनः। सर्वरूपी सर्वदाता सर्वगः सर्वकामदः॥
भस्मोद्धूलित सर्वांगो महापातकनाशनः। भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशयः॥
एवं ध्यात्वा अनन्यचित्तो मद् वज्रकवचं पठेत्। मामेव पश्यन् सर्वत्र स मया सह संचरेत्॥
दिगम्बरं भस्म सुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदायुधम्।
पद्मासनं योगिमुनीन्द्र वन्दितं दत्तेति नाम स्मरणेन् नित्यम्॥

मूल कवचम्ः
ॐ दत्तात्रेयः शिरः पातु सहस्राब्जेषु संस्थितः । भालं पातु अनसूयेयः चन्द्रमण्डल मध्यगः ॥१॥
कूर्चं मनोमयः पातु हं क्षं व्दिदल पद्मभूः। ज्योतिरूपो अक्षिणी पातु पातु शब्दात्मकः श्रुतिः ॥२॥
नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मकः। जिह्वां वेदात्मकः पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिकः ॥३॥
कपोलावत्रिभूः पातु पातु अशेषं ममात्मवित्। स्वरात्मा षोडशाराब्ज स्थितः स्वात्मा अवताद् गलम् ॥४॥
स्कन्धौ चन्द्रानुजः पातु भुजौ पातु कृतादिभूः। जत्रुणी शत्रुजित पातु पातु वक्षः स्थलं हरिः ॥५॥
कादिठान्त व्दादशार पद्मगो मरुदात्मकः। योगीश्वरेश्वरः पातु ह्रदयं ह्रदय स्थितः ॥६॥
पार्श्वे हरिः पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थितः समृतः। हठयोगादि योगज्ञः कुक्षी पातु कृपानिधिः ॥७॥
डकारादि फकारान्त दशार सरसीरुहे। नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्न्यात्मकोऽवतु ॥८॥
वह्नि तत्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम्। कटिं कटिस्थ ब्रह्माण्ड वासुदेवात्मकोऽवतु ॥९॥
बकारादि लकारान्त षट्पत्राम्बुज बोधकः। जल तत्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ॥१०॥
सिद्धासन समासीन ऊरू सिद्धेश्वरोऽवतु। वादिसान्त चतुष्पत्र सरोरुह निबोधकः ॥११॥
मूलाधारं महीरूपो रक्षताद् वीर्यनिग्रही। पृष्ठं च सर्वतः पातु जानुन्यस्तकराम्बुजः ॥१२॥
जंघे पातु अवधूतेन्द्रः पात्वंघ्री तीर्थपावनः। सर्वांगं पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशवः ॥१३॥
चर्म चर्माम्बरः पातु रक्तं भक्तिप्रियोऽवतु। मांसं मांसकरः पातु मज्जां मज्जात्मकोऽवतु ॥१४॥
अस्थीनि स्थिरधीः पायान्मेधां वेधाः प्रपालयेत्। शुक्रं सुखकरः पातु चित्तं पातु दृढ़ाकृतिः ॥१५॥
मनोबुद्धिं अहंकारं ह्रषीकेशात्मकोऽवतु। कर्मेन्द्रियाणि पात्वीशः पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यजः ॥१६॥
बन्धून् बन्धूत्तमः पायात् शत्रुभ्यः पातु शत्रुजित्। गृहाराम धनक्षेत्र पुत्रादीन् शंकरोऽवतु ॥१७॥
भार्यां प्रकृतिवित् पातु पश्वादीन् पातु शांर्गभृत्। प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन् पातु भास्करः ॥१८॥
सुखं चन्द्रात्मकः पातु दुःखात् पातु पुरान्तकः। पशून् पशुपतिः पातु भूतिं भूतेश्वरो मम् ॥१९॥
प्राच्यां विषहरः पातु पातु आग्नेयां मखात्मकः। याम्यां धर्मात्मकः पातु नैर्ऋत्यां सर्ववैरिह्रत् ॥२०॥
वराहः पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु। कौबेर्यां धनदः पातु पातु ऐशान्यां महागुरुः ॥२१॥
ऊर्ध्वं पातु महासिद्धः पातु अधस्ताद् जटाधरः। रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षतु आदिमुनीश्वरः ॥२२॥

फलश्रुतिः
एतन्मे वज्रकवचं यः पठेच्छृणुयादपि । वज्रकायः चिरंजीवी दत्तात्रेयो अहमब्रुवम् ॥२३॥
त्यागी भोगी महायोगी सुखदुःख विवर्जितः । सर्वत्र सिद्धिसंकल्पो जीवन्मुक्तोऽथ वर्तते ॥२४॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बरः । दलादनोऽपि तज्जपत्वा जीवन्मुक्तः स वर्तते ॥२५॥
भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवानिदम् । सकृच्छ्र्वणमात्रेण वज्रांगो अभवदप्यसौ ॥२६॥
इत्येतद वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिनः । श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनरप्याह पार्वती ॥२७॥
एतत् कवचं माहात्म्यं वद विस्तरतो मम् । कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम् ॥२८॥
उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम् । श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनाविलम् ॥२९॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां इदमेव परायणम् । हस्त्यश्वरथपादाति सर्वैश्वर्य प्रदायकम् ॥३०॥
पुत्रमित्रकलत्रादि सर्वसन्तोष साधनम् । वेदशास्त्रादि विद्यानां निधानं परमं हि तत् ॥३१॥
संगीतशास्त्रसाहित्य सत्कवित्व विधायकम् । बुद्धि विद्या स्मृतिप्रज्ञां अतिप्रौढिप्रदायकम् ॥३२॥
सर्वसन्तोष करणं सर्व दुःख निवारणम् । शत्रु संहारकं शीघ्रं यशः कीर्तिविवर्धनम् ॥३३॥
अष्टसंख्या महारोगाः सन्निपातः त्रयोदशः । षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगकाः ॥३४॥
अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मानि अष्टविधान्यपि । अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंश्त्तु पैत्तिकाः ॥३५॥
विंशति श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादयः । मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्याः कल्पतन्त्रादि निर्मिताः ॥३६॥
ब्रह्मराक्षस वेतालकूष्माण्डादि ग्रहोद्भवाः । संगजा देशकालस्थान तापत्रयसमुत्थिताः ॥३७॥
नवग्रह समुद्भूता महापातक सम्भवाः । सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति सहस्रावर्तनाद् ध्रुवम् ॥३८॥
अयुतावृत्ति मात्रेण वन्ध्या पुत्रवति भवेत् । अयुत व्दितयावृत्या हि अपमृत्युर्जयो भवेत् ॥३९॥
अयुत त्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते । सहस्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत् ॥४०॥
लक्षावृत्त्या कार्यसिद्धिः भवत्येव न संशयः । विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुखः ॥४१॥
कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम् । औदुम्बर तरोर्मूले वृद्धिकामेन् जाप्यते ॥४२॥
श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिंतिणी शांतिकर्मणि । ओजस्कामो अश्वत्थमूले स्त्रीकामैः सहकारके ॥४३॥
ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभिः । धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके ॥४४॥
देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम । नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुम् आलोक्य यो जपेत् ॥४५॥
युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेण जयो भवेत् । कंठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत् ॥४६॥
ज्वरापस्मार कुष्ठादि तापज्वर निवारणम् । यत्र यत्स्यात्स्थिरं यद्यत्प्रसन्नं तन्निवर्तते॥४७॥
तेन् तत्र हि जप्तव्यं ततः सिद्धिर्भवेद्‍ ध्रुवं । इत्युक्त्वान् च शिवो गौर्ये रहस्यं परमं शुभम् ॥४८॥
यः पठेत् वज्रकवचं दत्तात्रेयो समो भवेत् । एवं शिवेन् कथितं हिमवत्सुतायै प्रोक्तम् ॥४९॥
दलादमुनये अत्रिसुतेन पूर्वम् यः कोअपि वज्रकवचं। पठतीह लोके दत्तोपमश्चरति योगिवरश्चिरायुः॥५०॥

पाठ विधि:

१००० पाठ का संकल्प लें। गुरु पूजन व गणेश पूजन कर पाठ आरम्भ करें। पहले पाठ में मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। बीच के पाठों में मात्र मूल कवच का पाठ करें। और अंतिम पाठ में पुनः मूल कवच और फलश्रुति दोनों का पाठ करें। आप १००० पाठ को ५ या ११ या २१ दिनों में सम्पन्न कर सकते हैं। इस तरह इस सम्पूर्ण प्रक्रम को आप ५ बार करें। तो कुल ५००० पाठ सम्पन्न हो जायेंगे।

Saturday, 20 March 2021

श्री वैद्यनाथ स्तोत्रम्

श्रीवैद्यनाथस्तोत्रम् 

अचिकित्सचिकित्साय आद्यन्तरहिताय च ।
सर्वलोकैकवन्द्याय वैद्यनाथाय ते नमः ॥ १॥

अप्रेमेयाय महते सुप्रसन्नमुखाय च ।
अभीष्टदायिने नित्यं वैद्यनाथाय ते नमः ॥ २॥

मृत्युञ्जयाय शर्वाय मृडानीवामभागिने ।
वेदवेद्याय रुद्राय वैद्यनाथाय ते नमः ॥ ३॥

श्रीरामभद्रवन्द्याय जगतां हितकारिणे ।
सोमार्धधारिणे नित्यं वैद्यनाथाय ते नमः ॥ ४॥

नीलकण्ठाय सौमित्रिपूजिताय मृडाय च ।
चन्द्रवह्न्यर्कनेत्राय वैद्यनाथाय ते नमः ॥ ५॥

शिखिवाहनवन्द्याय सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे ।
मणिमन्त्रौषधीशाय वैद्यनाथाय ते नमः ॥ ६॥

गृध्रराजाभिवन्द्याय दिव्यगङ्गाधराय च ।
जगन्मयाय शर्वाय वैद्यनाथाय ते नमः ॥ ७॥

कुजवेदविधीन्द्राद्यैः पूजिताय चिदात्मने ।
आदित्यचन्द्रवन्द्याय वैद्यनाथाय ते नमः ॥ ८॥

वेदवेद्य कृपाधार जगन्मूर्ते शुभप्रद ।
अनादिवैद्य सर्वज्ञ वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ ९॥

गङ्गाधर महादेव चन्द्रवह्न्यर्कलोचन ।
पिनाकपाणे विश्वेश वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ १०॥

वृषवाहन देवेश अचिकित्सचिकित्सक ।
करुणाकर गौरीश वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ ११॥

विधिविष्णुमुखैर्देवैरर्च्यमानपदाम्बुज ।
अप्रमेय हरेशान वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ १२॥

रामलक्ष्मणसूर्येन्दुजटायुश्रुतिपूजित ।
मदनान्तक सर्वेश वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ १३॥

प्रपञ्चभिषगीशान नीलकण्ठ महेश्वर ।
विश्वनाथ महादेव वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ १४॥

उमापते लोकनाथ मणिमन्त्रौषधेश्वर ।
दीनबन्धो दयासिन्धो वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ १५॥

त्रिगुणातीत चिद्रूप तापत्रयविमोचन ।
विरूपाक्ष जगन्नाथ वैद्यनाथ नमोऽस्तु ते ॥ १६॥

भूतप्रेतपिशाचादेरुच्चाटनविचक्षण ।
कुष्ठादिसर्वरोगाणां संहर्त्रे ते नमो नमः ॥ १७॥

जाड्यन्धकुब्जादेर्दिव्यरूपप्रदायिने ।
अनेकमूकजन्तूनां दिव्यवाग्दायिने नमः ॥ १८॥

Thursday, 28 January 2021

मी कोण आहे?

मी कोण आहे? याच उत्तर मनुष्य कधीच मिळवू शकत नाही त्याला आत्म ज्ञान प्राप्त झाले तरी त्याला मी चा अर्थ समजत नाही कारण इथे मी नसून तो अहंकार आहे हे समजायला च अनेक युग जातात. प्रत्येक जण थोड अध्यात्म समजायला लागला की आपण अहांकरापासून कसे लांब राहू याचा विचार करत असतो पण लांब राहू देईल तो अहंकार कसला. 

आपले एखाद्या कर्मा विषयीचे एकाग्र मन हेच आपल्याला अहंकारा पासून लांब ठेवू शकते. प्रत्यक्ष भगवंताशी एकरूप असणाऱ्या सोबत प्रत्यक्ष वैखरी असणाऱ्या सतगुरु ला किती अहंकार असला पाहिजेल परंतु सतगुरू, संत, ऋषी असे पद जेव्हा भगवंत साधकाच्या वाटेला देतो तेव्हा त्यांचे शरीर,मन,आत्मा त्यांचा नसून त्या सर्वशक्तिमान ईश्वराचे झालेला असतो. 

एखाद्या बाळंतीण स्त्री कडून तिचे नुकतेच जन्मलेले बाळ कायमस्वरूपी घेऊन गेल्यावर  तेव्हा तिची  अवस्था जशी असेल तशी अवस्था आपल्याला नाथ दूर गेल्यावर झाले पाहिजेल. 

अलख आदेश |

श्राद्ध न करनेसे हानि

अपने शास्त्रने श्राद्ध न करनेसे होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः आद्ध-तत्त्वसे परिचित होना तथा उसके अनुष्ठा...